समकालीन जनमत
व्यंग्यसाहित्य-संस्कृति

हस्तिनापुर के कृष्ण

जब कृष्ण से पूछा गया तुम किसके साथ हो? तब कृष्ण ने कहा कि मैं हस्तिनापुर के साथ हूँ. कृष्ण का साथ मिला फिर क्या हुआ. कुरुक्षेत्र की धरती इंसानों के खून से लाल हो गई. सुनते हैं उसके निशान अब भी हैं. कुरुक्षेत्र की धरती अब भी लाल है.

हालांकि विज्ञान कहता है मिट्टी का रंग लाल खून की वजह से नहीं खनिजों की वजह से है. लेकिन जनता प्रतीकों और मुहावरों से हस्तिनापुर की बर्बादी की कहानी तो कह ही रही है. आखिर कृष्ण का संग-साथ हस्तिनापुर को बहुत महंगा पड़ा. युद्ध खत्म होने के बाद जब सवर्ण पुरोहित वर्ग पंच पांडवों के विजयोल्लास में जय-जयकार कर रहे थे. तभी चार्वाक वहां पहुंचा. उसने सरेआम पांडवों के सामने ही अत्यंत ही कटुता और घृणा से उनकी सत्तालोलुपता की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने नरसंहार (Holocaust) किया है. वे युद्ध अपराधी हैं. हस्तिनापुर के लोग जिसकी वजह से मारे गए. देखिए, यही था कृष्ण के साथ होने का परिणाम – विनाश…विनाश और विनाश.
इस ‘विनाश’ की तुकबंदी में, उसके लहजे में अभी एक शब्द फिजाओं में तैर रहा है…विकाश…विकाश…विकाश. इन तुकबंदियों के एक उस्ताद ने 23 मई की शाम जब आत्मरति के आईने में अपनी कृष्ण छवि देखी तो उसने हस्तिनापुर के नागरिकों से कहा देखिए, देखिए! यही आप की भी छवि है. यही मेरी छवि है. मैं, मैं हूं. मैं, तू है. तुम, मैं हो. मुझे तुरंत देवीप्रसाद मिश्र की पंक्तियां याद आईं- ‘मैंने कहा कि आप फासिस्ट हैं/तो उसने कहा कि हैंच्चो अब जो हैं हम ही हैं.’ चमकती हुई यह कृष्ण छवि इतनी जोर से चीखी, अंधेरा गा उठा और फैज के सफे से ‘सब गज़ीदा सहर’ निकल कर दिल्ली की उस गर्मी और उमस से भरी रात में समा गई.
चार्वाक ने जब सच कहा तो शासक का गुणगान करने में लगे पुरोहितों ने चार्वाक को मारा. एक भीड़ जो आजकल कहीं भी, किसी को भी पीट सकती है, की मुझे याद आई. मुझे महसूस हुआ मेरे चारो ओर कृष्ण ही कृष्ण हैं. एक दमकता हुआ कालापन है. कृष्ण रथ पर सवार है. रास्ता दिखा रहा है और हस्तिनापुर के लोग कट मर रहे हैं, हस्तिनापुर के लिए. उन्हें मालूम नहीं वे हस्तिनापुर के लिए नहीं, कृष्ण के लिए लड़ रहे हैं. कृष्ण राजा बनना चाहता था. उसे तत्कालीन शासक वर्ग क्षत्रिय वर्ग में शामिल होना था. उसकी महत्वाकांक्षा हस्तिनापुर के नागरिक नहीं, सिर्फ हस्तिनापुर थी. आज इस कृष्ण के रथ पर जरा गौर फरमाइये. उसके रथ के शीर्ष पर बलवान सेठ-साहूकार बैठा है कि रथ डिगे नहीं. वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहे. कृष्ण ने कौरवों को अपनी सेना दी. पांडवों को खुद को, खुद का दिमाग दिया. इस तरह एक तरफ से कृष्ण लड़ रहा था और दूसरी तरफ से कृष्ण ही लड़ रहा था. जब उससे कहा गया कि ‘तय करो किस ओर हो तुम’ तो वह खिस्स से हंस पड़ा और मुझे इस सिलसिले में आज के अंतर्राष्ट्रीय आयुध विक्रेता याद आये. जो पाकिस्तान को भी हथियार बेच रहे हैं और भारत को भी और कह रहे हैं हम मानवता के साथ हैं. हम शांति के साथ हैं. हम हस्तिनापुर के साथ हैं.
कृष्ण हस्तिनापुर की गद्दी पर फिर बैठने जा रहा है. पहले उसने उसकी सीढ़ियों को नमन किया था. मुझे सुनाई दिया उसने नमन नहीं किया. बल्कि कहा था- वीर भोग्या वसुंधरा. अबकी बार उसने संविधान को नमन किया है. आपको क्या सुनाई दे रहा है! मैं तो सुन रहा हूं- एक महिला डॉक्टर ने अभी-अभी आत्महत्या की है. सुना है डॉक्टर भगवान होते हैं क्योंकि वे जीवन देते हैं. लेकिन भगवानों ने भगवान की हत्या कर दी. जरूर इन ‘भगवानों’ में भी वर्ग होते हैं. मैंने सुना- (सं)वैधानिक धाराओं के तहत एक आदिवासी प्रोफ़ेसर को पुलिस ने गिरफ्तार किया है. बिहार में एक मुसलमान से कहा गया उसकी हस्तिनापुर में कोई जगह नहीं और उसे एक कृष्ण ने गोली मार दी है..

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion