समकालीन जनमत
तस्वीर हिन्दुस्तान टाइम्स से साभार
ज़ेर-ए-बहस

जुटान या महागठबन्धन ?

कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउण्ड में 19 जनवरी को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी द्वारा आयोजित महारैली में विपक्ष के लगभग दो दर्जन नेताओं की उपस्थिति क्या सचमुच आगामी लोकसभा चुनाव (2019) में भाजपा और नरेन्द्र मोदी को हटाने के लिए थी ? कोलकाता की इस महारैली में 22 विपक्षी दल मंच पर एक साथ थे। इसके पहले कर्नाटक विधान सभा चुनाव के बाद वहां कांग्रेस और जनता दल (एस) की जो सरकार बनी थी, उस समय भी वहां अधिसंख्य विपक्षी दलों के नेता मौजूद थे। सोनिया गांधी और मायावती का चित्र अब भी सबकी आंखों के सामने होगा। दोनों अगल-बगल थीं और एक दूसरे का हाथ थामी हुई थीं जिसे कुछ ही महीनेों बाद मायावती ने झटक दिया और सपा-बसपा ने कांग्रेस को किनारे कर दिया। उनके लिए केवल दो सीटें छोड़ीं – रयबरेली और अमेठी की संसदीय सीट।

भारतीय राजनीति में गठबन्धन का इतिहास लगभग चालीस वर्ष पुराना है। सत्तर के दशक से इस राजनीति की शुरुआत हुई, जब जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में 1977 के लोकसभा चुनाव में इन्दिरा गांधी को हराने के लिए जनता पार्टी ने दस से अधिक दलों के साथ गठबन्धन किया था। इस जनता गठबन्धन को तब 343 सीट मिली थी, पर सरकार पांच साल तक नहीं चल सकी। वह मात्र दो साल 128 दिन चली। इस गठबन्धन का एक सूत्री कार्यक्रम इन्दिरा गांधी को सत्ता से अपदस्थ करना था। जितने दल साथ और एकजुट थे, उनकी समान विचारधारा नहीं थी।

गठबन्धन की राजनीति को विचारधारा से कोई मतलब कभी नहीं रहा है। व्यक्ति विरोधी या फिर पार्टी विरोधी ही उसका एकमात्र एजेण्डा रहा है। पहली बार केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। इन पंक्तियों के लेखक का यह मत है कि 1977 के बाद भारत में सही अर्थों में विपक्ष नहीं रहा। विपक्ष की राजनीति का अवसान यहीं से माना जाना चाहिए। जनता वैचारिक स्तर पर कभी एकजुट नहीं हुई। उसे छला, ठगा और भरमाया गया है। यह कार्य कमोबेश सभी राजनीतिक दलों ने किया है। वे ‘मिलते हैं, बिछड़ जाने को’। भारतीय राजनीतिक दलों का मिलना-बिछुड़ना सदैव होता रहा है और यह कहना सामान्य है कि राजनीति में न कोई मित्र होता है, न दुश्मन। इस धारणा ने भारतीय राजनीति को गर्त में ढ़केल दिया है।

1977 के बाद 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा (नेशनल फ्रन्ट) का गठन किया गया था। 1989 के लोकसभा चुनाव के पहले 7 दलों ने मिलकर यह मोर्चा बनाया था। विश्वनाथ प्रताप सिंह की उस समय छवि राजीव गांधी के मुकाबले मतदाताओं को अधिक स्वच्छ लगी थी और बोफोर्स के गोले थम नहीं रहे थे। कांग्रेस को तब नेशनल फ्रन्ट से अधिक सीटें मिली थीं – 197 और राष्ट्रीय मोर्चा को 143 सीट मिली थी। वाम मोर्चा और भाजपा के समर्थन से वी पी सिंह की सरकार मात्र 343 दिन कायम रही। टूट जारी रही और सजपा के चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने। पद पर रहे मात्र 243 दिन।

सत्तर और अस्सी के दशक का गठबन्धन स्थिर नहीं रहा। गठबन्धन का तीसरा प्रयोग नब्बे के दशक में 1996 में हुआ। इस बार का मोर्चा ‘यूनाइटेड फ्रन्ट’ था, जिसमें 13 दल एक साथ थे। गठबन्धन की सीट संख्या बहुत कम थी – दो अंकों में। कई दलों के शामिल होने के बाद इसके 192 सांसद हुए। कांग्रेस के सहयोग से जनता दल के देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने। यह सरकार मात्र 324 दिन बनी रही। फिर इन्द्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने, जो 332 दिन पद पर बने रहे। देवगौड़ा और गुजराल के साथ विश्वनाथ प्रताप सिंह और चन्द्रशेखर को रखकर देखना चाहिए। सत्तर दशक से प्रधानमंत्री बनने की भूख बढ़ती ही रही है। चौथा गठबन्धन 1998 में 13 दलों का था। यह भाजपा के नेतृतव में बना था। सरकार मात्र 13 महीने रही। जय ललिता के सहयोग से यह सरकार बनी थी। अटल बिहार वाजपेयी प्रधानमत्री बने और अन्ना द्रमुक की समर्थन वापसी के बाद सरकार गिर गयी। 409 दिन चली। यह अवधि पहले के गठबन्धन की सरकारों से कुछ ही सही अधिक थी।

कोलकाता की महारैली में तीन दल – बीजद (ओडिशा) , टी आर एस (तेलांगना) और पी डी पी (जम्मू कश्मीर) अनुपस्थित थे। यह ‘ एकजुट भारत रैली ’ थी। इस रैली में 20 दलों के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौजूद थे। यशवन्त सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, अरुण शौरी, शरद यादव और पाटीदार नेता हार्दिक पटेल में से, जो वहां उपस्थित थे, किसी का संसदीय चुनाव क्षेत्र में अधिक प्रभाव नहीं है। विपक्षी दलों के नेताओं की मानसिकता, कार्यशैली और नीतियों में कोई समानता नहीं है। बार-बार इसी कारण महागठबन्धन बनता और बिखर जाता है। बिहार विधानसभा चुनाव के समय भी विपक्षी दलों ने महारैली की थी। भाजपा को बिहार में हराने के लिए सब एक साथ इक्ट्ठे हुए थे।

‘संघ मुक्त भारत’ की बात करने वाले नीतीश कुमार ने बाद में राजद का साथ छोड़कर बिहार में भाजपा के साथ सरकार बनायी। जदयू का भाजपा विरोध और नीतीश कुमार का मोदी विरोध थोड़े ही समय में फिस्स हो गया। विपक्षी दलों में आपसी मतभेद कदम-कदम पर है, जिससे वे दूर तक एकसाथ नहीं चल पाते। राजनीति में मैत्री से अधिक शत्रुता है। बड़े उद्देश्य न होने से तात्कालिक लाभ और फायदे को ही सर्वस्व मानकर चलना भारतीय राजनीति का असली चरित्र है। मंच पर हाथ में हाथ डालकर फोटो खिंचवाने से एकजुटता बनी रहे, आवश्यक नहीं है। मंच पर सब साथ हैं और मंच से बाहर सबका साथ नहीं है।

कोलकाता की रैली में दल-प्रमुखों ने एक दूसरे का हाथ थामा था। निराला की एक कविता है ‘उक्ति’। ‘‘जैसे हम हैं, वैसे ही रहें/लिये हाथ एक दूसरे का/अतिशय सुख के सागर में बहे।’’ पर यह कविता है और राजनीति कविता से शायद ही कभी कुछ सीखती है। वह कवियों को प्रताड़ित करती है, राष्ट्रद्रोही कहती है और अपने ‘सुपर पावर’ से ऐंठी रहती है।

एक दल दूसरे दल के साथ क्यों होते हैं और कब तक होते हैं ? क्या सभी विपक्षी दलों का मोदी-शाह और भाजपा विरोध ‘जेनुइन’ है। बार-बार लोकतंत्र के खतरे की बात कही जाती है, संविधान की अनदेखी की ओर ध्यान दिलाया जाता है, संस्थाओं के नष्ट किये जाने की बात होती है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खतरे में होने से भी सब परेशान हैं, राष्ट्रद्रोही किसी को भी कहना आसान है, अघोषित आपातकाल और मोदी के फासिस्ट होने से लेकर काॅरपोरेटों के साथ उनकी गहरी मैत्री से भी सब अवगत हैं। फिर उन्हें हराने के लिए प्रत्येक संसदीय क्षेत्र से एक साझा प्रत्याशी के पक्ष में कितने राजनीतिक दल हैं ?

वास्तविक और ‘जेनुइन विरोध’ न होने के कारण ही विपक्ष को ‘बिना दूल्हे के शिवजी की बारात’ कहा जा रहा है। इस गठबन्धन को ‘अवसरवादी गठबन्धन’ और ‘खिचड़ी गठबन्धन’ कहा जा रहा है। नरेन्द्र मोदी ने इस विपक्षी एकता या गठबन्धन को ‘भ्रष्टाचार, अस्थिरता और नकारात्मकता का गठबन्धन’ कहा है। वे विपक्षी दलों को राजनीतिक दलों का गठबन्धन और अपने गठबन्धन को 125 करोड़ भारतीयों के सपनों, आशाओं और आकांक्षाओं से जोड़ा। ‘स्वराज इंडिया’ के अध्यक्ष योगेन्द्र यादव ने विपक्षी दलों के महागठबन्धन की आलोचना की है और इसे ‘खोखले लोगों से भरा’ बताया है। ‘बड़ा मजाक’ भी कहा क्योंकि उनके अनुसार ये विचारधारा विहीन दल हैं। वे इन दलों के पास न कोई विचारधारा देखते हैं, न कोई एजेण्डा। जिस विचर शून्यता की उन्होंने बात कही है, वह तभी सही सिद्ध होगी, जब विरोधी दलों को लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की चिन्ता नहीं होगी।

आपस में लड़ने से मोदी और भाजपा से नहीं लड़ा जा सकता। अभी विपक्षी दलों का जुटान है, असली गठबन्धन नहीं है। क्या सभी विरोधी दलों का एक मात्र एजेण्डा लोकतंत्र और संविधान की रक्षा नहीं होना चाहिए ? क्योंकि मोदी के कार्यकाल में सभी संवैधानिक संस्थाएं बुरी तरह जर्जर हुई हैं, लोकतंत्र को कमजोर कियया गया है आौर संविधान की कसम खाने वालों ने ‘हिन्दू राष्ट्र’ की बात की है। आज भाजपा विरोध प्रमुख है, न कि कांग्रेस विरोध। टी आर एस के संस्थापक और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चन्द्रशेखर राव के दिमाग की उपज है संघीय मोर्चा (फेडरल फ्रन्ट) । क्या यह समय एक साथ भाजपा और कांग्रेस के विरोध का है ? क्या कांग्रेस-भाजपा विरोधी कोई मोर्चा इस समय की आवश्यकता है ? किसी भी क्षेत्रीय दल का देश के कई राज्यों में अधिक प्रभाव नहीं है। ममता बनर्जी और मायावती की निजी राष्ट्रीय छवि हो सकती है, पर तृणमूल कांग्रेस और बसपा मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में ही अधिक प्रभावशाली है। क्षेत्रीय दलों की चिन्ता में उनका अपना आधार राज्य है, पूरा देश नहीं। राज्य विशेष की चिन्ता और पूरे देश की चिन्ता में अन्तर है। मोदी ने सभी विपक्षी दलों को अपनी नीतियों आौर कार्यशैली से इक्ट्ठा किया है। पर दलों के आपसी बिखराव में विशेष भूमिका दलों की ही होगी।

एकता की ताकत सबसे बड़ी ताकत है, पर भारतीय राजनीति सौदेबाजी में, जोड़-तोड़ में, निजी और दलीय स्वार्थों में बुरी तरह फंस चुकी है। प्रश्न यह नहीं है कि रैली-महारैली में कितने वर्तमान मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री उपस्थित थे। अगर आपसी एकता सुदृढ़ होती तो भाजपा के लिए मुश्किलें और होती। आज भाजपा नीत और कांग्रेस नीत गठबन्धन पहले की तरह नहीं है। कहने को भाजपा के साथ 40 दल हैं, जिनमें से अनेक दलों की सांसद संख्या एक भी नहीं है। क्षेत्रीय दलों में महत्वकांक्षाएं कम नहीं है। सबकी इच्छा प्रधानमंत्री बनने की है – विशेषतः ममता बनर्जी और मायावती की जबकि इन दोनों को यह पता है कि इनमें से किसी भी दल की सांसद संख्या 40 नहीं होगी। कांग्रेस के साथ महाराष्ट्र में राकांपा, तमिलनाडु में डी एम के, बिहार में राजद और कर्नाटक में जद (सेकुलर) है। यानी शरद पवार, स्टालिन, लालू यादव और एच डी देवगौड़ा। कोलकाता की महारैली में कांग्रेस और बसपा ने अपना प्रतिनिधि भेजा। ममता बनर्जी के साथ ‘आप’ के अरविन्द केजरीवाल, टी आर एस के के. चन्द्रशेखर राव, वाई एस आर सी पी के जगनमोहन रेड्डी और बीजद के बीजू पटनायक हो सकते हैं, पर इन दलों की कुल सांसद संख्या कितनी होगी ? वामपंथ हाशिए पर है जिसकी चिन्ता राजद को छोड़कर शायद ही किसी दल को अधिक हो। पश्चिम बंगाल में वामपंथ की तृणमूल कांग्रेस से खटपट और भिड़न्त है और केरल में कांग्रेस से। केजरीवाल ने दिल्ली और हरियाणा में अकेले चुनाव लड़ने की बात कही है। ओडिशा में कांग्रेस से निष्कासित होने के बाद जेना ने विरोधी रुख अपना लिया है। आंध्रप्रदेश में भाजपा विधायक अकुला सत्यनारायण ने पार्टी छोड़ दी है। अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी से जुड़ना जारी रहेगा।

फिलहाल किसी भी गठबन्धन को बहुमत प्राप्त होने के आसार कम है। भाजपा गठबन्धन के कारण घबड़ायी हुई है। अगर सचमुच गठबन्धन हो जाय राज्यवार भाजपा के खिलाफ, तो उसके लिए चुनाव जीतना कठिन होगा। बड़ा सवाल भाजपा के खिलाफ केवल एक साझा उम्मीदवार खड़ा करना है, जिधर राजनीतिक दलों का अधिक ध्यान नहीं है। उत्तर प्रदेश में यह अच्छी तरह कारगर हो सकता था, जब सपा-बसपा ने 30-30 सीटें लेकर कांग्रेस को 15 सीट दी होती और अजित सिंह को अधिकतम 5। ऐसे सीट बंटवारे के बाद उत्तर प्रदेश का चुनाव अधिक अहम होता और भाजपा को मुश्किल से कुछ सीट मिल पाती। पर चुनाव पूर्व गठबन्धन अभी बिखरा हुआ है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि प्रधानमंत्री कौन होगा ? कोई भी बने प्रधानमंत्री, इस देश को क्या फर्क पड़ेगा ? अगर लोकतंत्र और संविधान की हत्या की चिन्ता राजनीतिक दलों को है, तो उन्हें मंच से उतर कर सही महागठबन्धन करना होगा। चुनाव पूर्व और चुनाव प्श्चात गठबन्धन में अन्तर है। सभी प्रकार के गठबन्धन होते रहे हैं। महत्वपूर्ण जुटान नहीं है, गठबन्धन है और यह तभी सार्थक होगा, जब चुनाव पूर्व राज्य स्तर पर होगा और उम्मीदवार एक होगा – साझा उम्मीदवार।

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