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शिवराज सरकार की हिटलरशाही

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को आम तौर पर भाजपा का नरम चेहरा माना जाता रहा है लेकिन उनकी सरकार द्वारा लगातार ऐसे कदम उठाये गये हैं जो कुछ अलग ही तस्वीर पेश करते हैं. इस दौरान कई ऐसे कानून लाने और पाबंदियां लगाने की कोशिशें की गयी  हैं जो नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों का हनन तो करते ही हैं साथ ही लोकतंत्र का गला घोंटने वाले हैं. पूरी कोशिश की गयी है कि सरकार की जवाबदेही कम हो, नागरिकों के अधिकारों में कटौती की जा सके. कुछ ऐसे कानून लाने के प्रयास भी किये गये हैं जो पुलिस प्रशासन को निरंकुश बनाने वाले हैं और इससे उनकी जवाबदेहिता कम होती है.

इन सबके बीच मध्यप्रदेश में लोकतान्त्रिक ढंग से होने वाले धरने, प्रदर्शनों पर भी रोक लगाया जा रहा है. राजधानी भोपाल में धरनास्थल के लिये कुछ चुनिन्दा स्थानों का निर्धारण कर दिया गया है जो बंद पार्क या शहर से कटे हुये इलाके है. इसी तरह से पूरे प्रदेश में जलूस निकालने, धरना देने, प्रदर्शन, आमसभाएं करने में भांति भांति की अड़चने पैदा की जा रही हैं.

भाजपा शासन के दौरान मध्यप्रदेश में विधानसभा की महत्ता और प्रासंगिकता कम होती गयी है, विधानसभा सत्रों की अवधि लगातार कम हुई है,सरकार द्वारा मनमाने तरीके से बीच में ही सत्र को खत्म कर दिया जाता रहा है और विधानसभा में पूछे गये मुश्किल सवालों को “जानकारी एकत्रित की जा रही है” जैसे जुमलों से टाले जाने का चलन बढ़ा है. पिछले दिनों मौजूदा विधानसभा का आखिरी सत्र मात्र पांच दिन के लिए तय किया गया था और इसे मात्र दो दिन में ही स्थगित कर दिया गया.

 ऐसा लगता है शिवराज सिंह की सरकार विधायिका के इस बुनियादी विकल्प को ही खत्म कर देना चाहती है कि कोई उससे सवाल पूछे और उसे इसका जवाब देना पड़े. विपक्ष द्वारा सदन में सवाल पूछने, अविश्वास प्रस्ताव रखने जैसे प्रावधान हमारे लोकतंत्र के आधार है लेकिन मध्यप्रदेश में विधानसभा की ताकत को कम करने और जन-प्रतिनिधियों के विशेषाधिकारों को सीमित  करने के दो बड़े प्रयास हो चुके हैं जो लोकतंत्र की मूलभावना के खिलाफ है.

पहला मामला बीते 21 मार्च 2018 विधानसभा सत्र खत्म होने के दिन का है जिसमें प्रदेश के संसदीय कार्य विभाग द्वारा सभी विभागों को एक परिपत्र जारी किया गया था जिसमें साफ निर्देश दिया गया था कि सम्बंधित विभाग मंत्रियों से विधानसभा में पूछे गये ऐसे किसी प्रश्न का कोई उत्तर न दिलवायें जिससे उनकी जवाबदेही तय होती हो. परिपत्र का मजमून कुछ इस तरह से है “विभागीय अधिकारी प्रश्नों के उत्तरों की संरचना, प्रश्नों की अंतर्वस्तु की गहराई से विवेचना करें तो आश्वासनों की व्यापक संख्या में काफी कमी आ सकती है. मंत्रियों को प्रत्येक विषय पर आश्वासन देने में बड़ी सतर्कता बरतना होती है, यदि किसी विषय पर आश्वासन दे दिया जाए तो यथाशीघ्र उसका परिपालन भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए अतः अपेक्षा की जाती है कि नियमावली के अनुबंध डी में आश्वासनों के वाक्य तथा रूप की सूची दी गई है, यह शब्दावली उदाहरण स्वरूप है, विधानसभा सचिवालय सदन की दैनिक कार्यवाही में से इसके आधार पर आश्वासनों का निःस्सारण करता है अतः विधानसभा सचिवालय को भेजे जाने वाले उत्तर/जानकारी को तैयार करते समय इस शब्दावली को ध्यान में रखा जाए तो अनावश्यक आश्वासन नहीं बनेंगे.”

जवाब देते समय जिन 34 शब्दावलियों से बचने की हिदायत दी गयी है उनमें “मैं उसकी छानबीन करूंगा”, “मैं इस पर विचार करूंगा”, “सुझाव पर विचार किया जाएगा”, “रियायतें दे दी जायेंगी”, “विधिवत कार्यवाही की जाएगी” आदि शब्दावली शामिल हैं. नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह ने इसे सरकार द्वारा लोकतंत्र का गला घोंटने, विपक्ष की आवाज दबाने और विधानसभा का महत्व खत्म करने की साजिश बताया है और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान से इस परिपत्र को वापस लेने की मांग की है.

इससे पहले मध्यप्रदेश विधानसभा का 2018 के बजट सत्र में ही शिवराज सरकार द्वारा विधानसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन संबंधी नियमावली में संशोधन किया गया था जो सीधे तौर पर सदन में विधायको के सवाल पूछने के अधिकार को सीमित करने की कोशिश तो थी ही साथ ही इसमें पहली बार सत्तापक्ष को सदन में “विश्वास प्रस्ताव” लाने का प्रावधान किया गया था  जिसके अनुसार अगर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही प्रस्ताव लाते हैं तो इसमें वरीयता सत्तापक्ष द्वारा लाए जाने वाले “विश्वास प्रस्ताव” को ही दी जाएगी और उसके बाद में विपक्ष के “अविश्वास प्रस्ताव” पर विचार किया जाएगा. इसी तरह किये गये संशोधनों के तहत ये प्रावधान किया गया था कि विधयाक किसी अति विशिष्ट और संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की सुरक्षा के संबंध में हुये खर्च और ऐसे किसी भी मसले पर जिसकी जांच किसी समिति में चल रही हो और प्रतिवेदन पटल पर नही रखा गया हो, के बारे में सवाल नही पूछ सकते हैं.

प्रदेश में विघटनकारी, अलगाववादी संगठनों की गतिविधियों के संबंध में भी विधायकों द्वारा जानकारियां मांगने पर पाबंदी लगायी गयी थी. कुल मिलाकर यह एक ऐसा काला कानून था जिससे विपक्ष की भूमिका बहुत सीमित हो जाती. इन नियमों को विपक्ष, मीडिया और सिविल सोसाइटी के दबाव में अंततः शिवराज सरकार को स्थगित करने को मजबूर होना पड़ा है.

मध्यप्रदेश में लम्बे समय से पुलिस कमिश्नर प्रणाली को लागू करने की बात की जाती रही है और अब इसी क्रम में शिवराज सरकार एक बार फिर भोपाल और इंदौर में पुलिस कमिश्नर प्रणाली लाने का कवायद कर रही है. बीते मार्च महीने में राज्य के गृहमंत्री भूपेंद्र सिंह ने बयान दिया था कि उनकी सरकार पुलिस कमिश्नर सिस्टम को लागू करने पर विचार कर रही है. इसके पीछे दलील दी जा रही है कि इस व्यवस्था के लागू होने से अपराध में कमी आयेगी और अपराधियों को सजा मिलने में जो देरी होती है उससे निजात मिल सकेगी. खुद मुख्यमंत्री भी कह चुके हैं कि “जो हालात हैं उस पर अंकुश लगाने के लिए पुलिस को और अधिकार देना जरूरी दिख रहा है”. अगर यह व्यवस्था लागू होती है तो कलेक्टर की जगह पुलिस को मजिस्ट्रियल पावर मिल जाएगा और उसे धारा 144 लागू करने या लाठीचार्ज जैसे कामों के लिए कलेक्टर के आदेश की जरूरत नहीं रह जाएगा.

शिवराज सरकार द्वारा पुलिस कमिश्रर सिस्टम को लागू कराने के लिए भी काफी जोर लगाया गया  है. इस व्यवस्था के तहत धरना, प्रदर्शन की अनुमति देने का अधिकार कलेक्टर की बजाय पुलिस कमिश्नर के पास आ जायेगा और इससे सरकार को अपने खिलाफ होने वाले धरना-प्रदर्शन और आंदोलनों को काबू करने में भी आसानी हो जायेगी. वरिष्ठ भाजपा नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने 2014 में बतौर गृहमंत्री इस व्यवस्था की मुखालफत करते हुये कहा था कि यह अंग्रेजों का बनाया कानून है यह ठीक नहीं होगा कि जो आरोपी को पकड़ रहा है वही उसे सजा भी सुनाए, इससे स्थितियां सुधरने के बजाय और बिगड़ जाएंगी. मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यसचिव केएस शर्मा का भी कहना है कि ‘पुलिस कमिश्रर प्रणाली लोगों का ध्यान बांटने का एक तरीका है और इससे अपराधों पर नियंत्रिण नहीं होगा.’

पुलिस कमिश्नर प्रणाली के साथ ही मध्यप्रदेश सरकार “जन सुरक्षा एवं संरक्षा विनियमन विधेयक” लाने की तैयारी में है. मध्यप्रदेश पुलिस के वेबसाईट पर प्रस्तावित मध्यप्रदेश जन सुरक्षा एवं संरक्षा विनियमन विधेयक का प्रारूप अपलोड करते हुये इसके बारे में बताया गया है कि, “इस विधेयक का उद्देश्य यह है कि आम जन की सुरक्षा में उन सार्वजनिक स्थलों पर सुरक्षा के मौजूदा प्रबंध के स्तर में वृद्धि हो जहां कि आम जनता का आवागमन होता है.

सामान्य जीवन में ऐसी अनेक परिस्थितियां एवं हरकतें प्राय: होती हैं जो कि जन सामान्य विशेषकर महिलाओं, बच्चों एवं बुजुर्गों को अनहोनी के लिये सशंकित करती हैं. उन व्यक्तियों जिनकी हरकतों से जन सामान्य संशकित हो, के विरूद्ध पुलिस विधि मान्य तरीके से हस्तक्षेप कर सके वह तभी संभव हो पाता है जबकि संज्ञेय अपराध हो गया हो, प्रस्तावित अधिनियम में ऐसे प्रावधान हैं जहां कि जनता विशेषकर महिलाओं, बच्चों एवं बुजुर्गों को सशंकित कर रहे ऐसे व्यक्तियों की हरकतों अथवा उनके द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों में पुलिस हस्तक्षेप कर सके.”

जाहिर है इस विधयेक को लाने के पीछे महिलाओं, बच्चों एवं बुजुर्गों की सुरक्षा का आड़ लिया जा रहा है और अपराध होने के पहले ही शंका के आधार पुलिस के हस्तक्षेप की बात की जा रही है.

जन सुरक्षा एवं संरक्षा विनियमन विधेयक पुलिस को असीमित अधिकार देता है. इसमें कई ऐसे प्रावधान हैं जो एक नागरिक के तौर पर किसी भी व्यक्ति और समाज की निजता व गरिमा पर प्रहार करते हैं. अगर यह कानून के रूप में अस्तित्व में आ जाता है तो एक तरह से पुलिसिया राज कायम हो जायेगा. इससे पुलिस को आम लोगों की जिंदगी में दखल देने का बेहिसाब अधिकार मिल जाएगा और किसी व्यक्ति पर पुलिस द्वारा की गयी कारवाई को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकेगी.

जानकार बताते हैं कि इस नये कानून की तो जरुरत ही नहीं है इससे तो पुलिस को दुरुपयोग के लिए एक और नया हथियार मिलेगा. ये भी जगजाहिर है कि पुलिस को राजनीतिक दबाव में काम करना पड़ता है ऐसे में इस बात की पूरी सम्भावना है कि सरकारें अपने विरोधियों को निशाना बनाने के लिए इसका दुरुपयोग कर सकती हैं. फिलहाल इस विधयेक का मसौदा समीक्षा के लिये विधि विभाग के पास है जहाँ इसे मंजूरी मिलने के बाद इसे अध्यादेश के रूप में लाया जा सकता है.

साल 2015 में शिवराज सरकार द्वारा एक ऐसा विधेयक पास कराया गया था जो कोर्ट में याचिका लगाने पर बंदिशें लगाती है, इस विधयेक का नाम है “‘तंग करने वाला मुकदमेबाजी (निवारण) विधेयक 2015”( Madhya Pradesh Vexatious Litigation (Prevention) Bill, 2015). मध्यप्रदेश सरकार ने इस विधेयक को विधानसभा में बिना किसी बहस के ही पारित करवाया लिया था और फिर राज्यपाल से अनुमति प्राप्त होने के बाद इसे राजपत्र में प्रकाशित किया जा चुका है. अदालत का समय बचाने और फिजूल की याचिकाएं दायर होने के नाम पर लाया गया यह एक ऐसा कानून है जो नागरिकों के जनहित याचिका लगाने के अधिकार को नियंत्रित करता है और ऐसा लगता है कि इसका मकसद सत्ताधारी नेताओं और अन्य प्रभावशाली लोगों के भ्रष्टाचार और गैरकानूनी कार्यों के खिलाफ नागरिकों को कोर्ट जाने से रोकना है.

इस कानून के अनुसार न्यायपालिका राज्य सरकार के महाधिवक्ता के द्वारा दी गई राय के आधार पर तय करेगी कि किसी व्यक्ति को जनहित याचिका या अन्य मामले लगाने का अधिकार है या नहीं. यदि यह पाया जाता है कि कोई व्यक्ति बार-बार इस तरह की जनहित याचिका लगाता है तो उसकी इस प्रवृत्ति पर प्रतिबंध लगाया जा सकेगा. एक बार न्यायपालिका ने ऐसा प्रतिबंध लगा दिया तो उसे उस निर्णय के विरूद्ध अपील करने का अधिकार भी नहीं होगा. न्यायालय में मामला दायर करने के लिए पक्षकार को यह साबित करना अनिवार्य होगा कि उसने यह प्रकरण तंग या परेशान करने की भावना से नहीं लगाया है और उसके पास इस मामले से संबंधित पुख्ता दस्तावेज मौजूद हैं.

2015 में कानून लाते समय प्रदेश के वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं  और संविधान के जानकारों ने शिवराज सरकार के इस कदम को तानाशाही करार दिया था. वरिष्ठ पत्रकार एल.एस. हरदेनिया कहते हैं कि “इस कानून के माध्यम से सरकार को यह अधिकार मिल गया है कि वह ऐसे लोगों को नियंत्रित करे जो जनहित में न्यायपालिका के सामने बार-बार याचिका लगाते हैं.”

प्रशासन व कानून व्यवस्था चलाने वाली मशीनरी पर राजनीतिक हस्तेक्षप बहुत घातक हो सकती है लेकिन दुर्भाग्य से इधर मध्यप्रदेश में पुलिस और प्रशासन के कामों में राजनेताओं, उनसे जुड़े लोगों, संगठनों का दखल का नया चलन बढ़ा है. पिछले साल मध्यप्रदेश में कटनी जिले के तत्कालीन एसपी गौरव तिवारी के साथ भी यही दोहराया गया जिन्होंने 500 करोड़ रुपए के बहुचर्चित हवाला कारोबार का पर्दाफाश किया था जिसमें शिवराज सरकार के सबसे अमीर मंत्री संजय पाठक और आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता की संलिप्तता सामने आ रही थी. लेकिन इससे पहले कि गौरव तिवारी किसी निष्कर्ष पर पहुँचते उनका तबादला कर दिया गया. इस पूरे घटनाक्रम की सबसे खास बात यह रही है कि अपने चहेते एसपी के तबादले के विरोध में बड़ी संख्या में कटनी की जनता सड़कों पर उतर आयी थी. मध्यप्रदेश के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब किसी पुलिस अधिकारी के तबादले के विरोध में इतना बड़ा जनाक्रोश देखने को मिला हो.

इन सबके बीच मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पूरी तरह से संजय पाठक के पक्ष में खड़े नजर आये. उन्होंने एसपी गौरव तिवारी को कटनी वापस बुलाने की मांग को खारिज करते हुए कहा था कि महज आरोपों के आधार पर किसी के भी खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाएगी.

इसी तरह से 2016 की एक घटना है जिसमें बालाघाट जिले के बैहर में आरएसएस प्रचारक सुरेश यादव के साथ पुलिस की तथाकथित मारपीट के मामले में भी शिवराज सरकार द्वारा की गयी कारवाही पर यह सवाल उठे थे कि राज्य सरकार ने संघ के दबाव में बिना जाँच किये ही पुलिस अधिकारियों के खिलाफ ही मामला दर्ज करा दिया. दरअसल भड़काऊ सन्देश फैलाने के आरोप में सुरेश यादव को गिरफ्तार करने के लिए जब पुलिसकर्मी स्थानीय संघ कार्यालय गए तो उन्हें धमकी दी गयी थी कि “आप नहीं जानते कि आपने किसे छूने की हिम्मत की है, हम मुख्यमंत्री और यहाँ तक की प्रधानमंत्री को हटा सकते हैं, हम सरकारें बना और गिरा सकते हैं, तुम्हारी कोई हैसियत नहीं, थोड़ा इंतजार करो अगर हम तुम्हारी वर्दी नहीं उतरवा सके तो संघ छोड़ देंगे.”

भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का भी एक धमकी भरा ट्वीट सामने आया था जिसमें उन्होंने इसे ‘अक्षम्य अपराध’ करार देते हुए सवाल पूछा था कि ‘क्या हमारी सरकार में नौकरशाही की इतनी हिम्मत भी हो सकती है ? ’ बाद में धमकियां सच भी साबित हुईं और शिवराज सरकार ने संघ प्रचारक को गिरफ्तार करने गये पुलिसकर्मियों पर ही हत्या के प्रयास, लूटपाट जैसे गंभीर चार्ज लगा दिए थे जिसकी वजह से उन्हें खुद की गिरफ्तारी से बचने के लिए फरार होना पड़ा. इस पूरे मामला में संघ प्रचारक पर सोशल मीडिया में भड़काने वाले मेसेज पोस्ट करने का आरोप था जिसके बाद स्थानीय स्तर पर माहौल गर्माने लगा था और इसकी शिकायत थाने में की गयी जिसके बाद पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया गया.

इस दौरान संघ ने आरोप लगाया कि हिरासत के दौरान पुलिस ने संघ प्रचारक के साथ मारपीट की है जिसमें उसे गंभीर चोट आयीं हैं. संघ द्वारा इस पूरे मामले को कुछ इस तरह पेश किया गया कि मानो टीआई ने मुसलमान होने के कारण संघ कार्यालय पर हमला किया था. इस मामले को लेकर संघ ने पूरे प्रदेश में विरोध प्रदर्शन किया था जिसके बाद सरकार ने बिना किसी जांच के बालाघाट के एडिशनल एसपी, बैहर के थाना प्रभारी तथा 6 अन्य पुलिस कर्मियों के ऊपर धारा 307 सहित कई मामलों में केस दर्ज करते हुये उन्हें सस्पेंड कर दिया था. इस दौरान जिन पुलिसकर्मीयों पर कार्यवाही की गयी थी उनके परिजनों का कहना था कि बालाघाट में पुलिस वालों को नक्सलियों से ज्यादा आरएसएस, बजरंग दल, गोरक्षा समिति और भाजपा कार्यकर्ताओं से डर लगता है अब ऐसी परिस्थिति में कानून व्यवस्था कैसे लागू की जाएगी.

2016 में ही झाबुआ जिले के पेटलाबाद में मोहर्रम जुलूस रोके जाने को लेकर हुए झड़प के मामले में वहाँ के प्रशासन पर भाजपा सांसदों और संघ के नेताओं द्वारा दबाव डालने का मामला सामने आया था. यहां पुलिस ने कारवाई करते हुये आरएसएस के करीब आधा दर्जन स्थानीय पदाधिकारियों पर मुकदमा दर्ज करते हुये उन्हें गिरफ्तार कर लिया था जिसके बाद पुलिस द्वारा की गयी इस कारवाई पर आरएसएस की नाराजगी सामने आई थी जिसे देखते हुये तत्कालीन पुलिस अधीक्षक को हटा दिया गया था और तत्कालीन उप पुलिस अधीक्षक व थाना प्रभारी को निलंबित कर दिया गया था क्योंकि इन लोगों ने दंगा और आगजनी करने के आरोप में संघ परिवार से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने की गुस्ताखी की थी.

इस मामले में संघ की नाराजगी को दूर करने के लिये शिवराज सरकार ने सेवानिवृत्त जज आरके पांडे की अध्यक्षता में जांच आयोग गठित किया था. आयोग ने अक्टूबर 2017 में अपनी जो रिपोर्ट मध्यप्रदेश सरकार को सौंपी है उसमें आरएसएस पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को क्लीनचिट देते हुये आरएसएस कार्यकर्ताओं पर पुलिस द्वारा की गयी कार्रवाई को द्वेषपूर्ण और बदला लेने वाला बताया गया है.

उपरोक्त घटनायें बताती हैं कि मध्यप्रदेश में प्रतिरोध की आवाज दबाने और विरोध एवं असहमति दर्ज कराने के रास्ते बंद करने की हर मुमकिन कोशिश की गयी है, विधानसभा जैसे लोकतंत्र की बुनियादी संस्थाओं को लगातार कमजोर किया गया है और जन-प्रतिनिधियों के विशेषाधिकारों को सीमित करने और नागरिकों से उन्हें संविधान द्वारा प्राप्त बुनियादी अधिकारों को कानून व प्रशासनिक आदेशों के जरिये छीनने को कोशिशें की गयी हैं. इन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता है इससे लोकतंत्र कमजोर होगा और सरकारी निरंकुशता बढ़ेगी. इसलिये शिवराज सरकार को चाहिए कि वो हिटलरशाही का रास्ता छोड़े और प्रदेश में लोकतांत्रिक वातावरण का बहल करें और संवैधानिक भावना के अनुसार काम करे.

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