समकालीन जनमत
ज़ेर-ए-बहस

गांधी बनाम गांधी

यह वर्ष महात्मा गांधी की 150वीं जयंती का वर्ष है.  इस वर्ष में गांधी को लेकर अलग अलग नजरिये से बातें हो रही हैं। गांधी की विचारधारा के जरिये वर्तमान समय के विमर्शों को समझने और गांधी का पुनर्मूल्यांकन करने की कोशिशें भी चल रही हैं। 

समकालीन जनमत पत्रिका में गांधी के विचारों को लेकर बहसतलब लेख प्रकाशित हो रहे हैं। प्रस्तुत लेख इसी कड़ी का हिस्सा है जो इस मंच पर भी प्रकाशित किया जा रहा है। इस सिलसिले में बहस और विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए आपके लेखों का स्वागत रहेगा! (सम्पा.)

डॉ. आर. राम


महात्मा गांधी की 150वीं जयंती पर सोशल मीडिया पर ‘गोडसे अमर रहें’ ट्रेंड करा दिया गया। यह स्वतःस्फूर्त ढंग से नहीं हुआ होगा बल्कि गांधी के बरक्स गोडसे को स्थापित करने और गांधी की हत्या को जायज ठहराने वाले लोगों ने संगठित तौर पर यह काम किया होगा।

उनकी कई वर्षों की अनवरत कोशिश और लक्ष्य के प्रति समर्पण ही है कि गांधी की 150वीं जयंती पर गोडसे की समान रूप से चर्चा हो रही है।

गांधी की हत्या को जायज ठहराने वाले लोग और संगठन आज देश की सत्ता पर काबिज हैं और उन्होंने लगातार अपने प्रयासों से देश के बहुसंख्यक आम जन मानस को यहां तक पहुंचा दिया है कि लोग गांधी को हिन्दू विरोधी, मुस्लिम परस्त मानते हैं और इस आधार पर गोडसे के कृत्य को जायज ठहराने लगते हैं।

अहिंसा, धर्मनिरपेक्षता, न्याय और व्यापक जनता का कल्याण- जिन आधारों पर भारतीय राष्ट्र की नींव रखी गई थी आज उन सबको अप्रासंगिक बताते हुए हिन्दू बहुसंख्यक राष्ट्र की परिकल्पना को साकार किया जा रहा है।इस परिकल्पना के आड़े जो चुनौती थी वह गांधी की विचारधारा की ओर से आनी थी, जिसे निर्मूल करने के लिए गांधी को अप्रासंगिक सिद्ध किया जा रहा है।

गांधी आजाद भारत मे साम्प्रदायिकता के खिलाफ पहले शहीद थे। स्वराज के साथ आई विभाजन की त्रासदी ने महात्मा गांधी को सबसे अधिक विचलित किया होगा शायद इसीलिए वे आजादी के जश्न से दूर साम्प्रदायिक हिंसा और पागलपन को रोकने के लिए बंगाल के नोआखाली में दंगाई भीड़ के बीच पहुंच गए थे।

गांधी जी ने अपने प्राणों की कीमत पर साम्प्रदायिक भाईचारे को कायम रखने की कोशिश की थी। आज तक गांधी साम्प्रदायिक शक्तियों के विरोध का सबसे बड़े प्रेरणाश्रोत हैं।यही कारण है कि संघ परिवार गांधी को मानने का ढोंग करते हुए गांधीवाद के सबसे मूल्यवान सारतत्व का सफाया करने में लगा है।

बड़ी ही चालाकी से गांधी की बात के बीच गोडसे को लाकर प्रकारांतर से गांधी के हत्यारे विचार को विचारणीय बनाया जा रहा है।यानि अब संघ के दुष्प्रचार के कारण आम लोग गोडसे की दलील पर भी ध्यान देने लगे हैं।

साध्वी प्रज्ञा या अलीगढ़ की सनातन संस्था के माध्यम से इस विचार को आक्रामक ढंग से पहले फेंका जाता है फिर धीरे धीरे उसपर जनमत तैयार करने का काम शुरू होता है।इस तरह गांधी नामक चुनौती से निपटने की कोशिश हो रही है।

हिन्दू राष्ट्र का सपना देखने वालों के लिए गांधी एक आंतरिक अवरोध की तरह हैं।एक ऐसी समस्या जो उनके ही भीतर से पैदा हुई थी।अर्थात हिन्दू धर्म के भीतर से पैदा हुई थी। यदि गांधी गैर हिन्दू होते तो वे संप्रदयिकता के समक्ष कोई चुनौती नहीं होते।

यहां तक कि आधुनिक सोच और विदेशी वेश भूषा धारण करने वाले होते तब भी कोई समस्या नहीं थी।गांधी समस्या इसलिए थे और हैं क्योंकि वे सच्चे हिन्दू थे,और इस धारणा पर कोई सवाल नहीं उठा सकता और एक सच्चा आदर्श हिन्दू होकर उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए काम किया, द्विराष्ट्र के सिद्धांत का विरोध किया और विभाजन को रोकने की हरसंभव कोशिश की और विभाजन के बाद भी भारत को हिन्दू राष्ट्र बनने से बचा लिया।

यही वे अपराध थे जिनकी वजह से गांधी की हत्या कर हिंदुत्ववादी ताकतें देश को आने वाले समय का संदेश सुनाना चाहती थीं।वह संदेश जिस के लिए गांधी को मारा गया था वह आज सत्ताधारी विचार बन चुका है। इसलिए आज हिन्दू राष्ट्र की फासिस्ट अभियान का प्रतिकार करने के लिए गांधी के सर्व धर्म समभाव व हिन्दू मुस्लिम एकता के विचार को फैलाना एक तात्कालिक कार्यभार है।

लेकिन प्रश्न यह है कि क्या गाँधीवादी धर्मनिरपेक्षता की प्रविधियों के जरिये फासीवाद का मुकाबला किया जा सकता है? दूसरा प्रश्न यह भी कि स्वन्त्रता आंदोलन के दौरान गांधी जी पर आस्था रखने वाले लाखों करोड़ों भारतीयों ने किन कारणों से गांधीवाद से किनारा करते हुए हिंदुत्व की उग्रतापूर्ण राजनीति का समर्थन किया होगा?

1955 में बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में डॉ. आंबेडकर ने कहा था “गांधी पहले से ही इस देश के लोगों के ज़ेहन से ग़ायब हो चुके हैं. उनकी याद इसी कारण आती है कि कांग्रेस पार्टी उनके जन्मदिन या उनके जीवन से जुड़े किसी अन्य दिन सालाना छुट्टी देती है. हर साल सप्ताह में सात दिनों तक एक उत्सव मनाया जाता है. स्वाभाविक रूप से लोगों की स्मृति को पुनर्जीवित किया जाता है.
लेकिन मुझे लगता है कि अगर ये कृत्रिम सांस नहीं दी जाती तो गांधी को लोग काफ़ी पहले भुला चुके होते.”

डॉ. अम्बेडकर का यह कथन गांधी के प्रति भारतीय समाज की सोच को सही सही बताता है।यह सभी जानते हैं कि गांधी के विचारों को आज़ादी के तुरंत बाद से ही अव्यवहारिक और अप्रासंगिक मान लिया गया था।ज्यादा से ज्यादा उन्हें सहिष्णु हिंदुत्व के प्रतीक के रूप में समझाया गया।

आज के इस हिंदुत्ववादी फासीवाद के समय मे भी गांधी के जरिये हिंदुत्व की उसी सहिष्णुता को पुनर्जीवित करने की बात की जा रही है।गांधीवाद धर्मनिरपेक्षता कुछ और नहिं बस नर्म सनातनी संस्कृति की वकालत है।जिसमें विभेद और अन्यता को मान्यता देते हुए सार्वजनिक मंचों पर समागम और भाईचारा की बात की जाती है।यह धर्मनिरपेक्षता प्रदर्शन की भंगिमा भर है।इसी भुलावे में देश आधी सदी तक जीता रहा जो ठीक से भुलावा भी नहीं था!

धर्मनिरपेक्षता का कोई भी सिद्धान्त वर्णव्यवस्था के ऊपर स्थापित नहीं हो सकता।आज इस प्रश्न पर खुल कर चर्चा करने तथा अपनी परंपरा की कमियों का सामना करने और उसमे वांछित बदलाव लाने को हमेशा तैयार रहना चाहिए।जिसे युवा चिन्तक और दार्शनिक दिव्या द्विवेदी ‘नई शुरुआत करने का साहस’ कहती हैं।

इंडियन एक्सप्रेस में अपने लेख व एनडीटीवी पर अपने वक्तव्य के कारण वे आजकल काफी विवादास्पद चर्चा के केंद्र में हैं।उनका कहना है कि आज हम इस चिंतित हैं कि हुन्दुत्ववादी शक्तियों द्वारा गांधी को अपने पक्ष में इस्तेमाल किया जा रहा है।हिन्दुत्वादियों और गांधी के हत्यारों के बीच वैचारिक समानता है।

हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा इस विचार का ही विस्तार है कि भारत मे हिन्दू बहुसंख्या में हैं।उनका कहना है कि ‘हिन्दू धर्म’ का अविष्कार 19वीं शताब्दी में किया गया।इसके जरिये इस तथ्य पर पर्दा डाला गया कि शूद्र और निचली जातियों के लोग इस देश में बहुसंख्यक हैं।इस तरह एक छ्द्म हिन्दू बहुसंख्यक पहचान का निर्माण किया गया जिसके भुक्तभोगी भारत के धार्मिक अल्पसंख्यक हुए।

इस छद्म हिन्दू बहुसंख्यक पहचान को निर्मित करने का काम अन्य सवर्ण हिन्दू नेताओं के साथ गांधी ने भी किया है।उनका कहना है कि आज भारतीय राजनीति का मुख्य सरोकार जाति उन्मूलन है इसलिए हमें इस छ्द्म हिन्दू बहुसंख्यावाद को खारिज करना होगा जिसके लिए हमें गांधी से आगे बढ़कर सोचने का साहस करना पड़ेगा।

दिव्या के बयान में 20वीं सदी में हिन्दू धर्म की खोज वाली बात पर बहुत विवाद उठाया जा रहा है लेकिन इस आलोक में जब हम अम्बेडकर के विचार देखते हैं तो बात और भी स्पष्ट हो जाती है। अम्बेडकर ने लिखा-” गांधीवाद ने जो कुुछ किया वह हिन्दू धर्म का शास्त्रीय और सैद्धान्तिक औचित्य सिद्ध करने के लिए किया।हिन्दू धर्म का नवीन संस्करण प्रस्तुत करके गांधीवाद ने हिन्दू धर्म की बड़ी सेवा की है।हिन्दू धर्म अपने पुराने रूप में अनगढ़ धर्म था,जिसमे कठोर और निर्दयी विधानों के कोण बने थे।

गांधीवाद ने हिन्दू धर्म की नग्नता को दार्शनिकता देकर ढक दिया।इस दर्शनिकता को को उसका सार,एक सुंदर परिधान कहा जा सकता है।यह वह दर्शन है जिसका कहना है कि ‘हिन्दू धर्म’ में जो कुछ है वही श्रेष्ठ है और जन कल्याण के लिए जो कुछ आवश्यक है यह सब हिन्दू धर्म मे है।”(गाँधीवाद शीर्षक अध्याय, पृ. सं. 304,कांग्रेस और गांधी न अश्पृस्यों के लिए क्या किया, डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांग्मय खण्ड-16, प्रकाशक- डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान)

महात्मा के रूप में गांधी ने भारतीय समाज व राष्ट्र को वर्ण व्यवस्था के वर्णक्रम के आधार पर संगठित करने का प्रयास किया था।यह दिखाने के लिए कि जन्म के आधार पर नियत हर कार्य सम्मानीय है उन्होंने अपने लिये आदर्श और नैतिकताओं का ऊंचा मानदंड बनाया था जिसपर चलने वाले वे अकेले थे।

उनका एक भी अनुयायी उनके दिखाए मार्ग पर एक कदम भी नही चल सका।गांधी जी का बताया वह वर्णवादी कर्मयोग का सिद्धान्त आज फासिस्ट शासकों के पाखण्ड प्रदर्शन का जरिया बन रहा है।

यह कहना कि हमें गांधी दर्शन और विचार से आगे बढ़कर सोचने और भारतीय समाज के वर्तमान समस्यायों को सुलझाने के लिए ज्यादा तार्किक और कठोर आत्मसंघर्ष से गुजरना होगा, आज बड़े विवाद का कारण बन सकता है।लेकिन गांधी जी की 150वीं जयंती के मौके पर इसकी बात की शुरुआत करने का साहस दिखाना पड़ेगा।

 

 

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