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जन संस्कृति मंच का किसान मुक्ति मार्च में शामिल होने का आह्वान

नई दिल्ली. जन संस्कृति मंच ने किसान मुक्ति मार्च (29-30 नवम्बर, दिल्ली ) में शामिल होने का आह्वान करते हुए बयान जारी किया है. जन संस्कृति मंच, दिल्ली के सचिव राम नरेश राम द्वारा जारी बयान में संस्कृति कर्मियों, लेखकों के साथ -साथ आम लोगों से अखिल भारतीय किसान महासभा समेत 206 किसान संगठनों के इस मार्च में शामिल होने की अपील की गई है.

जसम का बयान

किसान आत्महत्याओं के देश के रूप में पहचाने जाने के कलंक से बचने के लिए मौजूदा सरकार ने अनोखा रास्ता निकाला है. उसने आत्महत्याओं के आंकड़े ही रखने बंद कर दिए हैं! लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों से किसानों के लगातार तीखे होते आंदोलन बता रहे हैं कि अन्नदाता अब आर-पार की लड़ाई लड़ने का संकल्प ले चुका है.

29 और 30 नवम्बर को दिल्ली में होने वाला ऐतिहासिक किसान मुक्ति मार्च देश भर के किसानों के इस क्रांतिकारी संकल्प का जीवंत सबूत होगा.
जन संस्कृति मंच किसान मुक्ति मार्च का अभिनन्दन करते हुए दिल्ली के छात्रों, संस्कृति -कर्मियों , लेखकों , पत्रकारों और बुद्धिजीवियों से इस मार्च में शामिल होने का आह्वान करता है.

किसान-समर्थक होने का दावा करने वाली सरकार से किसानों को आज तक एक से बढ़कर एक धोखेबाज जुमले मिले हैं. हक की बात करने पर लाठियां और गोलियां मिली हैं. मगर इतिहास गवाह है कि किसान को गुस्सा देर से जरूर आता है, लेकिन जब आता है , इतिहास बदल जाता है!

सरकार का सबसे खतरनाक जुमला किसान की आमदनी को दोगुना करना है. कैसे करना है, यह मत पूछिए. पहले तो यह पूछिए कि किसान को ऐसी कौन-सी आमदनी हो रही है कि आत्महत्याओं की दर और दायरा बढ़ता जा रहा है. कर्ज से मरते किसान की आमदनी दुगुना करने की बात कैसा क्रूर मज़ाक है. क्या आत्महत्याएं दुगुनी करनी हैं?

प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की सचाई कम भयानक नहीं. सूचना अधिकार के तहत मिली सरकारी जानकारी बताती है कि योजना लागू होने के बाद बीमा कम्पनियों द्वारा बटोरा गया प्रीमियम साढ़े तीन गुना बढ़कर सैंतालिस हज़ार चार सौ साठ करोड़ हो गया है, जबकि बीमित किसानों की संख्या लगभग स्थिर है. दावा निपटान पर उन्होंने सिर्फ़ इकतीस हज़ार छः सौ तेरह करोड़ खर्च किए है. ख़ुद कम्पनियों के आंकड़ों के अनुसार उन पर किसानों का तीन हज़ार करोड़ रुपया बकाया है. क्या यह अधमरे किसानों को लूटकर अज़ीज बीमा कम्पनियों को मालामाल करने वाली योजना नहीं है? अब ‘आयुष्मान भारत’ की नाम पर बीमा-बेईमानी के इसी खेल को नई ऊंचाईपर पहुंचाया जा रहा है.

किसानों का शोषण चौतरफ़ा है. पहले से ही सामन्ती भू-सम्बन्धों की चक्की में पिस रहे किसान को उदारीकरण की आंधी ने पूरी तरह तबाह कर दिया है. ऊपर से मौज़ूदा निजाम का निरंकुश निजीकरण उसे मटियामेट किए दे रहा है. खेत वीरान हो रहे हैं. गाँव उजड़ रहे हैं. इस सब के बीच खदानें खोदने, सडकें बिछाने और शहरी कालोनियां बसाने के नाम पर मामूली मुआवजों पर जमीनों की छीना-झपटी बदस्तूर जारी है.

फिर भी किसान फिलहाल कोई बहुत बड़ी मांग लेकर नहीं आ रहे. अभी उनकी दो ही मुख्य मांगे हैं. एक तो सभी तरह के किसान कर्जों का एकमुश्त खात्मा. कर्ज माफी के नाम पर अठन्नी-चवन्नी पकड़ा कर किसानों के साथ फ्लेम से ही काफी अमानवीय व्यवहार किया जा चुका है. उधर एन पी ए के नाम पर महासेठों और जगत कम्पनियों का माफ़ किया जा रहा कर्जोपहार सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है. सचाई यह है कि सारी अर्थ-व्यवस्था का पहिया किसान के पसीने से घूमता है. किसान को अब और फरेब नहीं चाहिए. हर तरह के बैंकों से बांटा गया सारा कर्जा तुरंत माफ़ घोषित किया जाए.

दूसरी मांग लागत की डेढ़ गुना कीमत की है. सिद्धांत के रूप में सभी इसकी सराहना करते हैं. लेकिन इसमें भी बेईमानी होती है. लागत जोड़ते वक़्त सिर्फ़ बीज और खाद की कीमत जोड़ी जाती है. किसान और उसके परिवार दिए गए समय और उनकी कमरतोड़ मेहनतकी कोई कीमत नहीं लगाई जाती. यह परोक्ष लूट है. वास्तविक लागत की डेढ़ गुना कीमत से कम कुछ भी मंजूर नहीं.

सरकार को समझना चाहिए कि ये मांगें दरअसल कोई मांग ही नहीं है. सौ बार फेंके गए सरकारी जुमलों को वास्तविक रूप में लागू करने की बात है. यह तो करना ही पडेगा. वरना अब नींद तो हराम होगी ही, उनींदापन भी कम दुखदाई न होगा.

वैसे तो किसान की मिहनत का मोल पैसों में नहीं लगाया जा सकता. लेकिन किसान अब इतना जागरूक हो गया हैं कि वो इसे अपने शोषण का सिद्धांत नहीं बनने देगा. उसको तो अपने हक सब मिलने चहिए. कम से कम वाली बात न उस से कहिए.

किसान भारत में अर्थ-व्यवस्था का ही नहीं , संस्कृति का भी मूल आधार है. किसान ने जब बुवाई, जुताई और कटाई के गीत गए तब कविता पैदा हुई. उसने जब चौपाल लगाए तब महाकाव्य और नाटक आए. किसान के जीवन की दास्तानों से भारत में उपन्यास पैदा हुआ. किसान ने ही सम्वेदना और सृजन , संघर्ष और सौन्दर्य, राजनीति और रस तथा रोटी और गुलाब के नाज़ुक रिश्तों का उन्मीलन किया. किसान है तो देश है. किसान है तो भाषा है. किसान रहेगा, तभी कविता भी रहेगी.

किसान के साथ एकजुट हों.
अखिल भारतीय किसान महासभा समेत 206 किसान संगठनों के लाखों किसानों के साथ मार्च कीजिए.

कर्जा मुक्ति, ड्यौढ़ा दाम
वरना होगी नीद हराम

जगे मजूरे जगा किसान
लाल सलाम लाल सलाम

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