समकालीन जनमत
जनमतशिक्षा

किसके हित में है नयी शिक्षा नीति: आम जन या पूंजीपति?

रामावतार शर्मा


मोदी सरकार की प्रस्तावित नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, शैक्षणिक गुणवत्ता में गिरावट लाते हुए शिक्षा के व्यापार को और तेज गति देगी, इंसानियत व वैज्ञानिक सोच पर आक्रमण करेगी, आम जन को शिक्षा से बाहर करेगी।
मोदी सरकार ने दोबारा सत्तासीन होने के दूसरे दिन ही नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप जारी करने का काम किया। विभिन्न देशों का इतिहास इस बात का गवाह है कि सत्ताधारी अपने शासन व सत्ता को लम्बा और मजबूत करने के लिए हमेशा शिक्षा को खास निशाना बनाते हैं।
क्योंकि हम जानते है कि शिक्षा ही मनुष्य को सिर ऊंचा कर खड़ा होने लायक बनाती है, उसे सामाजिक रूप से न केवल सचेत करती है बल्कि सच्चाई व इंसानियत से भी रूबरू कराती है। एक समय हिटलर ने कहा था कि ‘‘यदि हम देश की पाठ्यपुस्तकों  व पाठ्यक्रमों को नियंत्रित कर सकें तो देश की राजसत्ता को भी नियंत्रित कर सकते हैं।’’ इसलिए मोदी सरकार ने अपनी शिक्षा नीति लाने में देर नहीं की। इस सरकार की शिक्षा नीति के प्रारूप के अध्ययन उपरांत ज्ञात हुआ कि जिस तरह से 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने नई शिक्षा नीति लाकर शिक्षा को बाजार की जरूरतों के मुताबिक निर्धारित किया था, शिक्षा के जनतांत्रिक स्वरूप पर आक्रमण किया था, उससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए मोदी सरकार की शिक्षा नीति भी नई बोतल में पुरानी शराब के तौर पर भारत के मानस पटल पर परोसी गई है। जिसमें शब्दों व वाक्यों की अतर्विरोधी व्याख्याओं की भरमार है। लेकिन सार स्वरूप में यह राजीव गाँधी की शिक्षा नीति 86 की ही तरह गरीब से गरीब परिवारों के सभी बच्चों को एक जैसी निःशुल्क गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने और उन्हें सामाजिक व बुद्धिमान बनाने के स्थान पर वित्तीयपूँजी बाजार व निवेष को ध्यान में रखते हुए ही तैयार की गई है। मोदी सरकार की इस नई शिक्षा नीति का यह प्रारूप कहता है कि ‘‘शिक्षा को मिलने वाले प्रत्येक सहयोग व खर्च को यह शिक्षा नीति निवेश मानती है न कि व्यय’’ (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज-560)।
अर्थशास्त्र का सामान्य विद्यार्थी भी इस सिद्धांत को जानता है कि निवेश का मायने ही है पूँजी का निवेश। कोई भी पूंजीपति शिक्षा में क्यों निवेश करेगा ? सिर्फ मुनाफा कमाने के लिए, और मुनाफा बगैर शोषण के नहीं होता, यानी की नई शिक्षा नीति के निर्माता चाहते हैं कि शिक्षा में शोषण और मुनाफाखोरी जारी रहे। इसे खरीदने व बेचने के माल के रूप में देखा जाए। जबकि आजादी आंदोलन के महान चरित्रों ने शिक्षा को जनकल्याण के सरोकार के रूप में देखा था और आधुनिक राज्य को शिक्षा का पूरा आर्थिक दायित्व अपने हाथ में लेने को कहा था। क्योंकि उसका खजाना आम जनता पर लगाये गये विभिन्न तरह के करों से ही निर्मित होता है।
एक जनतांत्रिक सरकार का पहला कर्तव्य है कि वह अपने सभी नागरिकों को एक जैसी गुणवत्तापूर्ण निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराए। इसलिए लाला राजपत राय ने कहा था ‘‘सार्वभौमिक प्रचलित शिक्षा राज्य की ओर से
उपलब्ध कराई जानी चाहिए और सरकारी राजस्व पर पड़ने वाला पहला खर्च यही होना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा को निजी एजेंसियों और निजी फण्ड के द्वारा प्रदान करने का प्रयास व्यर्थ है।’’
शिक्षा का यह प्रारूप निजी क्षेत्र द्वारा की जा रही मुनाफाखोरी को स्वीकार करते हुए लिखता है ‘‘1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण के बाद जो निजी शैक्षिक भागीदारी बढ़ी और एक गति आई वह पहले की निजी भागीदारी से अलग है। अब यह साफ है कि शिक्षा के क्षेत्र में भागीदारी करने वाले निजी सेवादाताओं के एक बड़े भाग के लिए शिक्षा एक व्यवसायिक लाभ लेने का क्षेत्र बन गया है’’ (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 568)। शिक्षा के इस व्यापारीकरण को स्वीकार करने के बावजूद प्रारूप निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की वकालत करते हुए लिखता है।‘‘यह नीति शिक्षा के क्षेत्र में निजी फिलथ्रोपिक गतिविधियों को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करने की अनुशंसा करती है (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 569)। प्रारूप न केवल निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की बात करता है बल्कि जनतांत्रिक शिक्षा की सभी को एक जैसी गुणवत्तापूर्ण निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराने की धारणा को नकारते हुए छात्रों से शुल्क वसूलने की अनुशंसा भी करते हुए लिखता है-‘‘यह नीति इस बात को भी अनुशंसित करती है कि उन विद्यार्थियों से क्षमता अनुसार शुल्क लिया जाए जो अपनी उच्च शिक्षा का खर्च उठा सकने की क्षमता रखते हों (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 569)।
देश की आजादी उपरांत शिक्षाविदों व शिक्षाप्रेमियों ने आवाज बुलंद की थी कि देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का शिक्षा पर कम से कम 10 प्रतिशत खर्च सरकार द्वारा किया जाए, लेकिन सभी सरकारों ने आजादी के बाद अभी तक इस आवाज को अनसुना किया।
1968 के कोठारी आयोग से लेकर 1986 की राजीव गांधी की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति और 1992 की शिक्षा कार्ययोजना में इसे कागजी तौर पर स्वीकारा गया था। लेकिन किसी ने इसे अमली जामा नहीं पहनाया।
मोदी सरकार भी जिस तरह से कार्पोरेट घरानों की सेवा में संलग्न है, उसके लिए भी शिक्षा पर देश के राष्ट्रीय सकल उत्पाद का 6 प्रतिशत खर्च करना एक हवाई तीर ही होगा। दुनिया के अधिकांश देश शिक्षा पर भारत से ज्यादा सरकारी खर्च करते हैं । पिछले 5 सालों में भारत में शिक्षा पर सरकारी खर्च कुल सकल घरेलू उत्पाद का 3 प्रतिशत से भी कम रहा है। जबकि भूटान, जिम्मबांबे, स्वीडन जैसे देशों में 7.5 प्रतिशत, साउथ अफ्रीका, ब्राजील में 6 प्रतिशत, यूनाईटेड किंगडम व नीदरलेंड में 5.5 प्रतिशत
रहा है।
शिक्षा के उद्देश्य व खर्च के संबंध में भारतीय नवजागरण व आजादी आंदोलन के प्रसिद्ध साहित्यकार प्रेमचंद लिखते हैं कि ‘‘यह किराये की तालीम हमारे चरित्र को तबाह किए डालती है हमने तालीम को भी व्यापार बना दिया है। व्यापार में ज्यादा पूजी लगाओ तो ज्यादा नफा होगा। तालीम में भी ज्यादा खर्च करो ज्यादा ऊंचा ओहदा पाओगे। मैं चाहता हूँ कि ऊंची से ऊंची तालीम सबके लिए मुफ्त हो ताकि गरीब आदमी ऊंचे से ऊंचा ओहदा पा सके। विश्वविद्यालय के दरवाजे सबके लिए खुले होने
चाहिए। सारा खर्च सरकार पर पड़ना चाहिए, मुल्क को तालीम की उससे कहीं ज्यादा जरूरत है जितनी कि फौज की।’’
मोदी सरकार की इस शिक्षा नीति के प्रारूप ने स्वयं स्वीकारा है कि देश में शिक्षा की स्थिति प्रसार और गुणवत्ता दोनों संदर्भों में अत्यधिक दयनीय है। प्रारूप लिखता है ‘‘देश के शहरी निर्धन परिवारों के लगभग 1 करोड़ बच्चे निरक्षर हैं । स्कूल व खेलने के अवसर के अभाव के चलते ये बच्चे नशे व छोटे-मोटे अपराधों में फँसे हुए हैं । इनमें से एक तिहाई बच्चे मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं । (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 211)।
देश में शिक्षा का अधिकार कानून 2009 लागू करने के क्रम में कक्षा 8 तक पास फेल प्रणाली हटाने के भयानक दुष्परिणाम स्कूल शिक्षा में दिखाई दिए हैं । लोकसभा में प्रस्तुत सरकार की रिपोर्ट स्वयं कहती है कि जब छात्र कक्षा 8 में पहुंचते हैं तो इनकी भाषा गणित व विज्ञान इत्यादि के ज्ञान में कमी आती है और यह गिरावट इतनी अधिक है कि 2010 में देश भर में कक्षा 5 के कुल बच्चों में से 44.3 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताब भी नहीं पड़ सके। यह अनुपात 2011 में 56.2 प्रतिशत और 2012 में 58.3 प्रतिशत तक बढ़ गया। कक्षा 8 एवं कक्षा 9 में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या का बहुत बड़ा तबका एक संपूर्ण वाक्य को लिखने, साधारण भाग करने या दो भिन्नों को जोड़ने में असमर्थ रहा।
यह शिक्षा नीति का प्रारूप शिक्षा की इस गुणवत्ता में गिरावट का एक महत्वपूर्ण कारण बेरोकटोक उत्तीर्ण करने का उल्लेख तक नहीं करता। बल्कि इस गिरावट के लिए शिक्षा में आधुनिक तकनीकि का उपयोग न करने को जिम्मेदार ठहराता है। सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूल इस बेरोकटोक उत्तीर्ण करने की नीति के सबसे ज्यादा शिकार हुए है। क्योंकि ये स्कूल पहले से ही शिक्षको ंकी भारी कमी, स्कूल भवन व न्यूनतम आवश्यकताओं की कमी से जूझ रहे हैं । इनकी हालत इतनी दयनीय हो चुकी है कि तमाम अभिभावकों का विश्वास इन पर से उठने लगा है। अभिभावक महंगे निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए बाध्य है। जहां कम से कम परीक्षा प्रणाली बरकरार है। जो अभिभावक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में नहीं भेज सकते वे ही सरकारी स्कूलों में भेज रहे है। जहाँ पर उनके बच्चे कुछ सीखे या न सीखे उन्हें अगली कक्षा में भेज दिया जाता है। यह स्वाभाविक है कि इन बच्चों को उच्च शिक्षा की किसी भी परीक्षा को पास करना मुश्किल होता है। फलस्वरूप शैक्षणिक योग्यता के अभाव के साथ-साथ गरीबी के चलते ऐसे बच्चे मजबूरन स्कूल छोड़ने को बाध्य होते हैं ।
इसके अलावा शिक्षा अधिकार कानून 2009 के तहत 25 प्रतिशत सरकारी स्कूलों के बच्चों को निजी स्कूलों में प्रवेश दिया जा रहा है जिससे सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या दिनों दिन घटती जा रही है। निजी स्कूलों की तरफ गरीब परिवारों तक के बच्चों का पलायन जारी है। पिछले वर्षों में म.प्र. सरकार ने 40 हजार के लगभग सरकारी स्कूलों को अपनी क्लोजर व मर्जर की नीति के तहत बंद कर दिया। मोदी सरकार की इस शिक्षा नीति का प्रारूप सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता को हासिल करने, छात्रों के ड्राप आउट को रोकने, सरकारी स्कूलों  में छात्रों की संख्या बनाये रखने के वास्तविक कारणों का निराकरण तो दूर बल्कि निजी स्कूलों को बढ़ावा देना, यहाँ तक कि पी.पी.पी. (प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप) के तहत सरकारी स्कूलों को निजी क्षेत्र में सौंपने, स्कूल, काम्पलक्स की कागजी, अव्यवहारिक योजना लेकर आई है। जबकि प्रारूप स्वयं स्वीकार करते हए लिखता है-‘‘वर्तमान नियामक सत्ता एक तरफ जहाँ मुनाफा के लिए खोले गए अधिकतर निजी स्कूलों द्वारा बड़े पैमाने पर हो रहे शिक्षा के व्यापारीकरण और अभिभावकों के आर्थिक शोषण पर अंकुश लगाने पर सक्षम नहीं हुआ है
’’(प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 245)।
शिक्षा का यह प्रारूप शिक्षा सुधारों के नाम से स्कूल शिक्षा को और गर्त में ढकेलने पर आमादा है। अब स्कूलों में भी कक्षा 9 से 12 के बीच सेमेस्टर पद्धति लागू की जाएगी। जबकि इस पद्धत्ति का उच्च शिक्षा में लागू करते समय पूरे देश में तीव्र विरोध हुआ था, क्योंकि इस पद्धत्ति से शिक्षा का व्यय बढ़ता है साथ ही विषयवस्तु की समग्रता व संपूर्णता भी विखण्डित होती है, छात्र की स्मरण क्षमता में भी गिरावट आती है और वह शैक्षणिक परिवेश के अलावा सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों में भी हिस्सा नहीं ले पाता। स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता पर इस प्रारूप में एक और आक्रमण करते हुए बोर्ड परीक्षाओं के स्तर को गिराकर मटियामेट कर दिया है। शिक्षा का प्रारूप कहता है ‘‘परीक्षा व्यवस्था को अधिक लचीला बनाने के लिए इसे मौडियूल बोर्ड परीक्षा एप्रोच से बदला जाएगा। इस एप्रोच के अंतर्गत प्रत्येक सेमेस्टर में विषयों की एक रेंज में बोर्ड परीक्षाएं आयोजित की जाएंगी। इसके चलते अब विद्यार्थी अपने हर सेमेस्टर में केवल किसी एक विषय में भी बोर्ड परीक्षा दे पाएंगे ’’(प्रारूप नई शिक्षा नीति, पेज नं. 150)। ‘‘जब भी बच्चे अपने को सबसे ज्यादा तैयार पाएं तब ही वे परीक्षा दें …बच्चे जिस सेमेस्टर में अपने को तैयार पाते हैं उसमें परीक्षा दे सकं। उस विषय विशेष की ही दें जिसमें
वे तैयार हैं।’’ (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 147)। प्रारूप के उपरोक्त कथन से स्पष्ट है कि छात्र को विषयवार या निर्धारित समयानुसार किसी भी अनुशासन का पालन नहीं करना है। परीक्षा कब देना है, यह तक भी छात्र की मर्जी पर छोड़ दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि इस तरह की बोर्ड परीक्षा बिल्कुल निर्थक साबित होगी और शिक्षा की गुणवत्ता में अत्याधिक गिरावट लाएगी।
इसके साथ ही यह प्रारूपप्रमुख पाठ्यक्रम, सहपाठ्यक्रम और अतिरिक्त पाठ्यक्रम के बीच के अंतर को भी समाप्त कर देना चाहता है। अब संगीत, नाटक, हाथ का काम, योगा, इत्यादि सभी को प्रमुख पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।
यहाँ तक कि लिबरल एजुकेशन की अवधारणा के चलते आर्ट और साइंस के बीच का अंतर उच्च शिक्षा हासिल करने के दौरान समाप्त कर दिया जाएगा। अपने देश व दुनिया के शिक्षाविदों, शिक्षाप्रेमियों व शिक्षकों के वर्षों के अनुभवों और अभ्यास से हासिल वर्तमान में प्रचलित शिक्षा पद्धति  की बुनियादी नींव में इस तरह से तोड़ मरोड़ करना निश्चित तौर पर समाज के बौद्धिक विकास के लिए एक खतरे की घंटी है।
मोदी सरकार की इस नई शिक्षा नीति का प्रारूप सामान्य अकादमिक शिक्षा में संलग्न 50 प्रतिशत छात्रों को रोजगारन्मुखी शिक्षा की तरफ वर्ष 2025 तक ले जाना चाहती है। देश में पहले से ही आई.टी.आई., पॉलीटेक्निक, इंजीनियरिंग संस्थाओं की भरमार है। इन संस्थाओं से हजारों छात्र डिग्री व डिप्लोमा लिए बेरोजगारी की चपेट में इधर उधर घूम रहे हैं । इस नीति के निर्माता मार्केट वैल्यू, नौकरी की संभावना, तकीनीकी कौशल की जरूरत आदि का हवाला देकर भौतिकी, गणित, दर्शन, भाषा, साहित्य जैसे बेहतर मनुष्य बनाने वाले विषयों से अधिकतर छात्रों को वंचित करना चाहते हैं । देश में आम नागरिकों का अनुभव बतलाता है कि इन व्यवसायिक पाठ्यक्रमों से शिक्षित अधिकांश छात्र रोजगार तो हासिल नहीं कर सके लेकिन वे तार्किक, बौद्धिक व सांस्कृतिक विकास करने वाले दर्शन व भाषा जैसे विषयों से जरूर वंचित हो गए। क्योंकि आज आम छात्र भी इस सच को जानता है कि रोजगारन्मुखी शिक्षा से किसी हद तक रोजगार करने की योग्यता तो हासिल हो सकती है लेकिन अवसर नहीं। अवसर तभी मिल सकता है जब उसके मुताबिक देश में आर्थिक नीतियां क्रियान्वियत की जाएं। लेकिन वास्तविकता यह है कि आज के सत्ताधारी देश के मरणासन्न पूंजीवाद के हित में, विनिवेश के नाम पर सार्वजनिक क्षेत्रों का निजीकरण कर रोजगार विरोधी नीतियां अपना रहे हैं । बेरोजगार युवकों को सामाजिक चेतना के रास्ते से हटाकर स्वरोजगार व कौशल विकास जैसी मृगमरीचिका से भरी शब्दाबली के चंगुल में फंसाये रखना चाहते हैं ताकि वे उनकी सत्ता की कुर्सी के लिए  भविष्य में चुनौती न बनें, इसलिए हम देख रहे हैं कि मोदी सरकार के इस शिक्षा प्रारूप में कहा गया है कि ऐलीमेन्ट्री और सेकेन्ड्री शिक्षा में सुनिश्चित किया जाएगा कि अकादमिक और व्यवसायिक स्ट्रीम्स के बीच कोई बड़ा विभाजन न हो। सभी विद्यार्थी व्यवसायिक कोर्स जैसे कृषि इलेक्ट्रानिक्स, स्थानीय व्यापार और हस्तशिल्प आदि का अध्ययन करेंगे जो कि उनके औपचारिक शिक्षाक्रम का हिस्सा होंगे (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 105)।
आगे प्रारूप कहता है कि हमारा देश ठीक ढंग से चले इसके लिए भी व्यवसायिक शिक्षा बेहद महत्वपूर्ण है …महत्वपूर्ण जीवन कौशल और विभिन्न आजीविका साधनों जैसे बागवानी, मिटटी के बर्तन बनाना, लकड़ी का काम, बिजली का काम सिखाया जाएगा ताकि वे हाई स्कूल पूरा करने से पहले विभिन्न तरह के आजीविका के साधनों में रूचि लेने लगे (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेजनं. 129)। मनुष्य को बेहतर सामाजिक जीवन जीने के लिए मानवीय और नैतिक मूल्यों की कितनी आवश्यकता है, इसके महत्व को दर्शाने के लिए महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइँस्टीन कहते हैं -‘‘हमारा समय वैज्ञानिक ज्ञान के क्षेत्र में आश्चर्यजनक उपलब्धियों और उनके तकनीकी उपयोग से जाना जाता है। इससे कौन खुश नहीं होगा ? लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि केवल जानकारी और हुनर मानवता को सुखी और गौरवशाली जीवन की ओर अग्रसर नहीं कर सकती। मानवजाति के पास उच्च नैतिक मापदण्ड के दावेदारों और मानवीय मूल्यबोधों को वस्तुनिष्ट सत्य की चर्चाओं  से ऊपर रखने का
हर वाजिब कारण है।’’
शिक्षा का यह प्रारूप अंग्रेजी भाषा की भूमिका जनतांत्रिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने में असमर्थ है। अंग्रेजी भाषा ने जिस तरह दुनिया में और हमारे देश में भी विभिन्न भाषाओं को संयोजित कर उनमें से निहित ज्ञान भंडार को आगे बढ़ाने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है और आज भी निभा रही है। दुनिया के प्राकृतिक, जैविक व सामाजिक विज्ञानों के विभिन्न विषयों में हो रहे शोध व अनुसंधानों को अभिव्यक्त करने और अपने देश सहित पूरी दुनिया में सम्प्रेषित करने में महत्वपूर्ण योगदान कर रही है।
आधुनिक ज्ञान विज्ञान व तकनीकी की अभिव्यक्ति व सम्प्रेषण में सक्षम साबित हो रही है। यहां तक कि हमारे देश में आजादी आंदोलन के दौरान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को जनतांत्रिक अवधारणा को समझने व ब्रिटिश उपनिवेषवाद के खिलाफ लड़ाई तेज करने में अंग्रेजी भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है।
शिक्षा का यह प्रारूप इन सबको स्वीकार नहीं करता। बल्कि इसके ठीक विपरीत कहता है कि ‘‘यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि भारतीय स्कूलों और समाज में अंग्रेजी के प्रति शिक्षा के माध्यम के रूप में और बोलचाल की भाषा के रूप में इतना आकर्षण और आग्रह है। तार्किक दृष्टि से देखें तो अंग्रेजी अन्य भाषाओं में विचार अभिव्यक्ति के लिए कोई बेहतर भाषा हो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है ………. भारत की आजादी के बाद से आर्थिक रूप से आगे अभिजात वर्ग के लोगों ने अंग्रेजी को अपना लिया।’’ (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 109)। भाषा कोई भी हो उसे समान व सम्मान की नजर से देखा जाना चाहिए।
क्योंकि  एक भाषा दूसरी भाषा के विकास में मदद करती है और साथ ही धरती की उस भूभाग की मानव जाति द्वारा अर्जित ज्ञान भंडार को विचारों के माध्यम से आगे बढ़ाती है। लेकिन एक भाषा बोलने वालों पर दूसरी भाषा जोर जबरजस्ती व कानून की ताकत से थोपी नहीं जानी चाहिए, जैसे कि मोदी सरकार के इस शिक्षा प्रारूप में हिन्दी भाषा को गैर हिन्दी भाषी लोगों के लिए अनिवार्य घोषित किया गया है।
देश के गैर हिन्दी भाषी लोग जब तक हिन्दी भाषा की जरूरत व महत्व को स्वयं नहीं स्वीकारते तब तक इसकी अनिवार्यता को उनके ऊपर थोपा नहीं जाना चाहिए। मोदी सरकार का इस शिक्षा प्रारूप का यह कदम निंदनीय है।
शिक्षा का यह प्रारूप तीन साल की अभी चल रही प्रचलित डिग्री को अब चार साल की करने का प्रस्ताव रखता है और उसे बी.ए., बी.एस.सी., के स्थान पर बी.एल.ए, (बैचलर ऑफ लिबरलआर्टस) व बी.एल.एस.सी. (बैचलर ऑफ लिबरल साइंस) प्रस्तावित करता है। प्रारूप लिवरल एजुकेशन के मायने प्रस्तावित करता है कि आर्ट्स का छात्र साइंस के विषय लेने में लिबरल (उदार) हो सकता है और साइंस का छात्र आर्ट्स के विषय। प्रारूप का इस तरह का प्रस्ताव अव्यवहारिक, अराजक व निरर्थक है जो शैक्षणिक अनुशासन को बर्बादी की तरफ ढकेल देगा। क्योंकि भौतिकी, रसायन, गणित
एवं इतिहास दर्शन, साहित्य इत्यादि सभी का अध्ययन क्रमबद्ध कक्षावार, सिलसिलेवार, सरल से जटिल की ओर है। यदि लिबरल एजुकेशन इस अनुशासन का पालन नहीं करता तो इस तरह का अध्यापन अराजकता को जन्म देगा। तीन साल के डिग्री कोर्स को चार साल कर देने का इस शिक्षा नीति का यह प्रस्ताव भारत की उच्च शिक्षा को वैश्विक बाजार का बिकाऊ माल बना देगा। शिक्षा के इस माडल का यूरोप व अमेरिका में भी विरोध हो रहा है और जो पढ़ाई तीन साल में पूरी हो सकती है उसके लिए अलग से पाठ्यक्रम लाकर एक साल और क्यों बढ़ाया जा रहा है।
शिक्षा के इस प्रारूप में प्रस्तावित किया गया है कि ‘‘डिग्री प्रदान करने का अधिकार वर्तमान में केवल विश्वविद्यालयों में निहित है, अब यह बदल जाएगा क्योंकि सभी कॉलेजों को भी अपनी डिग्री देने की स्वायत्ता प्राप्त होगी (प्रारूप नई षिक्षा नीति पेज नं. 303)। सभी उच्च शैक्षणिक
संस्थायें धीरे-धीरे पूर्णस्वायत्तता की ओर बढ़ेंगे शैक्षणिक प्रशासनिक और अंततः वित्तीय (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 294)। नई शिक्षा नीति के इस प्रस्ताव से एक तरफ तो उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आएगी तो दूसरी तरफ तथा कथित स्वायत्तता कॉलेज शुल्कबृद्धि और व्यापारीकरण के परिणाम स्वरूप केवल डिग्रियां बेचने की दुकानों में तब्दील हो जाएगा ।शैक्षणिक स्वायत्तता का जो असल मायने है कि एक जन कल्याणकारी सरकार किसी शिक्षण संस्थान के संचालन के लिए आवश्यक आर्थिक व प्रशासनिक पूरा दायित्व स्वयं अपने हाथ में ले और अध्यापन से संबंधित विषयवस्तु व पाठ्यक्रम शिक्षा प्रेमी जनसमुदाय व शिक्षकों की चयनित स्वायत्त समितियों द्वारा निर्धारित किया जाए। मोदी सरकार की इस शिक्षा नीति की मंसा इस धारणा के ठीक विपरीत है। वह विषयवस्तु व पाठ्यक्रम के निर्धारण को अपने हाथ में लेना चाहती है और शिक्षण संस्थान का आर्थिक दायित्व तथाकथित स्वायत्तता के नाम से
छात्रों व अभिभावकों पर थोपना चाहती है। स्पष्ट है कि ये संस्थायें इसकी भरपाई अभिभावकों और छात्रों से करेंगी और उच्च शिक्षा में बेतहासा फीस बृद्धि होगी। इस शिक्षा नीति द्वारा यू.जी.सी. एवं ऐसे कुछ अन्य संस्थान के स्थान पर संपूर्ण शिक्षा प्रणाली को नियंत्रित करने के लिए एक राष्ट्रीय नियामक निकाय के गठन का प्रस्ताव किया गया है। जिसकी अध्यक्षता स्वयं प्रधानमंत्री करेंगे। फलस्वरूप स्वाभाविक है कि संस्थाओं की स्वायत्तता खतरे में पड़ेगी।
शिक्षा का यह प्रारूप आयुष चिकित्सा पद्धत्ति को चिकित्सा शिक्षा की मुख्य धारा में लाना
चाहता है। जबकि यह पद्धत्ति जैविक विज्ञान की आधुनिक खोजों व अनुसंधानों पर आधारित नहीं है।
यह प्रारूप ब्रिजकोर्स के माध्यम से बी.डी.एस. व नर्सिंग पाठ्यक्रमों को भी एम.बी.बी.एस. की बराबरी पर लाना चाहता है। इससे एम.बी.बी.एस. की गुणवत्ता में गिरावट आएगी। इसी तरह से एम.बी.बी.एस.डॉक्टरों के स्थान पर ग्रामीण अंचलों में आयुष डाक्टरों की नियुक्तियों
को प्रस्तावित करने से स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर गिरना स्वाभाविक है।
आजादी के आंदोलन व भारतीय नवजागरण के दौरान देश में धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक व जनवादी शिक्षा की आवाज बुलंद की गई थी। राजा राममोहन राय,ईश्वरचंद विद्या सागर, प्रेमचंद, शरतचंद जैसे चरित्रों ने इस अवधारणा को प्रस्तुत किया था कि धर्म किसी भी व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है। सरकार और शिक्षा प्रणाली को इससे दूर रखा जाना चाहिए। लेकिन आजादी के उपरांत देश की किसी भी सत्ताधारी पार्टी ने इस पर अमल नहीं किया। बल्कि इसके ठीक विपरीत धर्मनिरपेक्षता का मायने सभी धर्मों को समान रूप से प्रोत्साहित करने के रूप में परिभाषित किया गया। समाज में दिनों दिन गिर रहे मानवीय मूल्यों के कारण के तौर पर तथाकथित धार्मिक मूल्यों की कमी को जनता के सामने रखा गया। आज बी.जे.पी., आर.एस.एस. की मोदी सरकार ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए अपनी शिक्षा नीति के प्रस्ताव में सभी धर्मों के अंध विश्वासों व परंपराओं को खुले रूप से प्रोत्साहित करने को प्रस्तावित किया है। प्रारूप कहता है कि ‘‘हिन्दू मठ एवं आश्रम, क्रिश्चियन मिशनरी संस्थान, इस्लामिक ट्रस्ट, बौद्ध व जैन समुदाय, गुरूद्वारा इत्यादि ने देश के इतिहास में अनेकों शैक्षिक प्रयासों को आगेबढ़ाने में मदद की है। जिसकी सराहना की जानी चाहिए और ऐसी भागीदारी प्रयासों को और मजबूत किया जाना चाहिए।’’ (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 580)।
जबकि विवेकानंद जैसे धार्मिक पुनरुत्थानवादी, राष्ट्रवादी व्यक्तित्व तक ने अपने भाषण में कहा है कि ‘‘धर्म का काम सामाजिक नियमों का निर्माण करना नहीं है … सामाजिक नियम आर्थिक परिस्थतियों से पैदा हुए हैं ……धर्म की यह भयानक भूल थी कि उसने सामाजिक मामलों में  हस्तक्षेप किया’’।
इसी तरह से ईश्वरचंद विद्यासागर कहते हैं-‘‘कुछ विशेष कारणों से जिसका उल्लेख यहाँ आवश्यक नहीं है, हम लोग संस्कृत महाविद्यालय में वेदांत और सांख्य की शिक्षा को जारी रखने के लिए बाध्य हैं । यह विषय अब और विवादास्पद नहीं रहा कि शांख्य और वेदांत दर्शन शास्त्र की गलत पद्धति है। आज देश में कार्पोरेट घरानों की विश्वसनीय पार्टी भाजपा सत्ता में दोवारा आते ही अंधराष्ट्रप्रेम और अतार्किक कट्टरतावादी चिंतन को अपनी शिक्षा नीति के माध्यम से बढ़ाने में जी जान से जुट गई है। जिससे वह पूजीपतियों की कृपा पात्र बनकर सत्ता में बनी रहे। वह धार्मिक उन्माद फैलाकर फटू डालो और राज करो की अजमाई हुई अंग्रेजी नीति के द्वारा देश की जनता का ध्यान बेरोजगारी जैसे असली मुद्दों से हटाना चाहती है। पूंजीपति वर्ग हमेशा विज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित सही ज्ञान से डरता है कि कहीं उनकी लूट का सही कारण जनता को पता न चल जाए। इसलिए ये वैज्ञानिक सोच की आधारशिला को तोड़ने में जुटे रहते हैं । विज्ञान पर आधारित ज्ञान किसी देश की भौगोलिक व राजनैतिक सीमाओं से बंधा नहीं रहता। वह पूरी दुनिया की मनुष्यजाति के सामूहिक संघर्ष की उपज होता है। लेकिन यह शिक्षा नीति जिस तरह से केवल तथाकथित भारतीयता पर जोर देती है, इससे देश में अंध राष्ट्रवाद व सम्प्रदायिक उन्माद ही बढ़ेगा ।
शिक्षा के इस प्रारूप में छात्रों और शिक्षकों व शैक्षणिक संस्थानों में कार्यरत कर्मचारियों द्वारा उनके अध्ययन व अध्यापन व सेवाओं के दौरान भोगी जा रही समस्याओं के निराकरण को लेकर संगठन बनाने, संगठित व सामूहिक रूप से अपने नेतृत्व को चुनने के बारे में एक भी लाइन का उल्लेख नहीं किया गया, जबकि इस प्रारूप को तैयार करने के दौरान मोदी सरकार ने अपने संघ परिवार के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ए.बी.वी.पी.) से संपर्क सादा है। इसी तरह से ड्राप आउट छात्रों को पुनः स्कूलों से जोड़ने के लिए स्कूल काम्पलेक्स में सामाजिक कार्यकर्ताओं की नियुक्ति को प्रस्तावित किया गया है। प्रारूप लिखता है ‘‘स्कूल काम्पलेक्सिस में नियुक्त सामाजिक कार्यकर्ता ऐसे बच्चों और उनके अभिभावकों से सक्रिय रूप से मिलेंगे और समझेंगे कि बच्चे स्कूल क्यों नहीं आ रहे हैं, नामांकित क्यों नहीं हो रहे हैं…. इसके उपरांत नामांकन सुनिश्चित करने में मदद करेगें (प्रारूप नई शिक्षा नीति पेज नं. 580)।’’ यदि किसी युवक की स्कूल कम्प्लेक्स में नियुक्ति होती है तो वह वेतनभोगी ही होगा सामाजिक कार्यकर्ता कैसे? सामाजिक कार्यकर्ता तो अवैतनिक स्वयं की चेतना से प्रेरित होकर काम करते हैं । इस तरह का वेतन भोगी व्यक्ति संघ परिवार की विचारधारा को फैलाने का काम तो कर सकता है लेकिन ड्राप आउट छात्रों को पुनः स्कूलों में जोड़ने में कामयाब नहीं हो सकता क्योंकि ड्राप आउट के वास्तिवक कारकों के निराकरण में असमर्थ होगा। जहाँ तक छात्रों व शिक्षकों की समस्याओं के निराकरण, उनके संगठन बनाने के जनतांत्रिक अधिकारों का सवाल है, इस पर प्रारूप चुपहै। छात्रों में सामाजिक व राजनैतिक चेतना के विकास को लेकर आजादी आंदोलन के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चिंतित थे। उन्होनें छात्रों को राजनीति में शामिल होने का आवहान किया था। इस संदर्भ में लाला लाजपतराय कहते हैं-मैं उन लोगों में से नहीं हू जो यह विश्वास करते हैं कि छात्रों और विशेषकर विश्वविद्यालय  के छात्रों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए। मैं सोचता हू कि यह बहुत ही वाहियात सिद्धांत है। यह केवल भ्रमित दिमाग की ही नहीं वल्कि एक बेईमान दिमाग की उपज है। इन सब विश्लेषणो से स्पष्ट है कि मोदी सरकार की इस नई शिक्षा नीति का प्रारूप सत्ताधारियों की इसके पहले की शिक्षा नीतियों की तरह एक कदम आगे बढ़ते हुए आम जनता को खास तौर से उच्च शिक्षा से बाहर कर देगी ताकि बेरोजगार शिक्षित युवकों की संख्या को नियंत्रित किया जा सके। शैक्षणिक गुणवत्ता में गिरावट की गति को तेज कर देगी। शिक्षा के जनतांत्रिक स्वरूप के खिलाफ व्यापारीकरण के लिए बड़ा दरवाजा खोल देगी। रोजगारन्मुखी शिक्षा के नाम पर मनुष्य का सर्वांगीण विकास करने यानी कि बेहतर ज्ञानवान मनुष्य बनाने की शिक्षा के उद्देश्य से दूर हटेगी। सभी धर्मों की धर्मान्धता, अंधविश्वासों को बढ़ावा देकर विज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आम जनता को वंचित करेगी। केन्द्रीय स्तर पर कार्यरत शैक्षणिक संस्थाओं को समाप्त कर या उनके जनतांत्रिक अधिकारों में कटौती कर स्वयं प्रधानमंत्री का केन्द्रीय सत्ता पर नियंत्रण बढ़ाएगी। फलस्वरूप देश में फासीवादी संस्कृति को फलने फूलने की जमीन तैयार होगी।
देश की इस विकट स्थिति में शिक्षाविदों, शिक्षाप्रेमी जनसमुदाय, शिक्षकों, छात्रों, युवकों एवं आम जनसामान्य को कमर कसने की जरूरत है और सड़कों पर उतरते हुए शिक्षा बचाओं आंदोलन तेज करने की आज के समय की पुकार है।
(फीचर्ड इमेज गूगल से साभार ।)

Related posts

1 comment

Comments are closed.

Fearlessly expressing peoples opinion