समकालीन जनमत
कविता

लोकेश मालती प्रकाश की कविता : यथार्थ को नयी संवेदना और नए बिन्दुओं से देखने और व्यक्त करने की विकलता

 

[author] [author_image timthumb=’on’][/author_image] [author_info]मंगलेश डबराल[/author_info] [/author]

 

एक युवा कवि से जो उम्मीदें की जाती हैं, लोकेश मालती प्रकाश की कविताएं बहुत हद तक उन्हें पूरा करती हैं. उनमें ताजगी और नयापन है, यथार्थ को नयी संवेदना और नए बिन्दुओं से देखने और व्यक्त करने की विकलता है, और वह गहरी प्रतिबद्धता भी है जो अनेक बार नयी पीढी में कम होती हुई नज़र आती है. कविता की अराजनीतिक होती आबो-हवा के बीच लोकेश प्रकाश अपनी प्रतिबद्धता इस तरह दर्ज  करते हैं: ‘आज की रात मैं अनंत उकताहट/ को चीरने वाली चीख/ बन जाना चाहता हूं/ एक इनकार की तरह जी उठना चाहता हूं/ आज की रात/ उल्का की तरह नहीं गिरना चाहता/ पत्ते की तरह सूखकर धरती में घुल जाना चाहता हूं.’

वे अपनी चीख और अपने इनकार को जिस साधारण जन और पृथ्वी के पक्ष से उठाते हैं, उसी में पत्ते की तरह सूखकर घुल जाने की इच्छा भी करते हैं. लोकेश प्रतिबद्धता के कैनवस पर भूख के आकारों को मार्मिक ढंग से चित्रित करते हैं. भूख के ये चेहरे मिर्च, प्याज, अचार से लेकर समोसे-कचौड़ी और बिरयानी तक फैले हुए हैं, लेकिन वे भूख के एक डरावने आकार को भी चित्रित करते हैं जो  पूंजी और राजनीति के समकालीन दृश्य हमारी आखों के आगे उअपर्थित कर देता है: ‘किसी-किसी की भूख टिफ़िन के/ आकार की/ पावरोटी/ समोसे-कचौड़ी/ बिरयानी के आकार की भी होती है/ किसी-किसी की भूख/ यहां तक कि नदियों/ जंगलों/ पहाड़ों/ गांवों/ /शहरों/ मुल्कों के आकार की भी/ और किसी-किसी की भूख तो/ होती है धरती के आकार की.’

एक गरीब और मासूम की मामूली सी भूख से लेकर समूची धरती को लीलने वाली विकराल भूख के आकारों मे वर्ग-विभाजित समाज, जंगलों की हरियाली, नदियों के पानी और जनता की ज़मीन को हड़पने के लिए तैयार बहुराष्ट्रीय नगमों, देसी उद्योगपतियों और सरकारों के विकृत चेहरे छिपे हुए दिखते हैं.

‘ शहर को जानना ’ और ‘चिट्ठी’ भी महत्वपूर्ण कविताएँ हैं. शहरों की जटिलता और उनके अजनबीपन की मार्फ़त लोकेश उनके अंदरूनी क्षरण के बिंब निर्मित करते हैं तो चिट्ठी के ज़रिये उन हालात को पूरी तरह अभिव्यक्त न कर पाने की छटपटाहट को सामने लाते है जिनमें ‘एक-एक शब्द के पीछे हज़ारों शब्द छुपाते’ रहना पड़ता है. लोकेश प्रकाश की कविता में भाषाई चुस्ती और पारदर्शिता है. वह नए और अलग तरह के अनुभवों के खोजती हुई भाषा है. एक नए कवि में यह होना बहुत आश्वस्त करता है.

 

ख्वाहिश

आज की रात मैं नदी हो जाना चाहता हूं

धरती की सूखी परतों पर

बहना चाहता हूं

आ ओ नदी

मुझे डुबो!

 

आज की रात मैं हवा बन जाना चाहता हूं

हर ख़ला में

भर जाना चाहता हूं

आ ओ हवा

मुझसे होकर गुजर!

 

आज की रात

मैं अंधेरा बन जाना चाहता हूं

करना चाहता हूं सुबह का इंतजार

आज की रात

मैं एकांत बन जाना चाहता हूं

बन जाना चाहता हूं लम्बे इंतजार में डूबा समय

इंतजार के बाद की खुशी

आज की रात मैं अनंत उकताहट

को चीरने वाली चीख

बन जाना चाहता हूं

एक इंकार की तरह जी उठना चाहता हूं

आज की रात

उल्का की तरह नहीं गिरना चाहता

पत्ते की तरह सूखकर धरती में घुल जाना चाहता हूं।

आ ओ रात

मुझे आगोश में भर!

 

 

 भूख का आकार

 

अलग-अलग होता है

अलग-अलग लोगों की भूख का आकार

 

किसी-किसी की भूख

रोटी के आकार की होती है

मिर्च प्याज अचार

किस्मत हुई तो सब्जी के साथ

पोटली में बंध जाती है

 

भात-दाल-सब्जी भरी थाली के आकार की

किसी-किसी की भूख

चाय की प्याली और पराठे के आकार की

चाय में पराठे डुबो खाकर

सरपट जाते थे हम स्कूल

 

किसी-किसी की भूख टिफ़िन के आकार की

पावरोटी

समोसे-कचौड़ी

बिरयानी के आकार की भी होती है

किसी-किसी की भूख

यहां तक कि

नदियों

जंगलों

पहाड़ों

गांवों

शहरों

मुल्कों के आकार की भी

और किसी-किसी की भूख तो

होती है धरती के आकार की।

 

शहर को जानना

 

किसी शहर की हरेक सड़क को जान लेने पर क्या आप कह सकते हैं कि उस शहर को जान गए हैं।

शहर की सड़कें सपाट होती हैं मगर कुछ लोग उनपर सीढ़ी की तरह ऊपर चढ़ते हैं। ऊंचा और ऊंचा। क्या इन सीढ़ियों की बनावट को जानकर शहर को जाना जा सकता है।

या फिर शहर को जानना किसी मरती हुई नदी को जानना होता है।

या फिर शहर उस एक-एक इंच जमीन का भाव है जो रोज आसमान में एक पायदान ऊंचा टंगा होता है। या शहर को जानना उस जमीन में दफ़न जंगल को या इमारतों में दफ़न बस्तियों को जानना होता है।

भूख बेकारी आवारगी आज़ादी दृश्य-अदृश्य क्रूरता

शहर के कई चेहरे

हरेक चेहरे पर कई शहर

इन सबको जानना क्या शहर को जानना होता है।

 

सपना

सड़कों पर तैर रही हैं मछलियां

घर नदियों की तरह सड़क में घुल रहे हैं

एक दरख्त है आसमान

जहां से बढ़े किसी हाथ ने

मुझे थाम लिया।

 

रात

धरती के सभी साए

उड़कर आसमान पर छा जाते हैं

सूरज को चुपचाप खिसकता देख

सायों के जिस्म पर चिपकी धूप

टिमटिमाती है।

 

 

रिक्त स्थान भरो

रिक्त स्थान भरो

भरो

भाषा

भरो

सभी रिक्त जगहों को भरकर

रिक्त कर दी गई भाषा

खचाखच भरे शहर की तरह।

 

चिट्ठी

 बहुत दिनों से सोच रहा हूं

एक लंबी चिट्ठी लिखूं तुम्हें

चिट्ठी जिसमें अपनी बिल्ली के बारे में लिख सकूं

जो दिन के लंबे शून्य को अपनी नींद से भरती है।

 

आसमान से उकताई बूंदें टूटकर बरसी कुछ दिनों पहले

खिड़की से अंदर टपक बहने लगा पानी

पास रखी किताबों को बचा लिया

कुछ तो बचा पाया चिट्ठी में लिखने लायक।

 

सड़क के बारे में नहीं लिखूंगा

न जाने कहां लेती जाए

इतने बड़े देश में

कई जगहों पर जाना मुनासिब नहीं।

 

फ़ैसला नहीं कर पा रहा

अपनी वासनाओं के बारे में लिखूं कि नहीं

कुछ लाइने खाली छोड़ दूंगा

तुम वहां शब्द मत भरना चित्र बना लेना

कुछ कहते-कहते रुक गया

डर गया शायद

महज एक चिट्ठी में अपना सब कुछ कैसे उड़ेल दूं।

 

शहर का हाल

आस-पड़ोस के किस्से

चीज़ों के कटे-फटे हिस्से

उलझी हुई लकीरें

बेचैन

कट चुके पेड़ों की छांव में खड़े लोग

इनके बारे में लिखूं न लिखूं

कि लिखूं

एक-एक शब्द के पीछे हज़ारों शब्द छुपाते हुए …

 

नहीं!

बेवजह लंबी चिट्ठी लिखूंगा मैं

और हां – लिखना भूल गया

सुरक्षित हूं  सकुशल हूं

बचा हुआ हूं अबतक

तुम इसे पढ़ लेना अपनी तरफ से।

 

 

 

 

 

 

Related posts

1 comment

Comments are closed.

Fearlessly expressing peoples opinion