समकालीन जनमत
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राजनीति बदलेगी तो मीडिया बदलेगा वरना वह और दुर्दांत हो जायेगा

* प्रमुख क्या है कर्म या भाग्य !

* उत्तम क्या है खेती या नौकरी !

* असल क्या है प्रेम या वासना !

* लोकतंत्र क्या है जनकल्याण या बाजार !

* साहित्य समाज का दर्पण है ?

* पत्रकारिता (मीडिया) क्या है मिशन या धंधा !

ये किसी न किसी मीडिया के जरिए हम तक पहुंचे कुछ द्वंद है जो भारतीय चेतना पर एक जमाने से छाए हुए हैं. बल्कि कहना चाहिए कि इसमें सामान्य जन को जतन से उलझाया गया है. इन उलझनों की सूची काफी लंबी हो सकती है लेकिन नमूने के लिए इतना काफी है. अगर विचार के इस तरीके से हासिल व्यर्थता को महसूस करके कोई अराजक तरीके से इन लाइनों को तोड़फोड़ दे तो कुछ ऐसी सूरत बनेगी- भाग्य की प्रतीक्षा ही प्रमुख कर्म है, नौकरी ही सबसे बड़ी खेती है, वासना के बिना प्रेम संभव नहीं है, लोकतंत्र जनकल्याण का बाजार है, साहित्य का दर्पण असामाजिक है और धंधा ही पत्रकारिता या मीडिया का एकमात्र मिशन है.

आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि तोड़फोड़ से ज्यादा साफ तस्वीर सामने आ रही है क्योंकि इन प्रश्नों को लोगों के सामने दिखाऊ नैतिकता में लपेटकर कपटपूर्ण ढंग से रखा गया था. कहने का आशय यह है कि इस उलझे हुए समय में सनातन लगते प्रश्नों पर नए ढंग से सोचने की जरूरत है वरना चिंतन किसी आत्मिक सुख देने वाले कर्मकांड में बदल जाता है और यथार्थ में उपयोग लायक कोई नतीजा नहीं निकलता.

इस लेख का विषय सिर्फ मीडिया है.

कुछ उलटबांसियां

* जब निरक्षर लोग बहुमत में थे तब अखबार में छपे शब्दों को सत्य का प्रमाण माना जाता था. उसी दौर की याद में विश्वसनीयता का रोना रोते हुए पुराने पत्रकार बताते हैं कि तब सिंगल कॉलम खबर छपने पर कलेक्टर अखबार के दफ्तर के तेरह चक्कर लगाता था लेकिन अब पूरे पेज पर घूसखोरी का सचित्र व्यौरा छपने पर एक मामूली सिपाही भी नोटिस नहीं लेता.

* पहले इलेक्ट्रानिक फिर इंटरनेट आने के बाद डिजिटल के साथ संचार माध्यमों की संख्या और दक्षता तो बढ़ी लेकिन भ्रम भी बढ़ता जा रहा है. मीडियम सुगम होने के साथ मैसेज बदतर हुआ है. आज किसी खबर, फोटो या वीडियो की सत्यता पर एकबारगी यकीन नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके कई परस्पर विरोधी वर्जन एक साथ सामने आ रहे हैं.

* मौखिक से अधिक विश्वसनीय छपे शब्द थे. छापाखाने से अधिक विश्वसनीयता का दावा करते हुए इलेक्ट्रानिक मीडिया आया जिसमें घटनाओं, व्यक्तियों, स्थानों को फिल्म की तरह सजीव दिखाया जाने लगा. लेकिन ऐसा कैसे हुआ कि भुखमरी, गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, संस्थाओं का खात्मा, प्राकृतिक आपदाओं जैसे वास्तविक मसलों से अधिक महत्वपूर्ण भूत-प्रेत, अंधविश्वास, धर्मिक कर्मकांड का नाटकीय प्रस्तुतिकरण और झूठे नायकों का निर्माण हो गया. न्यूज एंकर सांडे का तेल या तथाकथित स्टोरी बेचने वाला मदारी हो गया.

* इलेक्ट्रानिक चैनलों पर सामान्य जन से अधिक जानकारी रखने वाले जो एक्सपर्ट किसी मसले पर अपनी राय देने के लिए बुलाए जाते हैं वे एक दूसरे को सुनकर प्रश्नों का जवाब देने के बजाय कुकुर झौंझौं से भी आगे जाकर गाली गलौज और मारपीट क्यों करने लगे हैं. मीडिया उन्हें ऐसा करने के लिए लगातार प्रोत्साहित क्यों कर रहा है.

* मीडिया पर कोई भी बहस पत्रकारों की दलाली, ब्लैकमेलिंग और अंततः पतन पर ही शुरू और खत्म क्यों कर दी जाती है. क्यों नहीं उन मीडिया मालिकों या उद्योगपतियों पर बात की जाती है जिनके करोड़ों-अरबों रुपए इस उद्योग में लगे हुए हैं और पत्रकार उसकी नीतियों को अमली जामा पहनाने वाले अल्पवेतनभोगी कर्मचारी भर होते हैं.

इन उलटबांसियों का कारण समझने का एक आसान तरीका यह है कि अपने दिमाग से यह फितूर निकाल दिया जाए कि भारतीय लोकतंत्र में कभी कोई चौथाखंभा नाम की कोई चीज रही है. यूरोप से उधार लिये गये इस शब्दजाल का इस्तेमाल सरकारें प्रेस को पुचकारने के लिए और खुद प्रेस अपने इर्द-गिर्द एक झूठा आभामंडल रचने के लिए करता रहा है. इसका निर्णायक परीक्षण इमरजेंसी के दौरान हो चुका है जब एक अपवाद को छोड़कर सभी मीडिया हाउस सांष्टांग दंडवत की मुद्रा में सरकार के आगे लेटे पाए गए.

ये जरूर है कि आजादी के आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों के प्रचारतंत्र के रूप में प्रेस ने बर्तानिया हुकूमत के खिलाफ साम्राज्यविरोधी भूमिका निभायी थी. इससे पहले नवजागरण काल में समाजसुधारकों के प्रयासों से धर्म के विभेदकारी स्वरूप, कुरीतियों और दमनकारी प्रथाओं का विरोध करने वाले कुछ प्रकाशन सामने आए लेकिन यह परंपरा आजादी मिलने के साथ ही अचानक खत्म हो गई.

उसके बाद प्रेस का विकास निरतंर सब्सिडी, अनुदान और विज्ञापन के लिए सरकारों और व्यापारियों पर आश्रित व्यवसाय के रूप में हुआ. नेहरू युग में मीडिया की लुंजपुंज हालत पर दया दिखाते हुए सरकार ने उसे स्वतंत्र, निष्पक्ष और मुखर आलोचक बनने की जितनी नसीहतें दीं वह दुनिया के इतिहास में विरल चीज है. जिस सरकार को मीडिया से घबराना चाहिए था वह उसे मूल्यपरक औऱ ताकतवर बनने के लिए नसीहत और संसाधन दे रही थी, इससे चौथे खंभे की असलियत का अंदाजा लगाया जा सकता है.

कांग्रेस राज के पतन के सालों में मीडिया ने जनता के मुद्दों को उठाने की जहमत तो उठाई लेकिन इसके पीछे नई उभरती राजनीतिक-सामाजिक शक्तियों की कामयाबी को अपने पक्ष में भुनाने का अवसरवाद भी शामिल था वरना दूसरों पर उंगली उठाने के लिए अधिकृत मीडिया कुछ खुद को भी बदलता. मीडिया के भीतर पत्रकारों और अन्य कर्मचारियों का जबरदस्त शोषण, कार्यसंस्कृति में जातिवाद और धार्मिक पूर्वाग्रह और मुनाफे के लिए सिद्धांतों का रबड़ की तरह मनमाना इस्तेमाल करने की पुरानी आदत ने कभी उसमें यह आत्मविश्वास आने ही नहीं दिया कि वह सरकारों की सचमुच आलोचना कर सके. कानून की दुहाई देता मीडिया खुद इतने गैरकानूनी कामों में लिप्त रहा कि उसे हमेशा चोर दरवाजे से सरकारों की अनुकंपा की जरूरत रही है.

नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद सिर्फ दो खंभे बचे एक सरकार और दूसरा कारपोरेट जो एक दूसरे के मददगार हैं. कारपोरेट बनने के बाद मीडिया के प्रभाव और मुनाफे का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है जिसे एक किस्से से समझा जा सकता है.

लोहिया के नाती

2006 में यूपी में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी. सोशलिस्टों की लाल टोपी विधानसभा, सचिवालय समेत सत्ता के हर गलियारे में घुसने का पास बन गई थी. ऐसे में लोहिया के पांच नाती प्रकट हुए जो लाल रंग का कुर्ता-पाजामा और टोपी डाटे, धरती-पुत्र मुलायम सिंह यादव जिन्दाबाद का नारा लगाते हुए एक ‘प्रेस’ की तख्ती लगी जीप पर लखनऊ की सड़कों पर अक्सर घूमते दिखाई देते थे. एक दिन ट्रैफिक पुलिस के एक सिपाही ने पूछताछ की गरज से रुकने के लिए हाथ दिया तो उन्होंने उसके ऊपर जीप चढ़ानी चाही. घबराया सिपाही कूद कर जीप के बोनट पर लटक गया. उन्होंने मदद के लिए चिल्लाते सिपाही को लटकाए हुए पूरे शहर का चक्कर लगाया. हल्ला मच गया.

अंततः गाड़ी रूकी तो पुलिस ने पूछताछ की, पता चला कि उनका समाजवादी पार्टी से कोई लेना देना नहीं है. पुलिस ने उन्हें झाड़ा पोंछा तो पता चला कि कानपुर के पास कहीं ईंट भट्ठा चलाते हैं लेकिन चिमनी से धुंआ पत्रकारिता का निकलता है. पत्रकार का बाना इसलिए बनाए रहते हैं ताकि कोई मनमानी करने से रोके तो गाड़ी पर लिखा प्रेस दिखाकर बोलती बंद कर दें और फालतू पूछ-ताछ से बचे रहें.

ये बानगी इसलिये कि ज्यादातर बड़े मीडिया हाउसों के मालिक अब लोहिया के रंग-बिरंगे नातियों में बदल गए हैं. उनके जीप के बोनट से सिपाही की जगह जो चीज असहाय लटक रही है, वह पत्रकारिता है. जिस रंग की भी सरकार आए वे उसी रंग का सूट पहन कर धंधा करने लगते हैं. वे खुद को गणेश शंकर विद्यार्थी का वारिस बताते हुए सांप्रदायिक उन्माद भड़का सकते हैं, पराड़कर की कसम खाते हुए पेड न्यूज चला सकते हैं, देश को जागरूक बनाने की धुन बजाते हुए भूत-प्रेत-अंधविश्वास फैला सकते हैं.

उनके आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचे तो अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले का राग अलापने लगते हैं, वरना पत्रकारों की हत्याएं होती रहती हैं, उन्हें नौकरियों से निकाला जाता रहता है, उनके काम करने की परिस्थितियां बद से बदतर होती जाती हैं लेकिन प्रेस काउंसिल आफ इंडिया, एडिटर्स गिल्ड और तमाम पत्रकारिता की हिफाजत के लिए बनी संस्थाओं के कानों पर जूं नहीं रेंगती. कारण यह है कि इन संस्थाओं के पास कोई अधिकार नहीं है और उनमें मालिकों के ही सजावटी नुमाइंदे भरे हुए हैं. इन उद्योगपतियों में से अधिकांश या राज्यसभा में पहुंच चुके हैं या पहुंचने के लिए टिप्पस लगा रहे हैं ताकि सत्ताधारियों के निकट बैठकर धंधे की राह में बाधा बनने वाले नियम कानूनों से निपटा जा सके.

मीडिया एक विराट धंधा है उससे सामान्य परिस्थितियों में जनसरोकार और पक्षधरता की उम्मीद करना बेमानी है. फिक्की की रिपोर्ट के मुताबिक मीडिया व्यवसाय का सालाना टर्नओवर डेढ़ लाख करोड़ है. अनुमान है कि तेरह प्रतिशत सालाना बढ़ोत्तरी के हिसाब से यह 2020 में दो लाख करोड़ तक पहुंचेगा.

सस्ते मोबाइल सेट और इंटरनेट के बाद सबसे तेज रफ्तार डिजिटल मीडिया की है जिसके उपभोक्ता पचास फीसदी बढ़े हैं और विज्ञापनों की बढ़त तीस प्रतिशत के आसपास है जबकि पिछले साल तक यह महज चार प्रतिशत थी. प्रिंट मीडिया के बढ़ने की रफ्तार तीन प्रतिशत और टीवी की ग्यारह प्रतिशत के ऊपर चल रही है.

पहले मीडिया हाउसों को टीआरपी और तदुपरांत उसके आधार पर विज्ञापन पाने के लिए पाठकों, दर्शकों तक पहुंचना पड़ता था जिसके लिए उनके मुद्दे उठाना जरूरी था लेकिन अब अनर्गल को ग्लैमरस तरीके से बेचने के तरीकों पर महारत हासिल की जा चुकी है.

आत्मा है टीआरपी

समाचार चैनलों के एंकरों में मदारियों की तरह सनसनी फैलाने, बहुरूपियों की तरह भेष बदलने, भांड़ों की तरह नकल उतारने और चारणों की तरह विरुदावलियां गाने की होड़ अनायास नहीं लगी है. वे अपने शौक से नोटों में चिप, गौमूत्र में सोना और गणेश के सिर में प्लास्टिक सर्जरी का अलाप नहीं कर रहे हैं. यह उनकी नौकरी चलाने की शर्त है. अगर वे सचमुच की खबरें दिखाएंगे तो चैनल सरकार के आलोचकों में बदल जाएंगे जिससे राजस्व का नुकसान होगा.

इसलिए ऐसे प्रतिभाशाली पत्रकारों को ‘सितारा पत्रकारों’ के रूप में प्रचारित किया जा रहा है जो अपनी लंतरानियों और अनर्गल मुद्दों के जरिए दर्शकों का नाट्यशास्त्र में वर्णित सभी रसों का आस्वाद देते हुए टीवी सेट के सामने बिठाए रख सकें. ये मदारी जनता या दर्शक के सामने ऐसी चीजों को एजेंडे के रुप में सेट कर रहे हैं जिनका उनकी जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है और इस तरह उनके अराजनीतिकरण में अहम भूमिका निभा रहे हैं ताकि जाति धर्म के आसान भावनात्मक मुद्दों पर बरगला कर उनके वोटों का ध्रुवीकरण राजनीतिक पार्टियां कर सकें.

एक्सपर्टों का चुनाव और उनकी चीखपुकार गाली गलौज से भरी बहसों का आयोजन भी इस तरीके से किया जाता है कि कोई कायदे की बात न होने पाए लेकिन मनोरंजन भरपूर हो जिससे कि टीआरपी बढ़े.

‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स जर्नलिज्म’ की शुरूआत होने के साथ यह चलन आने वाले दिनों में और अधिक बढ़ने के आसार दिखाई दे रहे हैं. मनुष्यों से लगातार काम नहीं लिया जा सकता और वे मीडिया हाउसों की व्यवसायिक गाइडलाइन से इधर-उधर भी जा सकते हैं लेकिन रोबोट बिना रुके विपुल मात्रा में मनचाही खबरों का उत्पादन कर सकते हैं. चीन में गूगल की टक्कर के लोकप्रिय सर्च इंजन सोगोऊ की साझेदारी में पहले दो रोबोट न्यूज एंकर लांच किए जा चुके हैं. समाचार एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक ये चीनी और अंग्रेजी में खबरें पढ़ते हैं. इनके आने के बाद खबर पैदा करने की लागत में कमीं आएगी. जल्दी ही उपलब्ध सूचनाओं से खबरें बनाने का काम भी रोबोट शुरू करने वाले हैं.

फेक मीडिया या फेक न्यूज

कोबरा पोस्ट के स्टिंग आपरेशनों ने दो कड़ियों में सिलसिलेवार दिखाया है कि कारपोरेट बन चुके मीडिया हाउसों के मालिकों की सोच सिर्फ मुनाफा है. उन्हें विश्वसनीयता की रत्ती भर चिंता नहीं रह गई है. मीडिया अब उन लोगों के हाथ में चला गया है जिनका मकसद लोगों तक सही सूचना पहुंचाने से अधिक झूठ और भ्रम फैलाकर उनका अपने निहित स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करना है. वे पैसे लेकर सांप्रदायिक, जातीय दंगे भड़काने, अपराधियों का महिमामंडन करने, किसी की भी चरित्रहत्या करने, अफवाहों से चुनाव जिताने हराने का ठेका लेने के लिए तैयार बैठे रहते हैं. इसे ही अब पेड या फेक न्यूज कहा जाता है.

यही काम पहले मल्टीनेशनल कंपनियों के लिए उत्पादों के लिए किया जाता रहा है. हम अखबारों में कंपनियों के शोधों के हवाले से पढ़ते आए हैं कि जो चाकलेट आज दांतों में सड़न पैदा करती है, वही कल कैंसररोधी हो जाती है और परसों कामशक्तिवर्धक बन जाती है और अगले साल प्रसन्नता प्रदान करने वाला रसायन बन जाती है.

दिक्कत यह है कि मीडिया कंपनियां अब पूंजी की ताकत से इतनी शक्तिशाली हो चुकी अगर वे किसी राजनीतिक पार्टी के लिए आज झूठी खबरों के जरिए वोटों का ध्रुवीकरण करेंगी और जनमत बनाएंगी तो कल उनके सत्ता में आने पर अपने हिसाब से नीतियां बनवाएंगी और संसाधनों में अपना हिस्सा मांगेगी. ठीक वैसे ही जैसे चुनाव में भारी चंदा देने वाली कंपनियां सरकार चलाने में दखल देती हैं.

इससे बचने के लिए भाजपा जैसे राजनीतिक दलों ने आईटी सेल स्थापित कर अपना खुद का मीडिया बना लिया है जिसका काम व्हाटसैप के विशाल संगठित समूहों के जरिए धार्मिक ध्रुवीकरण करने वाली अफवाहें फैलाना है. यह नया खतरनाक मीडिया पहली बार मोबाइल का इस्तेमाल करने वाले कम जागरूक जनता के उस हिस्से तक पहुंच रहा है जहां तक अभी इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया की पहुंच नहीं है.

इन अफवाहों की काट के बहाने ही सही देर-सबेर अन्य राजनीतिक दल भी इसी रास्ते जाने वाले हैं क्योंकि यह मुख्यधारा के मीडिया के अपने पक्ष में इस्तेमाल करने के पुराने तरीकों से कहीं ज्यादा सस्ता और असरदार है. जो कहते थे कि तकनीक के इस्तेमाल के साथ पत्रकारिता बेहतर होती जाएगी, गलत साबित हुए हैं.

बल्कि कहना यह चाहिए कि तकनीक ने मीडिया के सौदागरों के इर्द-गिर्द बची हुआ पत्रकारिता का झूठा आभामंडल भी नोंच कर फेंक दिया है.

वैकल्पिक पत्रकारिता का हश्र

इन दिनों वैकल्पिक पत्रकारिता का दावा करने वाली अनेक वेबसाइटें और कम्युनिटी रेडियो जैसे उपक्रम दिखाई दे रहे हैं जो क्राउड फंडिग (अपने उपभोक्ताओं से पैसा इकट्ठा करना) से चलने का दावा करते हैं. इनमें से कई मीडिया केंद्रित हैं लेकिन वे आम पाठक या दर्शक की तरह एंकरों का मजाक उड़ाने और उनकी गलतियों को उजागर करने तक ही सीमित हैं. वे इन सबसे आगे बढ़कर पत्रकारिता के मूल चरित्र को ही तोड़ -रोड़ कर मुनाफे का व्यवसाय बना देने वाले मीडिया मालिकों की कारस्तानियों और नीतियों का खुलासा करने का जोखिम नहीं उठाना चाहते.

इससे पहले लघु पत्रिकाओं, छोटे और मझोले समाचार पत्रों से वैकल्पिक पत्रकारिता की उम्मीद पाली गई थी लेकिन उनमें से अधिकांश भी फूहड़ तरीके से वही करते पाए गए जो बड़े मीडिया हाउस पोशीदा और नफीस तरीके से करते हैं. जिन्होंने धारा के खिलाफ चलने की कोशिश की वे विज्ञापन या पूंजी के अभाव में ठप हो गए. कारोबारी से मिलने वाले विज्ञापन की अघोषित शर्तों और जनता की पत्रकारिता के बीच संतुलन बिठा पाना हमेशा से टेढ़ी खीर रहा है जिसका कोई हल आज तक नहीं निकाला जा सका है. यह अनायास नहीं है ज्यादातर समझौता न करने वाले अच्छे पत्रकार नौकरियां छोड़कर एनजीओ की तरफ भागते हैं और वहां गर्क हो जाते हैं क्योंकि एनजीओ भी देसी-विदेशी कॉरपोरेट के चंदे (सीएसआर) की शर्तों पर ही चल सकते हैं.

राजनीति बदलने की जरूरत

कारपोरेट से उम्मीद करना कि कभी उसका हृदय परिवर्तन होगा और वह मीडिया को बदलेगा बचपना होगा क्योंकि उसकी चालक शक्ति मुनाफा है. ऐसे में उम्मीद सिर्फ राजनीति से बचती है क्योंकि उसका अंतिम मकसद चाहे जो हो लेकिन वह जनता को साथ लिए बिना नहीं हो सकती है. उसे वैधता और सत्ता के लिए जरूरी समर्थन पाने के लिए जनता के पास ही जाना पड़ता है.

यह राजनीति ही है जो पूंजी और संसाधनों पर किसका अधिकार होगा यह तय करती है. हमारी राजनीति बदलेगी तो मीडिया बदलेगा वरना उसके ऐसे ही बने रहने बल्कि और दुर्दांत होने के आसार है.

 

(अनिल यादव साहित्य और पत्रकारिता में एक चर्चित नाम है। अनिल यादव एक खास तरह के कहन शैली के लिए जाने जाते हैं। अभी हल में अमर उजाला शब्द सम्मान 2018 प्रथम वर्ष के लिए कथा श्रेणी के अंतर्गत तीसरा श्रेष्ठ कृति सम्मान-छाप कथेतर वर्ग में अनिल यादव को उनकी किताब ‘सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है’ के लिए दिया गया है। उनकी दो अन्य किताबें “नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़तीं” और “वह भी कोई देस है महराज” बेहद चर्चित किताबे हैं. यह लेख समकालीन जनमत पत्रिका के मीडिया विशेषांक में प्रकाशित हुआ था)

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