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ज़ेर-ए-बहस

खतरे में है लोकतंत्र, संविधान और संघवाद

हमारा देश जिस खतरनाक दौर से गुजर रहा है, उससे उसे निकालने का एक मात्र मार्ग चुनाव नहीं है। चुनावी राजनीति ने सत्तालोलुपों को किसी भी तरह चुनाव जीतने के सारे नुस्खे समझा दिये है और सत्रहवां लोकसभा चुनाव क्या रंग लाायेगा, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। 26 मई 2014 के बाद की स्थितियां अधिक विकट और जटिल हो गयी हैं। संविधान बनाने में 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन लगे थे। 60 देशों के संविधान देखे-परखे गये थे। पर संविधान की शपथ लेने वालों ने संविधान की ऐसी-तैसी कर दी।

केन्द्रीय मंत्री अनन्त कुमार हेगड़े ने साफ शब्दों में कहा था कि वे यानी भाजपा संविधान बदलने आये हैं। इन्दिरा गांधी ने संविधान के तहत इमरजेन्सी लगायी थी। नरेन्द्र मोदी का अघोषित आपातकाल का संविधान से कोई संबंध नहीं है। संवैधानिक संस्थाएं 2014 के बाद नष्ट की जा रही हैं। ढ़ांचा कायम है, शरीर साबुत है पर आत्मा मारी जा रही है। शायद ही केाई संवैधानिक संस्था बची हो, जिसे मौजूदा सरकार ने क्षत-विक्षत और लहू-लुहान न कर दिया हो। संवैधानिक संस्था पर हमला और उसे भीतर से खोखला करना और आसान रहा है।

चन्द अपवादों को छोड़कर भारतीय राजनीति में दोमुंहापन और दोगलापन बढ़ा है, बढ़ता जा रहा है। जो कहा जा रहा है, उसके ठीक विपरीत कार्य किये जा रहे हैं। सी बी आई संवैधानिक संस्था नहीं है। देश की सबसे बड़ी जांच एजेन्सी अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है। 4 फरवरी, रविवार की शाम को सी बी आई और कोलकता पुलिस के बीच टकराव और गतिरोध की स्थिति क्यों बनी ? कैसे बनी ? राज्य सरकार की सहमति से सी बी आई राज्यों में जांच के लिए जा सकती है। सी बी आई केन्द्रीय एजेन्सी है। संविधान में केन्द्र और राज्यों के स्पष्ट अधिकार क्षेत्र हैं। संविधान के अनुच्छेद 1 (1 ) के अनुसार ‘ भारत अर्थात इंडिया राज्यों का संघ होगा’। ऐकिक राज्य और परिसंघीय राज्य में अन्तर है। भारत की संवैधानिक प्रणाली में कुछ ऐकिक तत्व भी हैं, पर यह प्रणाली आधारतः ‘परिसंघीय’ है।

भारत एक परिसंघीय राज्य है, जिसमें कई राज्य मिलकर एक राज्य बनाते हैं। परिसंघ सरकार और राज्य सरकार दोनों अपने प्राधिकार जिस एक स्रोत से प्राप्त करते हैं, वह देश का संविधान है। सबकुछ संविधान के अधीन है, उसके द्वारा नियंत्रित है और संविधान को दोनों ने ही समय‘समय पर कमजोर किया है। भारतीय संविधान ‘देश की सर्वोच्च विधि’ है और ‘संविधान के निर्वचन की सर्वोच्च शक्ति’ न्यायालय में निहित है। न्यायपालिका के शीर्ष पर स्थित है उच्चतम न्यायालय और पिछले वर्ष उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेन्स कर यह सवाल देश के सामने रख दिया कि यहां सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है और लोकतंत्र खतरे में है।

2014 के पहले भी स्थितियां अधिक बेहतर नहीं थी, पर जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शासन चलाया, उसने एक साथ संविधान, लोकतंत्र और संघवाद को कमजोर किया है। उनके समय में केन्द्रीय एजेन्सियों का अधिक दुरुपयोग हुआ है, लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाएं कमजोर की गयी हैं। मीडिया ने घुटने टेक दिये हैं, कार्यपालिका और विधायिका के क्रियाकलाप सबके सामने हैं। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले देश में ‘राष्ट्रद्रोही’ कम थे।

असम में भाजपा के नेतृत्व वाले गठबन्धन की सरकार 2016 में बनी। उस समय से अब तक के तीन वर्ष में ‘राजद्रोह’ के कुल 251 मामले दर्ज किये गये हैं। ये मामले केवल प्रतिबंधित संगठनों के खिलाफ न होकर उन व्यक्तियों के खिलाफ भी हैं, जिन्होंने ‘नागरिकता संशोधन विधेयक’ पर अपने बयान दिये है।

देश में आज यह स्थिति है कि भाजपा सरकार अपने विरोधियों की आवाजों को कुचल रही है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित की जा रही है और आर एस एस, भाजपा, नरेन्द्र मोदी के विरोधियों पर हमले किये जा रहे हैं। ‘जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा शत्रु है’, यह अमेरिकी राष्ट्रपति बुश का कथन था, जिसने इराक से एक सूई तक बरामद नहीं की और नेस्तनाबूद कर दिया।

सी बी आई के अन्तरिम निदेशक एम. नागेश्वर राव को अपने कार्यकाल के अन्त में बिना किसी वारंट के कोलकता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार के आवास पर सी बी आई के 40 अधिकारियों को 3 फरवरी के सायंकाल में भेजने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? आखिर इतनी हड़बड़ी और जल्दबाजी क्यों की गयी ? ऋषि कुमार शुक्ल के निदेशक बनने की प्रतीक्षा क्यों नहीं की गयी ? क्या यह सरकार के प्रति अपनी वफादारी दिखाने के लिए थी या फिर जाते-जाते कोलकता पुलिस द्वारा की गयी कुछ हफ्ते पहले उस ‘रेड’ के कारण थी, जिस कम्पनी से उनकी पत्नी और बेटी के रिश्ते बताये जा रहे हैं।

‘दि बंगाल स्टोरी’ वेब साइट पर इसे लेकर जो सूचनाएं और जानकारियां हैं, क्या वे एकदम निराधार और अप्रमाणिक हैं ? सी बी आई के काफिल के कोलकता पुलिस कमिश्नर के आवास पर पहुंचना और उनके अधिकारियों को राज्य पुलिस द्वारा एक प्रकार से गिरफ्तार करना केन्द्र-राज्य के उस तिक्त-कूट संबंध का प्रमाण है जिसका ऐसा उदाहरण पहले कभी दिखाई नहीं पड़ा था। क्या यह ‘बंगाल में संवैधानिक व्यवस्था के चरमाराने का संकेत’ था, जैसा गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा ?

बड़ा सवाल यह है कि संवैधानिक व्यवस्था किसके कारण संकट में पड़ी ? भाजपा और केन्द्र सरकार के पास इसका कोई उत्तर नहीं है कि सी बी आई ने जिस समय जिस तरीके से यह सब सम्पन्न किया, उसके अपने निहितार्थ नहीं थे। ममता बनर्जी अपने पुलिस कमिश्नर के बचाव में उनके आवास पर गयीं, एक घंटे तक उनसे और पुलिस अधिकारियों से बातें कीं, प्रेस को संबोधित किया और उसी रात धरने पर बैठ गयीं। उन्होंने केन्द्र के ‘कूप’ के खिलाफ ‘सत्याग्रह’ की बात कही, जिसे भाजपा ने ‘सत्ताग्रह’ कहा। सुप्रीम कोर्ट में सी बी आई गयी और सुप्रीम कोर्ट ने उनसे सारदा चिटफंड मामले में साक्ष्य मिटाने के सबूत मांगे। सबूत नहीं दिये गये और सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार को शिलांग में सी बी आई के समक्ष पेश होने और एजेन्सी के साथ ईमानदारी से सहयोग करने को कहा। उसने जांच के दौरान पुलिस कमिश्नर की गिरफ्तारी और बलपूर्वक किसी प्रकार का कदम उठाने से सी बी आई को मना किया।

सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को भाजपा और तृणमूल कांग्रेस अपनी अपनी नैतिक जीत कह रही है। ममता बनर्जी का धरना खत्म हो चुका है। और अब कई सवाल आरम्भ हो चुके हैं। मुख्य सवाल यह है कि मोदी अपने सभी विरोधियों को ठिकाने लगाना चाहते हैं। उनका इतिहास बताता है कि उन्होंने अपने किसी विरोधी को बख्शा नहीं है। ‘मार्ग दर्शक’ अडवाणी-जोशी एकान्तवास कर रहे हैं और मोदी-शाह जोड़ी के खिलाफ भाजपा में भी असंतोष है, जो अभी तक केवल नितीन गडकरी के बयानों में प्रकट हुआ है।

सारदा चिटफंड कम्पनी और अन्य चिटफंड कम्पनियों पर बात करने वाले अक्सर इस तथ्य की अनदेखी करते हैं कि ऐसी कम्पनियों में वृद्धि और उछाल नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के बाद की है। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में सुदीप्तो सेन ने सारदा ग्रुप का गठन किया था, जिसने अपनी सामूहिक निवेश स्कीम में छोटे निवेशकों को कम समय में काफी लाभ और मुनाफा देने के वादे किये थे। पोंजी स्कीम में एजेन्टों को 25 प्रतिशत तक कमीशन दी गयी थी। कुछ ही वर्षों में यह ग्रुप 2 हजार 500 करोड़ हो गया। इसने अपना जाल-महाजाल फैलाया। फिल्म निर्माता, फुटबाल क्लब, मीडिया, सांस्कृतिक आयोजन विशेषतः दुर्गा पूजा तक जाकर इस चिट फंड कंपनी ने अपना प्रचार-प्रसार किया।

यह स्कीम तीन अन्य राज्यों – ओडिशा, असम और त्रिपुरा में फैली और निवेशकों की संख्या 17 लाख से अधिक हो गयी। इसने ‘सेबी’ के नियमों की अवहेलना की। 2009 में ‘सेबी’ के हस्तक्षेप के बाद इसने 239 कंपनियां खोलीं। निवेश बढ़ता गया। अब इसे कई क्षेत्रों में फैलाया गया। पर्यटन, होटल बुकिंग, रीयल एस्टेट सबमें यह कंपनी गयी। पहली बार 2009 में इसके घोटाले की चर्चा शुरू हुई। 2012 में ‘सेबी’ ने इसे निवेशकों से रुपये लेने से रोका। 2013 से यह सुर्खियों में आया। अप्रैल 2013 में यह स्कीम समाप्त हुई और निवेशकों-एजेन्टों ने अपनी-अपनी शिकायतें पुलिस थाने में दर्ज कीं।

सुदीप्तो सेन 18 पृष्ठों का एक पत्र लिखकर पश्चिम बंगाल से भाग गए। अपने पत्र में उन्होंने कई राजनीतिज्ञों पर आरोप लगाये। बिना राजनीतिज्ञों, मंत्रियों के संरक्षण के इतना बड़ा घाटाला संभव नहीं था। सुदीप्तो सेन पर एफ आई आर दर्ज हुआ। उन्हें उनके सहकर्मी देवजानी मुखर्जी के साथ 20 अप्रैल 2013 को गिरफ्तार किया गया। जांच शुरू हुई और यह पता चला कि कंपनी ने दुबई, दक्षिण अफ्रीका और सिंगापुर में निवेश किया। लगभग 40 हजार करोड़ का घोटाला था। निवेशकर्ता वे साधारण लोग थे, जिसकी चिन्ता अब कोई राजनीतिक दल नहीं करता। सभी उसे लुभाते और ठगते हैं। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में ठगों व लुटोरों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। ममता बनर्जी ने इस मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच टीम का गठन किया और सभी एफ आई आर एक साथ सम्मिलित किये गये।

मई 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी केस की जांच सी बी आई को दिये। विशेष जांच टीम के प्रमुख राजीव कुमार थे। एक वर्ष तक उन्होंने जांच की। सी बी आई ने उनसे और उनके सहयोगियों से गायब हुए साक्ष्यों की जानकारी चाही थी जो उसे नहीं मिली। सुदीप्तो सेन की डायरी जांच दल ने जब्त की थी, जिसमें प्रमुख लोगों को दी गयी धनराशि का जिक्र है। सी बी आई को उस डायरी की तलाश है। राजीव कुमार ने सी बी आई की पांच नोटिसों और सम्मन के जवाब दिये थे। तृणमूल कांग्रेस के कई सांसद और मंत्री इस कांड में शामिल पाये गये – शताब्दी राय, राज्यसभा सांसद और फिल्म अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती, कुणाल घोष, सृंजय बोस, मदन मित्रा, कांग्रेस नेता मतंग सिंह, असम के हेमंत विश्व शर्मा ( अब असम में भाजपा के उपमुख्यमंत्री ), तृणमूल कांग्रेस की अर्पिता सेन, पूर्व डी जी पी रजत मजुमदार, मुकुल राय (अब भाजपा में ), ओडिशा के पूर्व एडवोकेट जनरल अशोक मोहंती आदि। एक दर्जन से अधिक तृणमूल कांग्रेस के विधायकों और सांसदों से सी बी आई ने पूछताछ की और कइयों को गिरफ्तार भी किया। असम के पूर्व डी जी पी शंकर बरुआ ने सी बी आई द्वारा सवाल पूछने और घर की तलाशी लिये जाने के बाद आत्महत्या कर ली।

इन पंक्तियों के लेखक ने 25 वर्ष पहले, 1993 में अपने एक लेख ‘सत्ता के दलाल और दलालों की सत्ता’ जो ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताब, राजकमल, 2018 में संकलित है, में विस्तार से प्रमाण सहित यह बताया था कि किस प्रकार सत्ता के दलाल बढ़ते जा रहे हैं और सत्ता उनके हाथ में आ रही है। कोई भी घोटाला बिना राजनीतिक संरक्षण और सहयोग के संभव नहीं है। अपराधी सब हैं और इसी कारण लोकतंत्र घायल हो चुका है, संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही है और संघवाद भी प्रश्नांकित है।

अभी सबका ध्यान आगामी लोकसभा चुनाव, 2019 पर है। विपक्ष एकजुट हो रहा है और सबका एक सूत्री कार्यक्रम मोदी-शाह से इस देश को मुक्त करने पर है। कोलकता की घटना जुड़ी है सारदा चिटफंड घोटाले से, पर अभी सब घटनाओं के बहुआयामी अर्थ और आशय हैं, जिन्हें राजनीतिक दलों को अपने लाभार्थ न लेकर संविधान, लोकतंत्र और संघवाद की रक्षा और हिफाजत के रूप में देखना चाहिए।

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