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पठनीयता का संबंध वास्तविकता से होता है

(प्रेमचंद की परंपरा को नये संदर्भ और आयाम देने वाले हिंदी भाषा के कहानीकारों में अमरकांत अव्वल हैं। अमरकांत से शोध के सिलसिले में सन् 2002 की शरद में मिलना हुआ।अमरकांत के प्रस्तुत बात-विचार उसी मुलाकात और वार्तालाप से निकले हैं-दुर्गा सिंह ।)

प्रेमचंद की परंपरा- प्रेमचंद ने ग्रामीण जीवन से विषय उठाया है। शहरी जीवन पर भी लिखा लेकिन मुख्य जोर ग्रामीण जीवन और समाज पर रहा। ग्रामीण जीवन से उन्होंने जो पात्र उठाए उसमें भी दबे-कुचले, शोषित, गरीब पर केंद्रित हैं। इन पात्रों के जरिये प्रेमचंद ने सामाजिक जीवन की विडंबनाओं को प्रकट किया। हमारे समाज में जो विभेद है, खासकर ग्रामीण समाज में ऊंची-नीची, जाति-वर्ग का, जो शोषण है किसानों का, उस पर प्रेमचंद ने लिखा है। ‘पूस की रात’, ‘कफन’ जैसी कहानियाँ देख लीजिए! ‘सद्गति’ में देखिए जो पुरोहित है, उसका दलित जीवन से जो व्यवहार है, वह देखिए! पढ़ा है कि नहीं? हां, तो देखिए वह व्यवहार! तो प्रेमचंद ने इसी तरह ग्रामीण समाज की विषमता का चित्रण किया है। प्रेमचंद की जो कहानियाँ प्रसिद्ध हैं वह इसी पर बल देती हैं। अपनी पूरी सहानुभूति गरीब और साधारण लोगों को, दलित समाज को प्रेमचंद ने दी है। यह प्रेमचंद की परंपरा है। प्रेमचंद की परम्परा और भाषा-शिल्प- एक तो यह है कि हर लेखक का अपना अंदाज अलग होता है। परंपरा जब हम कहते हैं तो परंपरा का मतलब अनुकरण नहीं। भाषा के स्तर पर भी और लेखन के स्तर पर भी। क्योंकि, आदमी बदला हुआ है। उसका जीवन, अनुभव, उसकी शैली, उसका लगाव, यह सब उसको (लेखक को) प्रभावित करते हैं। अब जैसे गांधी की परंपरा पर भी जब हम बात करते हैं तो गांधी ने गीता पर भी कहा, लेकिन उसको मत देखिए बल्कि बदलते हुए समय में उन्होंने अहिंसा पर जो कहा, एकता लाने के लिए लोगों में जागरूकता लाने के लिए, सौहार्द्र लाने के लिए, तो वह है गांधी की परंपरा। तो परंपरा बनायी जाती है। अब प्रेमचंद की परंपरा में शिवप्रसाद सिंह थे, मार्कंडेय हैं लेकिन इनकी भाषा में बदलाव है। प्रेमचंद का तरीका दूसरा है। प्रेमचंद की संवेदना गहरी है। लेकिन उस समय बहुत सी कहानियाँ जो उन्होंने लिखीं वह सुधारवादी ढंग की हैं। जैसे विधवा विवाह या ऐसी ही। उस समय ऐसी कहानियों का प्रभाव समाज में रहा होगा। बाद का लेखक जो है उसके शिल्प में कसावट है। भाषा में उतना सीधापन नहीं। उसमें जटिलता है, व्यंग्य है। मार्कंडेय आदि को आप पढ़ लीजिए, तो उसमें आप फर्क पाएंगे प्रेमचंद की भाषा-शिल्प से। क्योंकि बदले हुए समय में शिल्प का भी सवाल उठता है, भाषा का भी सवाल उठता है, तो आगे के लेखक मार्कंडेय और शिवप्रसाद उसके प्रति सचेत हैं।
नयी माँग जो है, आवश्यकताएँ साहित्य की, वह बदलती जाएँगी आगे चलकर। इस संदर्भ में बहुत से लेखक जो प्रकट कर रहे हैं और प्रेमचंद की परंपरा में नहीं हैं। व्यक्तिवादी या कलावादी परंपरा में हैं। वे भी सधी हुई भाषा में लिखते हैं, मेहनत करते हैं भाषा के साथ। तो आप जब भाषा के साथ बदलते हुए समय में मेहनत नहीं करेंगे तो कहां रहेंगे। न कम्पटीट कर पाएंगे न टिक पाएंगे। क्योंकि पिछड़े हुए शिल्प, पिछड़ी हुई भाषा में लिखने पर वह परंपरा का लेखन नहीं है।

तो प्रेमचंद की परंपरा में जो लिखेगा, उसकी सहानुभूति और प्रतिबद्धता गरीब आदमी के साथ, दलित-शोषित के साथ, सामान्य मनुष्य के साथ, आम आदमी के साथ रहेगी। यह है प्रेमचंद की परंपरा, लेकिन नया लेखक अपनी भाषा और शिल्प में सचेत भी रहने की कोशिश करेगा।

अनुभूति की प्रामाणिकता- जब कोई भी लेखक शुरू करता है कहानी लिखना तो वह अपने वर्ग-समाज और आस-पास के देखे जीवन से ही कुछ मानवीय चरित्र उठाता है। जैसे मार्कंडेय ने ‘गुलरा के बाबा’ और शिवप्रसाद ने ‘दादी माँ’ कहानी लिखी। लेकिन जैसे-जैसे वह व्यापक होता है, वैसे-वैसे उसकी कहानी का संसार भी व्यापक होता है। अब जैसे प्रेमचंद ने ‘कफन’ कहानी लिखी, लेकिन आज दलित लेखक जो हैं, वे उसे दलितों की कहानी नहीं मानते, दलित समाज की प्रतिनिधि कहानी नहीं मानते। क्योंकि बदलते हुए समय में उनमें जागरूकता आयी तो वे उसे डिस्प्लेस करते हैं। यह हो सकता है कि लेखक जिस समाज, वर्ग का रहने वाला है, उसका ज्ञान उसे अधिक हो! होता ही है। ज्यादा करीब से उसे जानता है। उसके अंतर्विरोधों को जानता है, देखता है। लेकिन, दलित-शोषित समाज का वैसा ज्ञान तो नहीं होगा उस समाज, वर्ग के बाहर के लेखक को। उतना संपर्क नहीं होगा। तो, उनके प्रॉब्लम को उस तरह से वे नहीं लिख सकते। लेकिन, ऐसा भी नहीं है कि लिखे ही नहीं दलित-शोषित के ऊपर! जो दलित है वही लिखेगा! ऐसा नहीं है। हां, यह है कि तब लेखक को काफी होमवर्क करना पड़ता है। जाकर लोगों से मिलना-जुलना, लोगों के बारे में जानना, उनके गहरे संपर्क में रहना। क्योंकि कोई ऊंचे वर्ग, ऊंची जाति में पैदा हुआ, तो यह उसके हाथ में तो है नहीं, लेकिन वह लेखक है, उसके पास सहानुभूति है, दृष्टि है तो उसका फर्ज बनता है कि जो कुछ भी लिखे, उसके संपर्क में रहे। गहरे संपर्क में रहे और उसकी संवेदनाओं को उभारे। तो, अगर आप दूसरे वर्ग के बारे में भी लिखते हैं और उससे मानवीय संवेदना निकाल लेते हैं, तो भी आप सफल हैं। हां, यह है कि जो गरीब, शोषित, दलित है, जिसके बारे में लिख रहे हैं, उसके प्रति उपेक्षा का भाव न हो, निंदा का भाव न हो!

अब यह है कि लेखक अगर मध्य वर्ग से है और मध्य वर्ग के भीतर की गलतियाँ मानता है कि वह शोषक समाज है और दृष्टि व्यापक है, व्यापक मानव समुदाय से आप सहानुभूति पा चुके हैं, तो उसकी रचना में वह सहानुभूति व्यक्त होगी। हां, चित्रण में हो सकता है कि लेखक ने मेहनत न की हो, उसका वरण न कर पाए हों। गरीब है, एकदम साधारण है, गया-गुजरा है, तो उसका विद्यार्थी लेखक नहीं बन पाया है ठीक से। इसलिए, चित्रण में कमी हो सकती है। दलित लोग यह कहते हैं बहुत सी चीजों को, दूसरे वर्ग द्वारा लिखी बातों को वे क्लेम नहीं करते लेकिन यह कोई साहित्य की बात नहीं क्योंकि किसी वर्ग का लेखक हो, चित्रण तो उसकी क्षमता पर निर्भर करता है। दलित में ही कोई लेखक है, तो जरूरी नहीं कि वह दलित का चित्रण बहुत अच्छा कर ले। उसमें चुना हुआ कोई होगा जो अच्छा चित्रण करे। और, जो साहित्य के भी मानदंडों पर खरा उतरे। तो यह आप की बात ठीक है कि प्रेमचंद की परंपरा के लेखक मार्कंडेय, शिवप्रसाद आदि दलित पात्रों के चित्रण में उतने प्रभावी नहीं हो पाये। बल्कि यह बात मार्कंडेय में कम, शिवप्रसाद में तो बहुत है, कि वे लिखते तो हैं नटों के, मुसहरों के जीवन पर, लेकिन वे संवेदना नहीं उभार पाते। एक बौद्धिक प्रतिक्रिया और बौद्धिक प्रयास जैसा मालूम होता है। असल चीज है कि उसकी संवेदना को तो उभारिए। तो पूरे चरित्र को लेखक न समझे या चरित्र को क्रांतिकारी बना दे। कोई भी जीवन हो- दलित या उसके बाहर का, जरूरी है लेखक के लिए कि उसके अंतर्विरोधों को भी समझे। खुद की क्रांतिकारिता से कहानी का चरित्र भी क्रांतिकारी नहीं हो जाएगा। लेखक परिस्थितियों को समझे, उभारे, जिसमें क्रांतिकारी चरित्र की संभावनाएं हों या बन रही हों। आंदोलन वगैरह का चित्रण भी लेखक कर सकते हैं, किसान आंदोलन हो, मजदूर आंदोलन हो। लेकिन, उसके अंतर्विरोधों को जानिए। आंदोलनों के भीतर भी अंतर्विरोध होते हैं। सही चित्रण के लिए इन सारी चीजों को, लेखक को देखना होता है। लेखक कितना जानता है, कितना अनुभव किया है, कितनी मेहनत की है चरित्रों को गढ़ने में, यह लेखक की क्षमताओं पर निर्भर करता है। तो, आपका आकलन यह सही हो सकता है।

पठनीयता- पठनीयता का मतलब सपाटता नहीं है, साधारणता नहीं। प्रेमचंद की कहानियाँ पठनीय हैं सपाट नहीं, वे बड़ी संवेदनात्मक और अर्थपूर्ण हैं। उन्हंे समझने के लिए उन्हें बार-बार पढ़ने की जरूरत है। वस्तुतः कहानी को जानने के लिए उसके भीतर जाना बहुत जरूरी है। कथन की बारीकी को समझना जरूरी है। निजी किस्म की भावना, बोध, अनुभूतियाँ जिसका दुनिया से मेल न हो, तो जटिल होगी। यथार्थ निजी, अनोखा, अजूबा, विचित्रताओं से भरा नहीं होता। ऐसे कैरेक्टर यथार्थ नहीं प्रकट करते। बल्कि, टाइप कैरेक्टर यथार्थ होता है। प्रेमचंद की कहानियाँ पढ़ो, तो बिलकुल उसी रूप में वह न भी घटित हुई हों, लेकिन पढ़ने के बाद सभी उससे अपने को जोड़ते हैं, कि हां, यह तो होता है। ऐसा तो है। तो लेखक दूसरा संसार रचता है, लेकिन उसके इस रचे संसार, सृजित दुनिया की संगति वास्तविक दुनिया से होनी चाहिए। कहानी का संसार हूबहू संसार नहीं है लेकिन मालूम पड़ता है कि हूबहू संसार है।
जिस लेखक की व्यापक सोच और दृष्टि होगी, वह पठनीय होगा। वह वास्तविकता के निकट भी होगा। क्योंकि, लेखक जिस संवेदना से, मानवीयता से दुनिया को देखता है, सभी उसी तरह नहीं देखते। तो, पठनीयता का संबंध वास्तविकता से होता है।

जैसे कोई कविता है, कहानी है, उपन्यास है, तो उस पर भी निर्भर करता है कि आलोचकों में, पाठकों में पढ़ने की वह समझ विकसित हुई है कि नहीं। अब जो चार दर्जा पढ़ा है, छह दर्जा पढ़ा है, वह उसी तरह नहीं समझ सकता, लेकिन आप समझाएँगे तो समझ जाएगा वह। ऐसा नहीं, कि वह नहीं समझेगा। वह अपने हिसाब से समझेगा, जब तक कि भाषा और वाक्य गठन ऐसा न हो, कि उसके पल्ले ही न पड़े। जैसे, प्रेमचंद की कहानी वह समझेगा। तो, साहित्य की समझ पर आप कोई फार्मूला लागू नहीं कर सकते।

पठनीयता, जो आप पढ़ जाते हैं, वही नहीं होती। एक साहित्यिक उपन्यास, उपन्यास, कहानी में पठनीयता का मतलब होता है कि बातें उसमें बहुत छिपी भी हैं, देखने में सहज हैं, लेकिन उसके छद्म में, गुह्य में भौतिक चीजें होती हैं और जिनका अर्थ होता है।

गांधीवाद से मोहभंग- गांधीवाद एक सिद्धांत था, वाद नहीं था। गांधी ने कहा कि इसे वाद नहीं बनाओ। गांधीवाद से मतलब है कि आजादी की लड़ाई जिन सिद्धांतों पर कांग्रेस ने लड़ी। सत्याग्रह, अहिंसा, शराबबंदी, तो यही सब गांधीवाद माना गया। आजादी के बाद वही लोग जो आजादी की लड़ाई में गांधी के सिद्धांतों के साथ थे, सुविधा में, सत्ता-सुख में लिप्त होने लगे। जबकि यह था कि गांधी के जिन सिद्धांतों पर आजादी की लड़ाई लड़ी गयी, उन्हीं पर राष्ट्र का नवनिर्माण भी होता, लेकिन वैसा नहीं हुआ। विकास भी जो कहा गया, वह कागजों पर अधिक हुआ। नेहरू जी की सामुदायिक विकास की योजनाएं थीं, समाज के समाजवादी ढाँचे का नारा था। लेकिन, आश्चर्य आपको होगा, सभी कागज पर हुआ, एक्चुअल में नहीं। जो धारणाएं थीं विकास और प्रगति की, वह व्यवहार में नहीं उतरीं। जो गांधी के सिद्धांतों पर लड़कर जेल गये थे, मार खाये थे, उनमें भी सत्ता मिलते ही सुविधापरस्ती आ गयी। यही गांधीवाद से मोहभंग कहा जाता है।

आजादी की लड़ाई में यह वादा किया गया था, कि समाज का निर्माण होगा, स्वस्थ प्रशासन होगा, दूध-दही की नदियाँ बहेंगी, भोजन मिलेगा, किसानों को जमीन मिलेगी, ये सारे वादे किये गये थे, वे टूट गये। हालांकि जमींदारी उन्मूलन हुआ, लेकिन जो उम्मीद थी, वह कागज में ही रही। पैसा कमाने का धंधा धीरे-धीरे बढ़ता गया। पैसे वालों का जोर बढ़ता गया। फिर, जातिवाद चला और जातिवाद कांग्रेस के संगठन से ही चला। उसमें शुरू से ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा, क्योंकि वही उस समय पढ़े-लिखे थे। आजादी के बाद ठाकुरों में कांग्रेस ज्वाइन करने का चलन बढ़ा। जो जमींदार थे, सामंत थे, वे आजादी के बाद कांग्रेस में शामिल हो गये। राजनीति में यह एक संकीर्ण प्रतिस्पर्धा शुरू हुई। तो मोहभंग जो उन लेखकों के यहाँ है, इन्ही स्थितियों से है। जो नया समाज बनाना चाहता है, जिसमें जाति-धर्म के आधार पर पहचान न हो, सामन्जस्य, सौहार्द्र और संवाद हो आपस में, जातिगत, धर्मगत सामाजिक अलगाव खत्म हो, मिला-जुला सामाजिक निर्माण हो, एक मनुष्य के रूप में वह पहचाना जाए, तो ऐसा सपना लेखकों का था, वह नहीं हुआ। तो, मोहभंग यही है। जिस पार्टी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ी गयी, उससे बहुत आशाएँ थीं। वो पूरी नहीं र्हुइं। उनके क्रिया-कलाप गलत रास्तों पर चले गये। आजादी के बाद भी दंगे होते रहे, तो मोहभंग नहीं होगा क्या! तुम बताओ, मोहभंग नहीं होगा, होगा न! तो, मोहभंग वही है।

सांप्रदायिकता और जातिवाद- सांप्रदायिकता एक समुदाय की राजनीति है लेकिन जातिवाद और सांप्रदायिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
हिंदूवादी जो हैं, आरएसएस, वो कहते हैं कि हिंदू एक हैं, एक आइडेंटिटी है, लेकिन वास्तविकता में हिंदू समाज की क्या हालत है!

हिंदू समाज को अगर एक करना चाहते, तो सबसे पहले हिंदू समाज में जो जाति है, उसको खत्म करते। छोड़ दीजिए मुस्लिम और ईसाई, सिर्फ हिंदू समाज को एक करने के लिए क्या करना चाहिए! हिन्दू समाज के जो पुरोधा हैं, हितैषी हैं, आरएसएस है, वे बताएँ कि क्या करना चाहिए! क्या हरिजनों को मंदिर में नहीं जाने देना चाहिए! दलितों को मंदिर में प्रवेश की छूट है क्या? तुम कहाँ के हो? जौनपुर! मैं बलिया का हँू। हमारे यहाँ नहीं है? जौनपुर में है क्या? किस जाति से आते हो? ठाकुर, तो ठाकुर बर्दास्त करेगा कि उसके गाँव के मंदिर में चमार चला जाए! तुम्हारे गाँव में है क्या? बताओ, है! ठाकुर बर्दास्त करेगा कि चमार हमारे सामने बैठ जाये चारपायी पर? ठाकुर या कोई भी ऊँची जाति, क्या आज भी किसी चमार को अपने कुएँ से पानी भरने देगा? हिंदुत्व के जो नेता हैं, वे पहल करें पहले अपने यहाँ से, कि हिंदू समाज में ऐसी एकता आये। अब मायावती और बीजेपी में गठबंधन हो गया। सरकार बन गयी है, तो क्या इससे परिवर्तन हो गया? तो, सबसे पहले तो हिंदू समाज को एक करके दिखाएँ। वर्ण-विभाजन है, अलगाव है। उनको मनुष्य नहीं समझते। या, उनके जो मनुष्यगत अधिकार हैं, वह नहीं देना चाहते। जबकि, संविधान में है कि सबको समान अधिकार मिलना चाहिए। तो, धर्म को लेकर जो राजनीति की जाती है, वह सांप्रदायिकता का रूप धारण कर लेती है। लेकिन, हिंदुस्तान किसी एक धर्म वालों का तो है नहीं। हिंदू सांप्रदायिकता ठीक नहीं।
हम कह रहे हैं कि हिंदूवादी नेता गरीबी दूर कर दें, समानता का व्यवहार सुनिश्चित कर दें! विभेद अगर बने हैं, तो हिंदुस्तानी, राष्ट्रवादी होने का क्या मतलब है! आपके आजाद होने का क्या मतलब है! बदला हुआ समय, समाज, विज्ञान का क्या मतलब है! ऐसा समाज जिसमें जिसमें सबका संवाद हो, भाईचारा हो, मोहब्बत हो, सब मिलजुलकर रहें, निर्माण का कार्य करें, ऐसी सोच हो। ऐसा कोई भी करे, पर करे तो!

खोह में रहेंगे, बिल में रहेंगे, सुराख में रहेंगे जैसे पहले रहते थे, तो पुनर्निमाण हो जाएगा? बताइए, आप बताइए, हो जाएगा! तो सांप्रदायिकता और जातिवाद दोनों से शिक्षा, पुनर्निर्माण नहीं होने वाला। बहस कर सकते हैं, लेकिन उसका कोई मायने नहीं है।

आंचलिकता- रेणु की रचनाओं से आंचलिकता का आंदोलन चला। रेणु हर चीज को अंचल विशेष में देखते हैं। बोली, वाणी, सुर, संगीत सब अंचल का ही लेते हैं। पश्चिमी हिंदी के लोगों को दिक्कत होती है। प्रेमचंद आंचलिक नहीं हैं, मार्कण्डेय नहीं हैं। मटियानी(शैलेश) भी नहीं हैं। मैनरिज्म अंचल की रेणु में है। वे आंचलिक मैनरिज्म से चलते हैं।

रजुआ- रजुआ क्रियेशन तो है, लेकिन वह मेरा देखा हुआ भी है। सामान्य आदमी की इच्छा की अभिव्यक्ति क्या है, कैरेक्टर को देखकर उसको वाणी देना। रजुआ को 1944 में देखा था, लेकिन 1955 में लिखी गयी कहानी रजुआ को लेकर। सामान्य आदमी की आकांक्षाएं उसमें हैं। जीता है, मरता है। तो, कैरेक्टर जाना हुआ होने पर भी तुरंत कहानी का हिस्सा नहीं हो जाता, जब तक कि वह कोई ‘टाइप’ न हो जाए। जीवन, समाज के अंतर्विरोध उसमें न दिख सके। बिना इसके सिर्फ अपने जीवन की घटनाओं, देखे हुए चरित्र से कहानी में आम आदमी की सच्चाई को प्रकट नहीं किया जा सकता। सिर्फ अनुभूतियां संवेदना को उभार नहीं पाती।
सोद्देश्यता- उद्देश्य से लिखना बुरी बात नहीं। लेकिन, उद्देश्य यह नहीं कि कहानी को यांत्रिक ढंग से डिक्टैट करें। आप जिस तरह से चाहते हैं, उस तरह से कहानी को डिक्टैट करें। अंतर्विरोध प्रकट हो। बिना अंतर्विरोध प्रकट हुए, संवेदना प्रकट नहीं हो सकती। हर आदमी के जीवन में अंतर्विरोध होता है। कोई भी चरित्र हो, उसके अंतर्विरोधों में उसे देखे।

पॉजिटिव कैरेक्टर भी कोई उठाये, लेकिन उसमें सपाटता हो, संवेदना न प्रकट हो पाये, तो उद्देश्य से भी लिखेंगे, तो मनुष्य जीवन के कन्ट्राडिक्शन मर तो जाएंगे। क्योंकि, उसके विरोधाभासों में जाये बगैर चरित्र डेवलप नहीं हो सकता।
यह हर लेखक के सामने समस्या आती है कि जीवन को कैसे चित्रित करे कि वह जीवन की तरह मालूम हो।
प्रतिबद्धता- क्यों नहीं होना चाहिए? आप एक लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं। एक संविधान है यहाँ। आप वोट देते हैं। तो, आप प्रतिबद्ध नहीं होंगे? वोट तो सोच-समझकर ही देते हैं? कि, ऐसे ही दे देते हैं? आप बताइये!
वोट, विचारधारा या विचार से प्रभावित होकर ही देते हैं। तो, हर आदमी प्रतिबद्ध होता ही है। किसी न किसी रूप में रहता ही है प्रतिबद्ध। जब हर आदमी राजनीति करता है, तो एक साधारण आदमी राजनीति से प्रभावित क्यों न हो! जैसे भ्रष्टाचार है, तो आप उसके खिलाफ में हैं, तो आप भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रतिबद्ध हुए। आप सुशासन चाहते हैं, चाहते हैं कि जाति की बात न हो, इसके लिए आप प्रतिबद्ध हैं, तो प्रतिबद्धता में क्या खराबी है? आपका संविधान कहता है कि जाति का भेद नहीं होगा। आप चाहते हैं कि संप्रदायवाद न हो, झगड़ा-झंझट न हो, दंगे न हो! आप चाहते हैं कि शोषण न हो, गरीबी न हो। तो, यही प्रतिबद्धता है। और प्रतिबद्धता क्या है, कैसी प्रतिबद्धता!

अब प्रतिबद्ध क्या है कि कुछ लोग कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर हो जाते हैं। तो, बहुत लोगों को इससे आपत्ति होती है। लेकिन, जब साम्यवादी पार्टी को चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता है। वह एक पार्टी है। तो, क्यों कोई उसका मेंबर नहीं होगा, हो ही सकता है। उसके लाखों सदस्य हैं, तो उसमें कोई लेखक नहीं होगा! क्यों नहीं होगा! तो लेखक तो प्रतिबद्ध होगा ही ईमानदारी, सच्चाई को लेकर।

(प्रस्तुत लेख ‘समकालीन चुनौती’ के अमरकान्त विशेषांक से साभार ।)

(युवा आलोचक दुर्गा सिंह ‘कथा’ पत्रिका के संपादक हैं । यहाँ दिया गया अमरकान्त जी का छायाचित्र ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने उतारा है ।)

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