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‘ जनता का अर्थशास्त्र ’ : एक जरूरी किताब

 
भगवान स्वरूप कटियार की नयी किताब ‘जनता का अर्थशास्त्र’ ऐसे समय में आयी है जब देश आर्थिक मंदी की चपेट में है। विकास का नारा धूमिल पड़ चुका है। इसके चेहरे पर पड़ा चमकीला रैपर उतर चुका है। यह मंदी अचानक हो जाने वाली परिघटना नहीं हैं। यह विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से गहरे जुड़ा है। 1991 से विकास के जिस पथ का अनुगमन किया गया, यह मंदी उसी की देन है। उद्योग धंधे दहशत में हैं। बेरोजगारी अपनी चरम पर है। सरकार की ओर से तमाम घोषणाएं की जा रही हैं। बैंकिंग व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया। सारे उपाय नाकाफी साबित हुए हैं। उनका अभी तक कोई असर नहीं दिख रहा है। ऐसे में कटियार जी की इस किताब का आना महत्वपूर्ण है जो ‘विकास’ के निहितार्थ के साथ मौजूदा मंदी को समझने में सहायक है।
कटियार जी मूलतः कवि हैं। लेकिन वे आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक विषयों पर एक स्तम्भकार के रूप में निरन्तर लिखते रहते हैं। कुछ वर्ष पहले ऐसे ही विषय पर लिखी उनकी किताब ‘अन्याय की परंपरा के विरुद्ध ’ आयी थी। यह उनकी दूसरी किताब है। इसकी भूमिका वरिष्ठ पत्रकार और मार्क्सवादी चिन्तक रामेश्वर पाण्डेय ने लिखी है। अपनी टिप्पणी में उनका कहना है ‘ भगवान स्वरूप कटियार महसूस करते हैं कि हमारे समय में विकास और आधुनिकीकरण के नाम पर आमतौर पर खराब राजनीति, खराब विज्ञान और काले धन की ऐसी साठगांठ हुई जिसने लोकहित की जगह केन्द्र में स्वार्थ और मुनाफे को लाकर खड़ा कर दिया है।’ देश की आजादी के बाद लोक कल्याणकारी राज्य और मिश्रित अर्थव्यवस्था के रास्ते विकास हुआ। यह विकास का पूंजीवादी रास्ता था लेकिन इसमें लोक मंगल की भावना थी। जनवादी और समाजवादी मूल्यों को काफी हद तक प्रतिष्ठित करने की कोशिश थी। इसीलिए इसे मध्यमार्गी रास्ता कहा गया।
लेकिन 1991 के बाद नवउदारवाद के दौर में लोक मंगल के मूल्यों को पूरी तरह तिलांजलि दे दी गयी। वित्तीय पूंजी के साथ सांठगांठ की गयी। राष्ट्रीय व जनहित को किनारे किया गया। लोभ, लाभ और लालच अर्थात मुनाफा ही अर्थव्यवस्था का एकमात्र मकसद बन गया। जनजीवन के स्तर पर इसका गहरा असर होना ही था। कटियार जी इसकी पड़ताल करतेे हैं और इसे बर्बर व्यवस्था कहते हैं। इन स्थितियों का क्या विकल्प हो सकता है, इस पर भी वे विचार करते हैं। उनकी चिन्ता और सरोकार के केन्द्र में लूट की व्यवस्था, समाज में बढ़ती विषमता, गैरउत्पादक क्षेत्रों में सरकारी धन का दुरुपयोग आदि है जो आम जनता की आर्थिक बदहाली और तबाही का कारण है। वे इन समस्याओं को किसी अर्थशास्त्र के शास्त्रीय नजरिये से नहीं देखते बल्कि उनका दृष्टिकोण राजनीतिक है। वे राजनीतिक समाधान की बात करते है। इसके लिए कार्ल मार्क्स और डा अम्बेडकर के विचार को वे ‘माॅडल’ के रूप में ग्रहण करते हैं। उनकी मान्यता है कि जनता के लोकतंत्र के बिना जनता के अर्थशास्त्र की बात करना फिजूल है।
किताब की प्रस्तावना में ही वे कहते हैं ‘जनता का लोकतंत्र यानी जनता का राज जिसमें जनता के हित केन्द्र में हो…….जिसका लक्ष्य होगा नवउदारवादी नीतियों के बजाय उसकी जगह प्रगतिशील नीतियों को लाना……और शोषण और दमन की राजनीतिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव लाना।’ यह किताब इसी मकसद से  लिखी गयी है।
‘ राजनीतिक अर्थशास्त्र ’ में बारह अध्याय है। पहला अध्याय है ‘ दुनिया में आर्थिक व राजनीतिक संकट ’ तथा अन्तिम अध्याय है ‘वैकल्पिक अर्थनीति’। अर्थात कटियार जी मौजूदा पूंजीवादी दुनिया की पड़ताल, उसकी वजह से बढ़ती आर्थिक विषमता, आम आदमी के जीवन पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव पर ही विचार और उनका विश्लेषण नहीं करते बल्कि ‘सम्यक विकास के बुनियादी सवाल’ और ‘वैकल्पिक अर्थनीति’ भी उनके चिन्तन में हैं। अपनी बातों के पक्ष में पाॅल एकिंस, गालब्रेथ, अरिन्दम सेन, रामस्वरूप वर्मा, महाराज सिंह भारती के विचार तथा विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख, रिपोर्ट आदि उनके संदर्भ स्रोत हैं।
कटियार जी आर्थिक संकट को केवल भारत की समस्या अर्थात उसे निरपेक्ष रूप में नहीं देखते हैं। वे उसे विश्व संकट के परिप्रेक्ष्य में देखते और दिखाते हैं। इस संकट से निपटनें के लिए एक तरफ नवउदारवादी सरकारों द्वारा काॅरपोरेट को ‘वेल आऊट’ अर्थात राहत पैकेज दी गयी, वहीं आम जनता की सुविधाओं में भारी कटौती की गयी। इसने आर्थिक विषमता को बढ़ाया। बेरोजगारी से लेकर तमाम समस्याएं बढ़ीं। कटियार जी ने विभिन्न देशों का उदाहरण देकर यह बताया है कि भारत के नरेन्द्र मोदी से लेकर अमेरिका के डोनाल्ड ट्रम्प के पास समस्या के समान समाधान हैं तथा इसी ने फ्रान्स, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन आदि देशों में नस्लवाद और फासीवादी उभार के लिए खाद-पानी मुहैया कराया है। अधिनायकवाद को राष्ट्रवाद का पर्याय बनाया गया। कटियार जी की समझ है कि विश्व में आ रही राजनीतिक विकृति और लोकतंत्र की जगह तानाशाही के फलने-फूलने के पीछे मुख्य कारक पूंजीवादी विकास है। बढ़ती आर्थिक विषमता किसी बड़े जन असंतोष व जन उभार का रूप न ले ले, इसके ये पूंजीवादी उपाय हैं।
एक अध्याय है ‘ आवारा पूंजी का बोलबाला ’। यह साम्राज्यवादी पूंजी का नया चेहरा है जो अपने हितों के लिए राजनीति पर कब्जा जमाती है, उसे अपना गुलाम बनाती है। वह जिस अर्थशास्त्र को निर्मित करती है, वह है अरबपतियों का अर्थशास्त्र। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक फीसदी लोगों के पास देश की कुल आमदनी के 73 प्रतिशत पर कब्जा है। इसी तरह वर्तमान में देश में अरबपतियों की संख्या 117 है जिसकी संख्या  अगले दशक तक 350  हो जाने की उम्मीद है। यही परिदृश्य अमेरिका, चीन आदि देशों का भी है। आज भारत तथा अन्य देशों मे जिस तरह अरबपतियों की संख्या में वृद्धि हुई है, वह इसी पूंजी की देन है।
लेनिन ने प्रथम विश्वयुद्ध के परिप्रेक्ष्य में पूंजीवाद का नया चरित्र  निर्धारण किया था। उनकी मशहूर किताब है ‘पूंजीवाद: साम्राज्यवाद की चरम अवस्था’। उन्होंने बताया कि पूंजीवाद की प्रगतिशील व मानवीय भूमिका खत्म हो चुकी है। अब वह बाजार की लूट, विश्व तनाव, युद्ध की विभीषिक और मानव संहारक में बदल चुका है। हम देख सकते हैं कि अपने संकट के दौर में उसने लोकल्याणकारी राज्य  के केचुल को उतार फेका है। इसका चरित्र लफंगा, बदचलन, आवारा हो चुका है। कटियार जी इस पूंजी की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यह दुनिया की राज्य सरकारों का अपने हितों में संचालित करती है और आतंकवाद, युद्ध, भ्रष्टाचार और धार्मिक उन्माद जैसे मनुष्य विरोधी जाल बुनती है जिसमें गरीब देश फंसते चले जाते हैं। भारत की दशा ऐसी ही है।
कटियार जी अपनी इस किताब में इक्कीसवीं सदी के यथार्थ, काला धन और उसके श्रोत और दरपेश चुनौतियों की चर्चा करते हैं। जहां तक काला धन की बात है, इस समय 200 लाख करोड़ भारतीयों का पैसा स्वीस बैंक में जमा है जो रकम पांच ट्रिलियन डालर के बराबर है। देश में यह विषय राजनीतिक चर्चा में आता है, पर इस धन की उगाही के लिए कोई कदम नहीं उठाया जाता है। यह धन देश के 35 वर्षों के बजट के बराबर है। सच्चाई तो यही है कि एक तरफ दुनिया में अमीरों की संख्या में वृद्धि हो रही तो दूसरी ओर गरीबी भी बेतहाशा बढ़ी है। मानव मूल्यों का क्षरण हो रहा है। मानसिक विकलांगता, अवसाद, आत्महत्या, कुपोषण जैसी व्याधियों के लोग शिकार हो रहे हैं। कटियार जी इसे रोजगार विहीन विकास की संज्ञा देते हैं। वे मोदी सरकार के नोटबंदी और जीएसटी के कदम की आलोचना करते हैं जिसने बड़े पैमान पर लोगों को रोजगारविहीन बनाया है तथा अर्थव्यवस्था को मंदी की ओर ढकेला है।
कटियार जी का मकसद मात्र संकटों व समस्याओं पर विचार करना या उनकी व्याख्या करना नहीं है। वे कार्ल मार्क्स के इस महत्वपूर्ण उद्धरण को कोट भी करते हैं कि अब तक के दार्शनिकों ने इतिहास की व्याख्या की है, हमारा काम उसे बदलना है। इसीलिए कटियार जी के विचारों से गुजरते हुए उनमें बदलाव की बेचैनी से हम रूब रू हुए बिना नहीं रहते। यही उन्हें विकल्प की तलाश की ओर ले जाती है।
इसमें एक तरफ वे सुधारवादियों की विचारों की ओर आकृष्ट होते हैं तो दूसरी ओर मार्क्सवादियों के विचारों की ओर। उनका चिन्तन इनके संधिस्थल पर खड़ा है।
कटियार जी जनता के अर्थशास्त्र पर विचार करते समय मशहूर कैनेडियन आर्थिक चिन्तक जाॅन केन गालब्रेथ के अर्थिक चिन्तन को सामने लाते हैं। वे डा अम्बेडकर के सामाजिक व राजनीतिक विचारों से भी प्रेरित हैं। अच्छा तो यह होता कि किताब में एक अध्याय डा अम्बेडकर के आर्थिक चिन्तन पर भी होता। वहीं, एक अध्याय में वे पहले सर्वहारा राज के माॅडल के रूप में ‘पेरिस कम्युन’ को याद करते हैं और वह भी खास तौर से मौजूदा मंदी के संदर्भ में।
सार रूप में कहा जा सकता है कि वित्तीय पूंजी के हित रक्षक व सेवक के रूप में भारत के शासक वर्ग की भूमिका बढ़ी है। ‘ विकास ’ का नारा मात्र छलावा है। काॅरपोरेट द्वारा अंधाधुन्ध लूट और जनता की तबाही का सबब है। मंदी उसकी कारगुजारियों की देन है। न सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में है बल्कि देश का आर्थिक व सामाजिक जीवन भी। डा अम्बेडकर ने बहुत पहले जो आशंका व्यक्त की थी, वह सच होती दिख रही है। कटियार जी की वैचारिक बेचैनी के मूल में यही है। इसीलिए वे बदलाव की बात करते हैं। वे विकल्प की बात करते हैं और जो लोग मौजूदा व्यवस्था के विकल्प के लिए संघर्षरत हैं, उन्हें इनकी किताब वैचारिक व मानसिक रूप से तैयार करती है। इस मायने में यह जरूरी और महत्वपूर्ण है। इसी को ध्यान में रखकर यह लिखी गयी है। इसकी भाषा बहुत सहज, सरल और बोधगम्य है।

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