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भारतीय सिनेमा हाशिये के लोगों का सिनेमा नहीं है : पवन श्रीवास्तव

प्रतिरोध का सिनेमा : 10 वां पटना फिल्मोत्सव

पटना. ‘‘जिसे भारतीय सिनेमा कहा जाता है, उसे भारतीय सिनेमा नहीं कहना चाहिए। वह सच्चे अर्थों में हाशिये के लोगों का सिनेमा नहीं है। इस भारतीय सिनेमा में गांव के लोग शामिल नहीं हैं, उनकी जिंदगी की सच्चाई नहीं है। वह कुछ हद तक शहर का सिनेमा है, नवउदारवाद के दौर में बड़ी-बड़ी कंपनियां फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उतरी है, जो उसके कंटेट को कंट्रोल करती हैं। देश की बहुत बड़ी आबादी के सवालों से उस तथाकथित भारतीय सिनेमा का कोई संबंध नहीं है। कंपनियां उन फिल्मों के जरिए अपने राजनीतिक-आर्थिक मुद्दों के अनुरूप जनमानस को तैयार करने की कोशिश करती है। ’’

युवा फिल्मकार पवन श्रीवास्तव ने आज स्थानीय कालिदास रंगालय प्रेक्षागृह में हिरावल-जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित ‘दसवां पटना फिल्मोत्सव’ का उद्घाटन करते हुए ये विचार व्यक्त किए।
पवन श्रीवास्तव ने कहा कि यह सोचना बेमानी है कि कारपोरेट कंपनियां हाशिये के लोगों के लिए फिल्म बनाएंगी। हाशिये के लोगों की कहानी हमें ही कहनी होगी और हमें ही अपने गांव और वहां की वास्तविक जीवन स्थिति को दिखाना होगा। पवन श्रीवास्तव ने कहा कि इसीलिए उन्होंने जनसहयोग के जरिए
फिल्म निर्माण का रास्ता चुना। उन्होंने बताया कि उनकी पहली फिल्म ‘नया पता’ और नई फिल्म ‘लाइफ आॅफ एन आउटकास्ट’ जनसहयोग से ही बनी है।

पवन श्रीवास्तव ने कहा कि बाजार के प्रभाव से मुक्त रहकर लगातार दस साल पटना फिल्मोत्सव का आयोजन होना एक मिसाल है। दसवें साल में आयोजकों ने प्रदर्शन के लिए जिन फिल्मों को चुना है, वे बताती हैं कि समाज, राजनीति और कला में दलित-वंचित हाशिये के लोगों की क्या स्थिति है। उन्होंने यह भी कहा कि आज सिनेमा देखना भी वैयक्तिक हो गया है, लेकिन सिनेमा जो कि सामूहिकता की कला है, उसे सामूूूहिक रूप से देखा जाए, तो वह ज्यादा प्रभावकारी साबित हो सकता है। इसलिए फिल्मों को सामूहिक रूप से दिखने-दिखाने की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए।

जनपक्षधर फिल्में बनाना दूसरी स्वतंत्रता की लड़ाई का हिस्सा: प्रो. संतोष कुमार

फिल्मोत्सव स्वागत समिति के अध्यक्ष प्रो. संतोष कुमार ने कहा कि आज जनता के प्रतिरोध और संघर्ष का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवियों और कलाकारों को सत्ता अर्बन नक्सल और देशद्रोही कह रही है। लेकिन बुद्धिजीवी-कलाकार इससे डर कर चुप नहीं हो जाएंगे। हम सब ‘रंग दे बसंती चोला’ वाली परंपरा के साथ हैं। जनपक्षधर फिल्में बनाना जोखिम का काम है। घर फूंक तमाशा की तरह है।
लेकिन यह दूसरी स्वतंत्रता की लड़ाई का अहम हिस्सा है।

आरंभ में जन संस्कृति मंच के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने पटना फिल्मोत्सव के दस साल के सफर के बारे में बताते हुए कहा कि वर्चस्व की ताकतों से हाशिये का समाज बहुत बड़ा है। वह एकताबद्ध हो जाए, तो राजनीति, समाज, संस्कृति और कला- हर जगह वह केंद्र में आ जाएगा। पटना फिल्मोत्सव आरंभ से
ही हाशिये के लोगों के जीवन की सच्चाइयों और उनके संघर्षों से संबंधित फीचर फिल्में, डाक्युमेंटरी और लघु फिल्में दिखाता रहा है। उन्होंने जसम के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कवि त्रिलोचन को उनके स्मृति दिवस पर याद करते हुए उनकी एक कविता ‘उस जनपद का कवि हूं’ के अंश का पाठ करते हुए कहा कि कविता हो या फिल्म अभावग्रस्त, उत्पीड़ित जनता के जीवन का जो सोता यानी स्रोत है, वही उसकी ताकत हो सकती है।

उद्घाटन सत्र में मंच पर मौजूूद फिल्मकार संजय मट्टू , फिल्मकार पवन श्रीवास्तव, आर्ट डाइरेक्टर राधिका, फिल्मों के जानकार आर.एन. दास, वरिष्ठ कवि आलोकधन्वा, साहित्यकार राणा प्रताप, प्रो. भारती एस कुमार, अरुण पाहवा, सुधीर सुमन ने फिल्मोत्सव की स्मारिका का लोकार्पण किया।

उद्घाटन सत्र का संचालन हिरावल के संयोजक संतोष झा ने किया। इस अवसर पर शिक्षाविद् गालिब, पत्रकार-कवयित्री निवेदिता शकील, साउंड इंजीनियर विस्मय, कवि-रंगकर्मी अरुण शाद्वल, एसआरएफटीआईआई, कोलकाता के निर्देशन के पूर्व छात्र सजल आनंद, रंगकर्मी रोहित कुमार, कवि सुनील श्रीवास्तव, राजेश कमल, मगही कवि श्रीकांत व्यास, यादवेंद्र, का. बृृजबिहारी पांडेय, कवि-पत्रकार संतोष सहर आदि भी मौजूूद थे।

इसके बाद हिरावल के रेशमा खातून, रत्नावली कुमारी किशन, अंजली कुमारी, निक्की कुमारी, नेहा कुमारी, प्रिंस, प्रीति, संतोष, गौतम, सुमन, संगीत, भारती, पलक, पीहू आदि ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान लिखे गए अजीमुल्ला खां के गीत ‘हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा’ और ब्रजमोहन के गीत ‘चले, चलो’ का गायन किया।

‘अपनी धुन में कबूतरी’ से फिल्मोत्सव का पर्दा उठा

सहजता में महानता का साक्षात्कार दसवें पटना फिल्मोत्सव में फिल्मों के प्रदर्शन की शुरुआत ‘अपनी धुन में कबूतरी ’ से हुई। संजय मट्टू द्वारा निर्देशित यह फिल्म उत्तराखंड की कुमांइनी भाषा की लोकगायिका कबूतरी के जिंदगी के अनुभवों और गायकी पर आधारित थी। यह फिल्म एक सामान्य स्त्री की ताकत और प्रतिभा से बहुत ही सहजता से दर्शकों को रूबरू कराती है। कबूूतरी देवी के जीवन के दैनिक जीवन-प्रसंगों और स्मृतियों के जरिए यह फिल्म चलती है, किस तरह उन्हें रेडियो से गाने का आमंत्रण मिला और कैसे उनको यह पता चला कि उनके पति की पहले से एक पत्नी है और कैसे उन्हें जब पारिश्रमिक मिलता था, तो पति किसी अच्छे होटल में खाने का आग्रह करते थे और कैसे उन्होंने खुद पत्थर ढो-ढो कर पहाड़ी इलाके में अपना घर बनाया, इस तरह के सारे प्रसंग बिना किसी आत्ममुग्धता या बड़बोलेपन के कैमरे में दर्ज हुए हैं। निर्देशक ने अपनी ओर से कोई लोकगायिका के महत्व को लेकर कोई बड़ी या भारी टिप्पणी नहीं की है। जब फिल्म का अंत होता है, तो उसके सम्मिलित प्रभाव के तौर पर प्रतीत होता है कि किसी महान कलाकार से साक्षात्कार हुआ।

फिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों ने संजय मट्टू से कबूूतरी देवी पर फिल्म बनाने की वजह, राज्य सरकारों से फिल्म निर्माण के लिए मदद की अपेक्षा, भाषाई संस्कृति, वितरण आदि से संबंधित सवाल पूछे। एक सवाल के जवाब में मट्टू ने कहा कि कबूतरी देवी अपनी जिंदगी और सच्चाई को किस रूप में देखती हैं, यही दर्शाने की उन्होंने कोशिश की है, अपनी ओर से कोई जजमेंट नहीं दिया। प्रो. भारती एस. कुमार ने फिल्मोत्सव की ओर से संजय मट्टू को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया।

लाइफ आॅफ एन आउटकास्ट: हाशिये के लोगों के दुख और त्रासदी की कहानी

पवन श्रीवास्तव निर्देशित फिल्म ‘लाइफ आॅफ एन आउटकास्ट’ का भी आज प्रदर्शन हुआ। यह फिल्म हाशिये में रह रहे एक पिछड़े और गैर सवर्ण परिवार के लगातार अपनी जमीन से उखड़ने की कहानी है, जो हमारे समाज के वास्तविक चेहरे को उजागर करती है। यह फिल्म समाज में जाति भेद की सच्चाइयों और उत्पीड़ित जातियों के मुक्ति की जरूरत की ओर भी संकेत करती है। जाति का प्रश्न कितना जलता हुआ प्रश्न है, फिल्म प्रदर्शन के बाद दर्शकों की फिल्म निर्देशक से विचारोत्तेजक संवाद ने इसकी बानगी पेश की।

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