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रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ : क्रांति की रागिनी का गायक

101 वीं जयंती 30 अक्टूबर 2018 एक आलेख

 

क्रांति के रागिनी हम त गइबे करब/ केहू का ना सोहाला त हम का करीं’, ‘हमनी देशवा के नया रचवइया हईं जा/ हमनी साथी हई, आपस में भइया हईं जा’, ‘राजनीति सब के बूझे के, बूझावे के परी/ देश फंसल बाटे जाल में, छोड़ावे के परी’, ‘अइसन गांव बना दे जहंवा अत्याचार ना रहे/ जहां सपनों में जालिम जमींदार ना रहे’, ‘जीने के लिए कोई बागी बने, धनवान इजाजत ना देगा/ कोई धर्म इजाजत ना देगा, भगवान इजाजत ना देगा’, ‘जगत में रोटी बड़ी महान’, ‘चच्चा साम! कैसा लगता वियतनाम?’, ‘हमनी गरीबवन के दुखवा अपार बा’, ‘पेरल जाई परजा, चुआवल जाई तेल’/ ‘रनिया से बीसे रही रजवा के खेल’, ‘भारत में रंगत दिखाय दियो रे, दिल्ली वाली रनिया’, ‘काहे फरेके-फरके बानीं, रउरो आईं जी/ हामार सुनीं, कुछ अपनो सुनाईं जी’, ‘ढेवर के बैल’, ‘अब शहरे में रहे के विचार बा’,‘हरवाह-बटोही संवाद’, ‘बेयालिस के साथी’, ‘किसान’, ‘सुरजवा के कारन छैला हो गइले दीवाना’, ‘शहीदों का गीत’, ‘भारत जननि तेरी जय हो’, ‘नया आदमी, ‘सरकारी हिंसा हिंसा न भवति’, ‘आजादी की लगन लगी लगी जब’, ‘अमर शहीद कवि कैलाश’, ‘विद्रोही’, ‘क्रांतिपथ’, ‘जिंदा शहीद’ ‘नक्सलबाड़ी की जय’, ‘मुक्ति का पंथ’, ‘झंडा ना कबहूं झुकाइब’, ‘नई जिंदगी’ जैसे गीतों के रचनाकार को आप जानते हैं? इसके रचनाकार जनकवि रमता जी हैं।

भोजपुर जिले के बड़हरा प्रखंड के महुली घाट में जन्मे रमता जी का पूरा जीवन आजादी और सुराज के लिए जारी संघर्षों के प्रति समर्पित रहा। आखिरी सांस तक उनमें क्रांति और समाजवाद के प्रति युवाओं-सी ऊर्जा, आवेग और आस्था थी। उनकी विप्लवी जिंदगी ने कई पीढ़ियों को क्रांतिकारी रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी।
युवावस्था में ही रमता जी आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। ‘धरे घरे चरखा चलइहें भारवसिया’ के सपने से उनके राजनीतिक सफर की शुरूआत हुई। 1932 में नमक सत्याग्रह के दौरान वे जेल गए। 1941 तक आते-आते गांधीवादी आंदोलन से उनका मोहभंग हो गया। 1941 में ही ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें फिर जेल में डाल दिया। जुलाई 1941 की एक कविता में उन्होंने ऐलान किया कि ‘क्रांतिपथ पर जा रहा हूं/ धैर्य की कड़ियां खटाखट तोड़कर मैं आ रहा हूं।’

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सचमुच युवकों ने धैर्य की कड़ियां तोड़ डाली। रमता जी भी उस आंदोलन की अगली कतार में थे। इनके साथियों ने रेलवे पटरियां भी उखाड़ीं। 1943 में उनकी पुनः गिरफ्तारी हुई और उन्हें यातना भी दी गई। 1943 में ही उन्होंने अपनी एक रचना में भविष्य के अपने रास्ते का संकेत दे दिया- ‘रूढ़िवाद का घोर विरोधी, परिपाटी का नाशक हूं/ नई रोशनी का प्रेमी, विप्लव का विकट उपासक हूं/……मैं तो चला आज, जिस पथ पर भगत गए, आजाद गए/ खुदीराम-सुखदेव-राजगुरु-विस्मिल रामप्रसाद गए।’

1947 की आजादी और उसके बाद के राजकाज से वे जरा भी संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने अपने एक भोजपुरी गीत में लिखा कि ‘हम त शुरूए में कहलीं कि सुलहा सुराज ई कुराज हो गइल/ रहे जेकरा प आशा-भरोसा उ नेता दगाबाज हो गइल।’ इसके बाद लगातार वामपंथी राजनीति में उनकी दिलचस्पी बढ़ती गई। हालांकि पहले वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के मेंबर बने और उन्हें बड़हरा में सोशलिस्ट पार्टी का सचिव बनाया गया, पर जैसा कि एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि सोशलिस्टों की वामपंथ-विरोधी प्रवृत्ति उन्हें उचित नहीं लगती थी, 1960 के आसपास वे सीपीआई एम में चले गए।

सीपीआई (एम) में रहते हुए ही वे 1966 के बिहार बंद में जेल गए। उसके थोड़े दिनों के बाद ही उनका सीपीआई (एमएल) से जुड़ाव हुआ और जीवनपर्यंत वे उसके आंदोलनों में सक्रिय रहे। उन आंदोलनों के
दौरान भी उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। बिहार राज्य जनवादी देशभक्त मोर्चा और आईपीएफ के गठन में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वे आईपीएफ के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वे माले के केंद्रीय कंट्रोल कमिशन के भी सदस्य थे। बेशक व्यवस्था परिवर्तन और सुराज के सपने के लक्ष्य के तहत उन्होंने अपनी राजनीतिक जिम्मेवारियों को बखूबी निभाया, पर एक जनगीतकार के तौर पर जनता के राजनैतिक जागरण में उनकी बहुत बड़ी भूमिका रही। ब्रिटिश हुकूमत के जुल्मोसितम के खिलाफ संघर्ष करने वाले वे उन वरिष्ठ क्रांतिकारियों में से थे जिन्होंने 1947 के बाद भी असली आजादी, लोकतंत्र और सामाजिक बदलाव की जंग को जारी रखा। उनके गीत भोजपुर आंदोलन की आवाज बन गए।

गोरख पांडेय, विजेंद्र अनिल और दुर्गेंद्र अकारी सरीखे जनकवियों ने रमता जी की ही परंपरा को आगे बढ़ाया। रमता जी को भोजपुरी का पहला आधुनिक राजनैतिक जनकवि कहना अतिशयोक्ति न होगी। बेशक उनके समकालीन और कवि भी थे, पर इतनी संतुलित दृष्टि और जनराजनैतिक बोध औरों में नहीं था। 1857 के महान योद्धा कुंवर सिंह पर रचित उनका गीत जनराजनैतिक दृष्टि से बेहद धारदार है। 1857 पर चली वैचारिक बहसों के मद्देनजर भी उस गीत को देखा जा सकता है। रमता जी ने उस गीत में कुंवर सिंह के शौर्य के साथ भारत के संसाधनों की लूट से ब्रिटेन के गुलजार होने के तथ्य को तो रखा ही है, वे उस संघर्ष को जनविद्रोह के तौर पर ही देखते हैं-

‘‘देश जागेला त दुनिया में
हाल्ला हो जाला/ कंपनी का पार्लियामेंट के दिवाला हो जाला।’’

रमता जी आर्थिक उदारीकरण के दौर में बढ़ती उन्मादी राजनीति और सांप्रदायिकता को भी अपने गीतों का विषय बनाया। लेकिन अपने लेखन के अपने लंबे सफर में उन्होंने प्रेम और प्रकृति से संबंधित भी बेहतरीन रचनाएं लिखी हैं, जो अब जाकर मिली हैं। ये सारी रचनाएं समग्र रूप में जब सामने आएंगी, तो रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ की हिंदी-भोजपुरी कविता के अत्यंत महत्वपूर्ण शख्सियत के तौर पर पहचान बनेगी। जन-मन के गायक तो वे थे ही और आज भी उनके गीत जनांदोलनों की आवाज बने हुए हैं, पर साहित्य के इतिहास में भी उन्हें वाजिब जगह मिले, इसके लिए प्रयास की दरकार है।

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