समकालीन जनमत
स्मृति

ज़माना नाक़ाबिले-बर्दाश्त है…

(मंटो के जन्मदिन पर विशेष)

[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]कुमार वीरेन्द्र [/author_info] [/author]

जो क़द हिन्दी में प्रेमचंद का है वही क़द उर्दू में सआदत हसन मंटो (11 मई 1912-18 जनवरी 1955) का है। मंटो प्रेमचंद से छोटे थे। मंटो ने उतना नहीं लिखा, जितना प्रेमचंद ने क्योंकि मंटो का जीवनकाल छोटा रहा। लेकिन गौर करने की बात यह है कि प्रेमचंद की प्रत्येक कहानी यथार्थपरक स्टैन्ड लेकर आती हो, ऐसा नहीं है। कई भंगिमायें हैं। पर मंटो की प्रायः सभी कहानियाँ यथार्थपरक हैं। इसके लिए मंटो की सराहना भी की जा सकती है और आलोचना भी। हाँ, प्रेमचंद के यहाँ अनुभव वैविध्य है, मंटो के यहाँ नहीं। पर मंटो दारूण सत्य को, वीभत्स यथार्थ को यथातथ्य रखते हैं।

मंटो की लगभग प्रत्येक कहानी दारूण यथार्थ से आंख मिलाने का साहस रखती है। ऐसी गूँज पैदा करती है कि वह मानवता के पक्ष में जाए। यथार्थ की दारूणता का पीछा करते हुए मंटो कहीं भी मौका नहीं देते कि दारूणता को छिपा लिया जाय। लेकिन यह भी सच है कि यथार्थ का रूप सामने रखकर वह उसके सामने समर्पण नहीं कर देते। यह संदेश देते हैं कि दारूणता का प्रतिकार भी हो सकता है।

मंटो की एक प्रसिद्ध कहानी है ‘टोबा टेक सिंह’ कहानी का जो मुख्य पात्र बिशन सिंह है, पागल है। लेकिन यहाँ पागलपन एक प्रतिकार है। यह ठीक है कि बिशन सिंह बिल्कुल असहाय है, पर असहाय चरित्र में ही संवेदनशील चरित्र उभरता है। बिशन सिंह का चरित्र एक प्रतिकार की मुद्रा में, एक विरोध की मुद्रा में विकसित होता है। प्रेमचंद यथार्थ के दारूण रूप को कई बार बचा ले जाते हैं या कोमल बना देते हैं पर मंटो ऐसा नहीं करते। वह मानते हैं कि हमारा संवेदनशील बने रहना प्रतिरोध करने का एक सरल उपाय है।

कुछ लोगों को सआदत हसन मंटो का साहित्य अश्लील और आपत्तिजनक लगता हैं। कुछ लोगों को मंटो की कहानियाँ झटका मारती हैं तो कुछ को झकझोर देती है। कुछ लोगों को मंटो के रचनाकर्म में सनकीपन और आवारापन नजर आता है। ऐसे लोगों के लिए सआदत हसन मंटो ने लिखा है ‘जमाने के जिस दौर से हम इस वक्त गुजर रहे हैं, अगर आप उससे नावाकिफ हैं तो मेरे अफसाने पढ़िए। अगर आप उन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो उसका मतलब है कि जमाना नाकाबिले- बर्दाश्त है। मुझमें जो बुराइयां हैं, वह इस युग की बुराइयां हैं। मेरी तहरीर में कोई दोष नहीं है। मुझे जो दोष दिया जाता है। दरअसल वह मौजूदा निजाम का दोष है।’

समाज के ठेकेदार जमाने की जिन सच्चाइयों को हमेशा ढका-छिपा ही देखना पसंद करते थे, मंटो ने उन्हीं सच्चाइयों को बेपर्दा किया। इसी कारण मंटो को अपने युग का महान अफसानानिगार होने के साथ-साथ एक बेरहम सर्जन भी माना जाता है, जिसने सड़ी-गली मान्यताओं को समाज से निकालने में कभी परहेज नहीं किया। इस रचनात्मक जिद के कारण मंटो को कभी जेल का तो कभी पागलखाने का चक्कर लगाना पड़ा।

जमाने के बागी रचनाकार सआदत हसन मंटो का जन्म समराला, जिला लुधियाना (पंजाब) में हुआ। मंटो ने उच्च शिक्षा के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। लेकिन बीमारी के कारण वहां ज्यादा दिन नहीं टिक सके। लाहौर में ‘पारस’ और ‘मुसब्बिर’ में काम किया। मंटो की पहली कहानी ‘तमाशा’ थी जो जालियांवाला बाग कांड पर केन्द्रित थी, हालांकि पहला कहानी संग्रह ‘आतिशपारे’ सन् 1936 में प्रकाशित हुआ। मंटो की लगभग 42 (बयालीस) वर्ष की जिन्दगी में तकरीबन 19 वर्ष साहित्यिक रचनाशीलता के थे। इस दरम्यान मंटो ने लगभग 230 कहानियां, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख लिखे। मंटो की रचनाओं पर कई फिल्में भी बनी। आर्देशिर ईरानी की इम्पीरियल कंपनी द्वारा निर्मित भारत की पहली रंगीन फिल्म ‘किसान कन्या’ की पटकथा और संवाद मंटो ने ही लिखे थे। अशोक कुमार की फिल्म ‘आठ दिन’ में मंटो ने एक छोटी-सी भूमिका भी अभिनीत की थी।

मंटो को दुनिया का सबसे बदनाम लेखक माना जाता है। इसका कारण है, मंटो ने अपनी रचना का हिस्सा उन पात्रों को नहीं बनाया जो जीवन में सड़क की बायीं ओर चलने के अभ्यस्त थे। जग-जीवन के जो पात्र जीवन के लिए निर्धारित ट्रैफिक रूल्स का उल्लंघन करने के आदी रहे हैं, मंटो ने उन्हें अपनी रचनाओं में प्रिय पात्र बनाया। समाज के मुफलिस, लफंगे, खूनी, व्यभिचारी, आवारा, पागल, दलाल, अय्याश, वेश्यागामी, शराबी, गुंडा मवाली, लुच्चा, बदतमीज, बदचलन, बदमिजाज, सनकी, जुआरी आदि बेपटरी लोगों को मंटो ने अपनी कहानियों का पात्र बनाया। ऊपरी तौर पर ऐसे पात्रों को देखकर पाठक असहज महसूस करता है। परंतु सच्चाई यह है कि ऐसे बेलीकी पात्रों को केन्द्र में रखकर लिखी गई रचनाएँ समाज में व्याप्त गंदगी का आईना हैं।

मंटो ने साहित्य की पिटी-पिटाई लीक को लात मार दिया, सभ्य समाज की मानसिक असभ्यता को उजागर किया और अश्लीलता की परिभाषा भी बदल दी। ‘काली सलवार’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘खोल दो’, ‘खूनी थूक’, ‘पेशावर से लाहौर तक’, ‘नया कानून’, ‘टोबा टेक सिंह’ जैसी कहानियां ओ हेनरी की कहानियों की तरह अंत में झटका मारती हैं। सच झटकेदार होता ही है। मंटो ने जो देखा, उसी को सच-सच लिखने का खतरा उठाया। सच बयां करने के कारण मंटो ने पांच बार जेल की हवा खाई।

‘काली सलवार’, ‘बू’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘ धुआं’ तथा ‘ऊपर-नीचे और दरम्यान’ शीर्षक कहानियां पर मुकदमे चले, सजा हुई, जब्ती हुई। बावजूद इसके मंटो ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा कि ‘जदीद अदब तरक्कीपसंद अदब या अश्लील साहित्य का (जो कुछ भी यह है) खात्मा करना चाहता है तो सही रास्ता यह है कि उन हालात को खत्म किया जाए जो ऐसे साहित्यों के प्रेरक हैं। मंटो ने अपने ऊपर लग रहे अश्लीलता के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि ‘मैं तहजीब, संस्कृति या सोसायटी की चोली क्या उतारूँगा जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, क्योंकि वह मेरा काम नहीं दर्जियों का काम है।’

मंटो का दिमाग़ हर वक्त काम करने के कारण तपता रहता था। मंटो ने अहमद नदीम क़ासिमी को पत्र (12 फरवरी, 1939) में लिखा था कि ‘मेरा नार्मल दर्जा-ए-हरारत एक डिग्री ज्यादा है, जिससे आप मेरी अंदरूनी तपिश का अंदाज़ा लगा सकते हैं।’ मंटो की मुँहफट कहानियां, उसके अंदरूनी तपिश की वाह्याभिव्यक्ति हैं, और सामाजिक विसंगतियों के विरूद्ध ‘थर्ड डिग्री’ की तरह हैं।

मंटो को लिखने का व्यसन था और शराब पीने का भी। शराब के कारण मंटो का पूरा जिगर जलकर नष्ट हो गया था और डाॅक्टर हैरान थे कि वह जिंदा कैसे है। मंटो ने स्वयं लिखा है कि ‘सच पूछो तो जैसे मैं खाता हूँ, उसी तरह कहानी लिखता हूँ। मुझे शराब की तरह लिखने का भी व्यसन पड़ चुका है। मैं कहानी न लिखूँ तो मुझे लगता है जैसे मैंने कपड़े नहीं पहने हैं, नहाया नहीं है या शराब नहीं पी है। अपनी मृत्यु के दिन मंटो ने अपनी बीबी से आहिस्ते कहा था मेरे कोट की जेब में साढ़े तीन रूपये पड़े हैं। उनमें कुछ पैसे मिलाकर थोड़ी सी व्हिस्की मंगा दो। ’एंबुलेंस घर के दरवाजे पर खड़ी थी, मंटो ने शराब मांगी, एक चम्मच व्हिस्की मंटो के मुंह में डाल दी गई, लेकिन एक कतरा मुश्किल से हलक के नीचे उतर सका, बाकी शराब मुँह से गिर गई और मंटो अचेत होकर होशो-हवाश खो बैठे। मंटो फिर कभी होश में नहीं आ सके। और यह अंतिम तारीख थी 18 जनवरी, 1955, मंटो के दुनिया से गुजरने (दिवंगत) पर कुछ भी बंद न हुआ। दुनिया पूर्व की भांति चलती रही। लेकिन तांगे की सवारी कर रहे अफसानानिगार कृष्णचंदर ने जब तांगेवाले को सूचित किया कि मंटो नहीं रहा तो तांगा रूक गया। तांगा-चालक (कोचवान) ने तांगा रोक दिया, पीछे का दरवाजा खोलकर बैठी हुई सवारी से कहा कि आप दूसरा तांगा ले लें, गाड़ी आगे नहीं जाएगी।

लाहौर स्थित मंटो की कब्र पर लगे पत्थर पर खुदा है- ‘यहां सआदत हसन मंटो दफन है, उसके सीने में फने अफसानानिगारी के सारे असरार व रमोज दफन हैं। वह अब भी मानो मिट्टी के नीचे सोच रहा है कि वह बड़ा अफसानानिगार है या खुदा!’ यह जो व्यंग्योक्ति है यह खुदा पर नहीं वरन् खुदा के उन बंदो पर है, जिन्होंने मंटो की कहानियों पर तरह-तरह के इल्जाम लगाये। यह पत्थर मंटो ने मृत्यु पूर्व खुद ही खुदवाया था। इन पंक्तियों में खुदा पर भी कम तोहमत नहीं है। खुदा ने मंटो को मात्र बयालीस बरस, आठ महीने और सात दिन उधार दिये थे, पंरतु मंटों ने अपने पात्रों को सदियाँ दी हैं, बावजूद इसके कि जीवन के लगभग दस वर्ष अदालतों के, कुछेक महीने पागलखाने के और अस्पताल के ही चक्कर लगाने में बीत गए। अत्यंत यातनाप्रद ज़िन्दगी के बावजूद मंटो का रचनात्मक तेवर कभी नरम नहीं हुआ। अफ़साने मंटो के दिमाग़ में नहीं, जेब में होते थे। दिमाग़ एकदम खाली होता, मगर जेब भरी होती और अफसाने अपने आप ही उछल कर बाहर आ जाते। बकौल मंटो ‘कहानी या आलेख के पहले पृष्ठ के शीर्ष पर 786 लिखनेवाला मंटो, काग़जी मंटो है, जिसे आप काग़जी बादाम की तरह केवल अंगुलियों से तोड़ सकते हैं, अन्यथा, वह लोहे के हथौड़ों से भी टूटने वाला आदमी नहीं।

 

( कुमार वीरेन्द्र नीलाम्बर-पीताम्बर विश्वविद्यालय मेदिनीनगर, पलामू, झारखण्ड से सम्बद्ध जी0 एल0 ए0 काॅलेज में हिन्दी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं.  संपर्क -09955971358)

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