समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

बुद्धिजीवी, राज्य, पुलिस और अदालत

नवउदारवदी अर्थ व्यवस्था के विकसित दौर में कोई भी क्षेत्र पूर्ववत नहीं रहा है। उसने राज्य की भूमिका बदली और राज्य जनोन्मुख न रहकर काॅरपोरेटोन्मुख बना। आॅक्सफैम की ताजा रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष 2018 में भारतीय अरबपतियों की सम्पति प्रति दिन दो हजार 200 करोड़ रुपये बढ़ी है। भारत के एक प्रतिशत धनाढयों के पास देश की कुल सम्पति का 51.53 प्रतिशत हिस्सा है। विश्व में हुई आय-वृद्धि की तुलना में भारत में हुई आय वृद्धि कहीं अधिक है। 12 प्रतिशत लोगों की आय वृद्धि विश्व में 70 प्रतिशत है और भारत में 469 प्रतिशत। एक प्रतिशत अमीरों की आय वृद्धि विश्व में 133 प्रतिशत है और भारत में 1295 प्रतिशत। यह राज्य के सहयोग के बिना संभव नहीं था। राज्य का काॅरपोरेटीकरण उसकी अर्थनीतियों से जुड़ा है।

पिछले चार वर्ष में राज्य अपने जन और जन बुद्धिजीवियों के प्रति कहीं अधिक असहिष्णु असंवेदनशील और क्रूर हुआ। बुद्धिजीवी जन के साथ होता है। राज्य के साथ उसके होने का प्रश्न नहीं उठता। 16 वीं लोकसभा में भाजपा के बहुमत में आने और नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद सब कुछ अस्थिर हो चुका है। आपातकाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित थी, प्रेस पर सेंसरशिप था, पर आज के अघोषित आपातकाल में चीजें अधिक बदतर अवस्था में है। इस समय में कोई भी ‘राष्ट्रद्रोही’ और ‘शहरी माओवादी’, ‘अर्बन नक्सली’ घोषित किया जा सकता है।

पुलिस और अदालतें राज्य के साथ हैं। पिछले चार-पांच वर्ष के शासन से राज्य के स्वभाव के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वभाव, भाजपा और आर एस एस के वास्तविक स्वभाव की सहज पहचान की जा सकती है। अब कुछ भी ढका-छिपा नहीं है। नेपथ्य में जो कुछ था, वह सब अब मंच पर मौजूद है। इसे देखना-समझना सभी नागरिकों के लिए आवश्यक है। कोशिश सबको अकेला और अलग-थलग कर देने की है, जबकि यह समय एक साथ और एकजुट होने का है। आज राज्य, अदालत, पुलिस-प्रशासन की भूमिका को समझने के साथ-साथ आर एस एस भाजपा और प्रधानमंत्री की नीतियों, उनकी कार्य-पद्धति को समझना जरूरी है।

बुद्धिजीवी की मुखरता सत्ता-व्यवस्था को नहीं सुहाती है, किस तर्क से सत्ता-व्यवस्था, शासक वर्ग, मंत्री-संतरी ही नहीं, प्रधानमंत्री की आलोचना करना गुनाह और अपराध है ? ‘न्यू’ और ‘डिजिटल इंडिया ’ में बुद्धिजीवी की भूमिका और बढ़ जाती है। वह तथ्य और सत्य के पक्ष में होता है। अगर न्यायपालिका सही न्याय करते होते, तो उनके भीतर से ही उनके विरुद्ध आवाजें नहीं उठतीं। न्यायमूर्ति ही आदालतों और न्यायपालिका को लेकर चिन्तित नहीं होते, राज्य के पास पूरी मशीनरी है, सत्ता और शक्ति है। बुद्धिजीवी के पास विवेक, तर्क, सत्य और जनपक्षधरता है। अब कुछ भी साफ-सुथरा नहीं है और जरूरत सबको साफ-सुथरा करने की है। यह स्वच्छता-अभियान सरकार के स्वच्छता कार्यक्रम से बिल्कुल भिन्न है। क्या हम आधुनिक, उत्तर-आधुनिक भारत में बहुत पीछे नहीं लौट रहे है ? क्या हमारा गणतंत्र घृणा गणतंत्र या हेट रिपब्लिक है ?

आनन्द तेलतुम्बड़े उन भारतीय बुद्धिजीवियों में है, जिन्होंने पूरी निर्भीकता और तथ्यात्मकता के साथ सदैव अपनी बातें कहीं हैं और लोक चेतना, जन चेतना जाग्रत की है। उनका लेखन दो दशक से अधिक का है। उनकी पहचान एक बड़े भारतीय बौद्धिक की है। सरकार इस बौद्धिक आवाज को बन्द करना चाहती है। किसी पर किसी प्रकार का आरोप मढ़ देना सरकार के लिए बांये हाथ का खेल है। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ‘राष्ट्रद्रोहियों’ और ‘शहरी माओवादियों’ की संख्या बढ़ रही है। ये पहले नहीं थे। वर्तमान सरकार ने इन्हें चिन्हित किया है क्योंकि इनका जितना विरोध किया जा रहा है, उससे बनते माहौल को रोकना सरकार को जरूरी लगा है।

आनन्द तेलतुम्बड़े देश की अगली पंक्ति के कुछ गिने-चुने बुद्धिजीवियों में हैं। वे लेखक, स्तम्भकार, राजनीतिक विश्लेषक, नाागरिक अधिकार सक्रियतावादी, सरकार और व्यवस्था की नीतियों-कार्यपद्धितयों के मुखर विरोधी, शिक्षाविद और हमारे समय के महत्वपूर्ण दलित चिन्तक-विचारक हैं जिनकी दलित और सामाजिक विषयों लिखी बीस से अधिक किताबे आ चुकी हैं। उनकी नजर से कोई घटना नहीं छूटती, ई पी डब्लू में प्रकाशित उनके मासिक स्तम्भ ‘मार्जिन स्पीक’ के शीर्षक से। इससे उनके गहरे कन्सर्न का पता किसी को भी लग जाएगा और उसे पढ़ने, सोचने-समझने से उनकी उस गहरी बेचैनी और छटपटाहट का भी पता लगेगा जो आज कम बुद्धिजीवियों में है। एक कैमरे की तरह उनकी नजर सभी घटनाओं पर घूमती है और वे उसे अपने लेखन और भाषण में दर्ज करते हैं। उन्होंने हमें सच्चाइयों से अवगत ही नहीं कराया है, बौद्धिक रूप से भी सक्रिय किया है।

सरकार के रवैये को देख समझकर कोई भी यह कह सकता है कि ऐसी सरकार बदलनी चाहिए। व्यवस्था की वास्तविक पहचान करने वाला कोई भी बौद्धिक-चिन्तक, सक्रियतावादी यह भी कहेगा कि यह व्यवस्था भी बदलनी चाहिए। किस तर्क से आर एस एस, भाजपा, नरेन्द्र मोदी, न्यायपालिका, व्यवस्था आदि की आलोचना करना अपराध है, खतरनाक है ?

6 जून 2015 के ई पी डब्लू में तेलतुम्बड़े के स्तम्भ का शीर्षक था ‘ह्वेदर जस्टिस ?’ लगभग तीन वर्ष बाद सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने पहली बार प्रेस कांफ्रेन्स की और देश को यह बताया कि लोकतंत्र खतरे में हैं और न्यायालय में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। आनन्द तेलतुम्बड़े ने प्रायः सभी विषय पर लिखा, प्रतिक्रिया व्यक्त की जो केवल दलित जीवन और दलित हित से संबंधित नहीं है। वे इतिहास में गये और वर्तमान में घट रही घटनाओं को समझने में हमारी मदद की।

भाजपा के ‘एरोगेन्स’, 7 अप्रैल 2018, ई पी डब्लू के पहले उन्होंने ‘ब्राहमनिकल एरोगेन्स’, ई पी डब्लू, 9 जून 2016 पर लिखा। उन्होंने कांचा इलैया के समर्थन में, रक्षा में लिखा – ‘ए क्रिटिकल डिफेन्स आॅफ कांचा इलैया वायस’, ई पी डब्लू, 4 नवम्बर 2017। क्या हमें तेलतुम्बड़े के समर्थन में खड़ा, एकजुट और सक्रिय नहीं होना चाहिए। यह केवल उनके लिए ही नहीं, भारतीय लोकतंत्र के लिए भी जरूरी है।

जिस भीमा कोरेगांव मामले में उन्हें आरोपी बनाया गया है, उस भीमा कोरेगांव पर उनका लेख 3 फरवरी 2018 के ई पी डब्लू में प्रकाशित हुआ था। तेलतुम्बड़े पर आरोप है कि पुणे के समीप के भीमा कोरेगांव में एल्गार परिषद के कार्यक्रम के बाद हुई हिंसा सामान्य न होकर एक बड़ी साजिश के तहत थी। भीमा कोरेगांव की हिंसा में किसकी भूमिका थी ? संभा जी राव भिडे और मिलिन्द एकबोटे की या आनन्द तेलतुम्बड़े की ? क्या भिडे और एकबेाटे संघ-परिवार से संबंध रखने के कारण दोषमुक्त हो सकते हैं और तेलतुम्बड़े को साजिशकर्ता माना जा सकता है ? पुलिस ने भिड़े और एकबोटे को गिरफ्तार नहीं किया और न इस घटना की सही जांच की। क्या संघ के साथ होना दोषमुक्त होना और राष्ट्रप्रेमी होना है और उसका विरोध ‘राष्ट्रद्रोह’ है ? क्या राष्ट्र की एकमात्र चिन्ता आर एस एस को ही है ? सरकार उसकी है क्योंकि भाजपा का आर एस एस से नाभिनाल संबंध है। 10 मार्च 2018 के ई पी डब्लू में तेलतुम्बड़े का लेख था ‘रिटर्न आॅफ द मन्दिर’’।

प्रश्न किसी व्यक्ति-विशेष के पक्ष में खड़े होने का न होकर उस सत्य और न्याय के पक्ष में खड़े होने का है जिसके साथ तेलतुम्बड़े हमेशा रहे हैं। यह समय देश के प्रबुद्ध नागरिकों का अलग-थलग रहने का नहीं है। वे एकजुट होकर, आन्दोलनरत, निर्भीक और सक्रिय होकर ही लोकतंत्र की रक्षा कर सकते हैं.

यह ‘हिन्दुत्व’ के विरोधियों का एक साथ होने का समय है। देश में कानून कम नहीं है। कठोर कानून भी है। यू ए पी ए, द अनलाॅफुल एक्टिविटीज प्रीवेन्सन एक्ट, 1967 कानून आतंकवाद-रोधी कानून गैरकानूनी गतिविधियों के रोकथाम की है जिसे ‘ड्रेकोनियन कानून’ कहा गया है । इस भारतीय कानून का उद्देश्य देश के भीतर की गैरकानूनी गतिविधियों और संगठनों की पहचान करना है। यह कानून कई संवैधानिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाता है, जिसमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ संगठन या यूनियन बनाने का अधिकार भी शामिल है। इस प्रावधान के तहत विचारों को अपराधी बनाने की बात कही गयी है, जबकि वैचारिक स्वतंत्रता गैरकानूनी गतिविधि नहीं मानी जा सकती। अधिनियम पेश किये जाते समय यह ‘भारत की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा’ के लिए था। क्या भारत में आज बुद्धिजीवी खतरनाक हो गये हैं ? यू ए पी ए कानून के तहत किसी का भी जीवन बर्बाद किया जा सकता है, चुप रहने का संदेश दिया जा सकता है।

कानून का दुरुपयोग भी होता है। अभी देश में चारो ओर से आवाजें उठ रही हैं। कहीं स्वर मद्धिम है, कही प्रबल। ये आवाजें सरकार, सत्ता और व्यवस्था को नहीं सुहातीं। वह भ्रम कायम रखना चाहती हैं और जन-जागरण उसके लिए हितकर नहीं है। आनन्द तेलतुम्बड़े की छवि उनके लेखन और चिन्तन से, सक्रियतावादी और जनपक्षधर होने से निर्भीक स्वरों में अपनी बात प्रस्तुत करने से बनी है। उन पर जिस यू ए पी ए एक्ट के तहत मामला दर्ज है, उसमें बिना किसी सबूत या आरोप के जमानत के बगैर उन्हें महीनों जेल में रखा जा सकता है। तेलतुम्बड़े ने हिंसा की कभी बात नहीं की है। जो उन्हें जानते हैं या जो उनके लेखन से अवगत हैं, वे यह कभी सोच भी नहीं सकते कि वे किसी षडयन्त्र में शामिल हैं।

आरोप लगाना शक्तिशालियों के लिए सामान्य बात है। राज्य अगर ठान ले, निश्चय कर ले कि अगर व्यक्ति को उसे सजा देनी है तो वह अपनी शक्ति से कुछ भी संभव कर सकता है। किसी को ‘राष्ट्रद्रोही’ और ‘अर्बन नक्सल’ कहना सामान्य बात है। अदालतें तुरन्त निर्णय नहीं देती और इस बीच जीवन नष्ट हो जाता है। आनन्द तेलतुम्बड़े ने पुलिस द्वारा दर्ज एफ आई आर रद्द करने की जो याचिका दी थी, वह सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज हो चुकी है। अब केवल एक रास्ता बचा हुआ है कि वे निचली अदालत में जमानत की अर्जी दें। ऐसी स्थिति में एक बुद्धिजीवी क्या करे ?

वह अपने साथियों से, पाठकों से, बौद्धिकों से सक्रियतावादियों-संस्कृतिकर्मियों से अपील करे या नहीं ? तेलतुम्बड़े ने साथ देने की अपील की है क्योंकि यह समय अकेले संघर्ष करने का नहीं है। झूठ सच का गला दबा रहा है। ‘सत्यमेव जयते’ के देश में सत्य का हाल किसी से छिपा नहीं है। संस्थाएं नष्ट हो रही हैं, की जा रही है, आवाजें बाहर से नहीं, भीतर से भी उठने लगी हैं। तंत्र के भीतर से, न्यायपालिका से, सी बी आई से। मीडिया ‘गोदी मीडिया’ बन चुका है।

किसी भी देश और समाज में बौद्धिकों की, बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी भूमिका है। जो सरकार इसे न समझकर अपने विरोधियों पर इल्जाम गढ़ती है, वे भी सत्ता के सिंहासन पर सदैव बैठ नहीं सकतीं। बुद्धिजीवी किसी भी समाज का मस्तिष्क है – सर्वाधिक उर्वर मस्तिष्क। इसकी रक्षा की जानी चाहिए। मुक्तिबोध ने जिस बौद्धिक वर्ग को ‘क्रीतदास’ कहा था, वे कोई और होंगे। तेलतुम्बड़े जैसे बौद्धिक पर समाज और सरकार दोनों को गर्व करना चाहिए, पर उनकी बल ली जा रही है। ई पी डब्लू के पूर्व सम्पादक सी राममनोहर रेड्डी ने ‘दि आनन्द तेलतुम्बड़े आइ नो’, इंडियन एक्सप्रेस, 18 जनवरी 2019 के लेख में इस दलित जन बुद्धिजीवी की बलि लेने की बात लिखी है और भीमा कोरेगांव मामले को बेहूदा बताया है। तेलतुम्बड़े ने इसे ‘मिथक’ बताकर इसके राजनीतिक उद्देश्य के पूरा हो जाने की बात कही थी। वे इसे ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़क बनाम उत्पीड़ित की लड़ाई में नहीं देख रहे थे। ‘इक्कीसवीं सदी में दलितों द्वारा इस मिथक से जुड़ाव एक अस्मितावादी दलदल में ले जाएगा।

क्या सब कुछ राज्य, पुलिस, अदालत और सरकार पर छोड़कर निश्चिन्त हुआ जा सकता है या हमें एकजुट होकर देश के बौद्धिकों की हिफाजत करनी चाहिए। आनन्द तेलतुम्बड़े के साथ खड़ा होकर एक अभियान आरम्भ किया जा सकता है। तेलतुम्बड़े को गिरफ्तार होने से बचाने के लिए जन-अभियान जरूरी है। इक्कीसवीं सदी का भारत जिस मार्ग पर बढ़ रहा है, वह सही मार्ग नहीं है। हमें यह समझना होगा कि बुद्धिजीवियों पर संकट देश पर भी संकट है और संकट मुक्त होने के लिए हमारा सक्रिय होना आज अधिक आवश्यक है।

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