समकालीन जनमत
साभार : गोरखपुर फिल्म सोसायटी
साहित्य-संस्कृति

साहित्य की पारिस्थितिकी पर खतरा

साहित्य की पारिस्थितिकी आखिर है क्या ? इसका सबसे पहला उत्तर किसी के भी दिमाग में यह आता है कि समाज ही साहित्य की पारिस्थितिकी है. लेकिन समाज तो एक अमूर्त धारणा है. वह हमारे सामने विभिन्न संस्थाओं के रूप में आता है. इन संस्थाओं में सत्ता भी शामिल है. स्वाभाविक है कि सत्ता के साथ उसकी आर्थिकी संयुक्त होती है. यह आर्थिकी भी हवा में नहीं बनती वरन किसी विचारधारा के अनुरूप निर्मित होती है .

इसके अतिरिक्त आधुनिक काल में छपाई की मुख्यता के चलते तमाम तरह के प्रकाशन संस्थान भी इसका अभिन्न अंग होते हैं . इसके साथ ही साहित्य की रचना का काम करने वाले रचनाकार उसके सबसे जरूरी घटक होते हैं . साहित्य के पाठक तो उसके अनिवार्य अंग हैं ही, साहित्य के साथ जुड़े तमाम संस्थान भी सत्ता द्वारा निर्मित किए गए हैं. इसके साथ ही साहित्य के रचनात्मक स्वरूप के चलते उसके साथ अन्य कला रूप भी जुड़े रहते हैं. शिक्षण संस्थाओं की उपस्थिति भी आज के दौर में कोई कम महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाती . संक्षेप में इन सबसे मिलकर वह वातावरण बनता है जिसके भीतर साहित्य सांस लेता है. इसीलिए साहित्य पर विचार करते हुए इन सबके बारे में बात होना अनावश्यक विषयांतर नहीं माना जाना चाहिए.

नब्बे के दशक में जब हमारे देश ने नव उदारवादी आर्थिकी को अपनाने का फैसला किया तो किसी ने नहीं सोचा था कि उसका असर अभिव्यक्ति की आजादी के लिए प्राणलेवा होगा. दुनिया के लगभग सभी देशों में इन आर्थिक नीतियों को लागू करने के लिए राजनीतिक तानाशाही का रास्ता अख्तियार किया गया था लेकिन भारत के लिए उसके एक नए रूप को गढ़ने का वादा उस जमाने में किया गया. शासन की ओर से कहा गया कि इसे मानवीय चेहरे के साथ लागू किया जाएगा. मनरेगा जैसी कथित गरीब समर्थक योजनाओं के चलते ऐसा भ्रम पनपा भी. फिर थोड़े ही दिनों बाद परदा खुल गया और उसकी हत्यारी सचाई सामने आ गई.

इस लेख के आरम्भ में ही राजनीतिक माहौल की चर्चा थोड़ी अटपटी लग सकती है लेकिन इस पद्धति के लिए मजबूत समर्थन परम्परा के भीतर से ही प्राप्त हो रहा है. अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में आचार्य शुक्ल ने प्रत्येक काल के शुरू में साहित्यिक पृष्ठभूमि के बतौर तत्कालीन आम माहौल की चर्चा की है और आधुनिक काल में तो खुलकर राजनीतिक वातावरण से साहित्यिक रचनाओं का गहरा संबंध जोड़ा है . दूसरे, साहित्य कोई ऐसी परिघटना नहीं है जिसका रिश्ता समाज से न हो. साहित्य की समूची पारिस्थितिकी होती है जिसमें भाषा, अभिव्यक्ति तथा ग्रहणशील समाज और उसकी संस्थाएं शामिल होती हैं.

आधुनिक काल में समाज ने राजनीति को प्रमुखता प्रदान कर दी है इसलिए साहित्य के प्रसंग में उसकी चर्चा लाजिमी है. साहित्य के साथ राजनीति के रिश्ते के प्रसंग में केवल एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाएगी. हम सभी जानते हैं कि पिछले कुछ दशकों के दौरान साहित्य की सबसे उत्तेजक परिघटना दलित साहित्य का उभार रही है. इस उभार के साथ राजनीतिक दुनिया की कुछ प्रवृत्तियों के संबंध से शायद ही कोई इनकार कर सकता है. यहां तक कि इस समय जो हिंदुत्ववादी उभार हुआ उसे भी इसी दलित उभार की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा है. अब तो सांस्कृतिक कहलाने वाले संगठन भी राजनीतिक काम कर रहे हैं और शुद्ध सांस्कृतिक तत्व प्रबल राजनीतिक अन्तर्य से भर गए हैं . ऐसे में आम राजनीतिक माहौल की चर्चा से बचना ही अनुचित होगा . यहीं यह बात भी साफ कर देना जरूरी है कि साहित्य के सभी आयाम समग्र सामाजिक वातावरण का अभिन्न अंग होते हैं .

हमारा वर्तमान बिना किसी इतिहास के नहीं होता इसलिए वर्तमान की जड़ तलाशते हुए नब्बे के दशक से बात शुरू करना जायज है । ध्यान देने की बात है कि हिंदी साहित्य का समूचा आधुनिक काल उपनिवेशवाद और उससे मुक्ति के लिए चलने वाली लड़ाई की छाया में लिखा गया है . नव उदारवाद भी औपनिवेशिक अर्थतंत्र का हालिया उभार है. जिस तरह अंग्रेजी शासन का देशी आधार जमींदारी थी उसी तरह इस नए दौर में भी स्थानीय सत्ता की तानाशाही इस नई आर्थिकी का आधार बनी हुई है. यह बात सहज बोध का अंग है कि शोषक अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद भी साम्राज्यवादी शोषण से मुक्ति नहीं मिली. देश की खेती को उपनिवेशवादी नीतियों के मुताबिक ढालने के अभियान पर थोड़े दिनों के लिए रोक लगी थी. वही नृशंस अभियान फिर से पूरी ताकत के साथ शुरू हो गया है . इस अभियान की शुरुआत के साथ ही सत्ता का भी वही औपनिवेशिक स्वरूप प्रकट हो रहा है. यहां तक कि सत्ता के आतंक से प्रतिबन्ध भी जिस तरह लग रहे हैं उनसे एक हद तक औपनिवेशिक शासन की याद आ रही है.

इसके लिए सबसे ताजा प्रकरण से बात शुरू करना ठीक होगा. मुम्बई से समीक्षा ट्रस्ट नामक संस्था की ओर से बौद्धिकों में सर्वाधिक लोकप्रिय अंग्रेजी पाक्षिक ‘इकोनामिक ऐंड पोलिटिकल वीकली’ का प्रकाशन होता है . इस पत्रिका का संपादक कुछ समय पहले ही परंजय गुहा ठाकुरता नामक वरिष्ठ पत्रकार को बनाया गया था .

परंजय की ख्याति का कारण हमारे देश में नव उदारवादी आर्थिकी के प्रसार के बाद उभरी क्रोनी कैपिटलिज्म (याराना पूंजीवाद) नामक परिघटना के उत्पाद अंबानी और अडाणी बंधुओं के विरुद्ध खोजपरक लेखन है . उन्होंने वर्तमान प्रधानमंत्री के निकट माने जाने वाले अडाणी के लिए शासन की ओर से दी गई भारी आर्थिक छूटों के बारे में दो लेख लिखे.

नतीजतन अडाणी ने ट्रस्ट को कानूनी कार्यवाही की धमकी दी. ट्रस्ट ने एक बैठक बुलाकर संपादक से वे लेख वापस लेने के लिए कहा. संपादक ने अपना लिखा वापस लेने के मुकाबले संपादक के पद से इस्तीफा दे दिया. इस घटना से समझा जा सकता है कि देश में आलोचना बरदाश्त करने के मामले में कितनी कमी आई है.

शायद दुहराने की जरूरत नहीं कि अगर आलोचना के प्रति सहज भाव नहीं होगा तो साहित्य के साथ न्याय नहीं हो सकेगा क्योंकि प्रेमचंद के अनुसार साहित्य मूल रूप से जीवन की आलोचना है ।

आलोचना न बर्दाश्त कर पाने की इसी भावना से पेरुमल मुरुगन के लिखे उपन्यास पर जब बवाल मचा तो दुखी होकर उन्होंने लेखक के रूप में अपने को मृत घोषित कर अपनी किताबें प्रकाशकों से वापस लेने की अपील की. उच्च न्यायालय के दखल के बाद स्थिति में सुधार होने पर उन्होंने फिर से लेखन शुरू किया. हाल में झारखंड के लेखक सौवेंद्र शेखर हंसदा के साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कहानी संग्रह ‘द आदिवासी विल नाट डान्स’ पर हंगामा शुरू होने पर झारखंड सरकार द्वारा उनकी किताब प्रतिबन्धित तो कर ही दी गई, उन्हें चिकित्सक की नौकरी से भी निलंबित कर दिया गया.

हमने पहले ही कहा कि साहित्य का रिश्ता अन्य कला माध्यमों से भी होता है और कला इतिहास के विद्वान आर्नल्ड हाउजर आधुनिक काल का सबसे मुकम्मल कला रूप फ़िल्म को मानते थे. फ़िल्म और साहित्य की आपसदारी के बारे में बहुतेरा बातें हुई हैं. दुनिया की सबसे अधिक फ़िल्में भारत में बनती हैं. भारत के अनेक फ़िल्म निर्माता विश्व स्तर पर चर्चित रहे हैं. फ़िल्म के शिक्षण प्रशिक्षण के लिए पुणे में फ़िल्म और टेलीविजन संस्थान है. नई सरकार ने उस संस्थान का निदेशक एक ऐसे व्यक्ति को बनाया जिसकी नियुक्ति का आधार उसकी गुणवत्ता की जगह शासक दल के साथ उसका जुड़ाव था. विरोध में संस्थान के विद्यार्थियों ने हड़ताल कर दी.  बहुत लंबी हड़ताल के बावजूद जब सरकार नहीं झुकी तो मजबूरन विद्यार्थियों को हड़ताल वापस लेनी पड़ी. इस घटना से सरकार की अनमनीयता और संवेदनहीनता तथा सब कुछ पर कब्जा करने की प्रवृत्ति का पहला गंभीर संकेत मिला.

फ़िल्म की विशेष स्थिति के चलते ही उसके सेंसर के लिए बाकायदे एक सरकारी संस्थान बनाया गया है. पहले भी इस संस्थान के नैतिक आग्रहों और रचनात्मक सिनेमा की साहसिकता के बीच टकराव होता रहा है. सेंसर बोर्ड नामक इस संस्था का भी राजनीतिक उपयोग शुरू हुआ. एक और अवांतर प्रसंग के बिना बहुत सारी बातें स्पष्ट नहीं होंगी. चुनाव पहले भी राजनीतिक सत्ता के लिए प्रतियोगिता का मंच रहे हैं लेकिन हाल के वर्षों में वे लगभग शासक दल के नेताओं का एकमात्र सरोकार बनकर रह गए हैं. तमाम किस्म के काम किसी न किसी चुनाव का ध्यान रखकर किए जा रहे हैं . सेंसर बोर्ड का इस्तेमाल पंजाब के चुनाव के लिए होने लगा. एक फ़िल्म पर आपत्तियां उठाई गईं क्योंकि उसमें पंजाब में नशे के व्यापार से राजनीति का रिश्ता उजागर किया गया था. इससे भी आगामी घटनाओं के पूर्व संकेत मिले.

साहित्य के लिहाज से सबसे खतरनाक घटनाओं में महाराष्ट्र और कर्नाटक में तीन साहित्यकारों की हत्या थी. इनमें से एक कलबुर्गी को तो कन्नड़ साहित्य में उनके काम के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त था. अन्य दो लेखक- नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे महाराष्ट्र के बौद्धिक सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हुए थे. इनकी हत्याओं ने एक नए समय की घोषणा की जिसमें बौद्धिकता के प्रति सम्मान की जगह हिकारत का वातावरण बनने वाला था. इस बुद्धि विरोध की आहट खुद प्रधानमंत्री द्वारा गणेश का सिर जोड़ने को प्लास्टिक सर्जरी की पहली घटना बताने या इसके थोड़े दिन बाद हार्वर्ड बनाम हार्ड वर्क की शब्दावली में विश्वविद्यालयी शिक्षा को दोयम साबित करने में सुनाई पड़ी .

बौद्धिकों की इन हत्याओं से देश सन्न था तभी हिंदी के एक साहित्यकार ने प्रतिरोध का नायाब तरीका खोज निकाला. हिंदी के प्रतिष्ठित कवि और कथाकार उदय प्रकाश ने कलबुर्गी की हत्या की साहित्य अकादमी की ओर से निंदा की मांग करते हुए अकादमी द्वारा प्रदत्त पुरस्कार लौटाने की न केवल सार्वजनिक घोषणा की बल्कि बाकायदे पुरस्कार राशि समेत उसे वापस भी भेज दिया.  धीरे धीरे तमाम लेखकों ने पुरस्कार लौटाने शुरू किए. इसके जवाब में साहित्य अकादमी ने प्रचंड निर्लज्जता का प्रदर्शन किया. उसने कोई निंदा या शोक प्रस्ताव तो नहीं ही पारित किया, आरोप लगाया कि लेखकों को इस पुरस्कार के कारण जो लाभ मिले उनकी वापसी नहीं हो रही है. साहित्य अकादमी जैसी सम्मानित संस्था प्रमुख की यह क्षुद्रता अश्रुतपूर्व थी.

लेखकों के प्रतिरोध का यह तरीका कितना कारगर था इसका अंदाजा इस बात से चलता है कि शासक सत्ता को आजादी के बाद पहली बार साहित्यकारों के बारे में बोलना पड़ा. शासन की प्रतिक्रिया अश्लील थी. उसने पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों को गिरोह के बतौर पेश किया और कहा कि अतीत में हुई अन्य घटनाओं पर ऐसा कदम क्यों नहीं उठाया गया. धीरे धीरे विरोध का यह तरीका साहित्यकारों से फैलकर अन्य सांस्कृतिक कर्मियों और बौद्धिकों तक जा पहुंचा. फ़िल्म से लेकर विज्ञान तक के तमाम नामचीन लोगों ने चुप्पी तोड़ी और इस विरोध प्रदर्शन में शरीक हुए. स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास में यह अभूतपूर्व गौरवशाली क्षण था जब सत्ता को साहित्य के बारे में बोलना पड़ा .

इस घटना ने साहित्यकारों को एक विशेष ताकत के बतौर स्थापित किया. जिन्होंने पुरस्कार लौटाए उनके सार्वजनिक वक्तव्य ऐतिहासिक घोषणाओं की तरह सुनाई पड़े और इसी तरह प्रचारित हुए . साहित्यकार पहली बार अपने संगी साथियों समेत नजर आए. बहुत समय के बाद ऐसा हुआ कि रचनाशीलता की विभिन्न विधाओं के श्रेष्ठ व्यक्तियों के साथ श्रेष्ठ वैज्ञानिक भी खड़े हुए.

बुद्धि विरोध के इस अभियान का अगला चरण भारत भर के विश्वविद्यालयों में पड़ा. पुणे स्थित फ़िल्म और टेलीविजन संस्थान की चर्चा हो चुकी है. हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में दलित शोधार्थी रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से दमन और उसके प्रतिरोध का नया अध्याय शुरू हुआ. नवउदारवाद के बाद से ही शिक्षा को निजी क्षेत्र में ले जाने के लिए तमाम किस्म के तर्क दिए जाते रहे हैं. इसमें भी खास तौर पर उच्च शिक्षा को धन की बरबादी का स्रोत बताया जाता रहा था. ऐसे में विश्वविद्यालयों के बारे में जान बूझकर ऐसी बातें फैलाई जाने लगीं जिनसे उन्हें बदनाम करने का अभियान चलाने में आसानी हो .

हैदराबाद के बाद सुनियोजित तरीके से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को निशाना बनाया गया । विचार की स्वतंत्रता और बहुलता की जगह के रूप में शिक्षा संस्थानों को समाप्त करने का विचित्र सपना देखा गया । शिक्षा मात्र पर सरकारी धन की बेवजह बरबादी का नवउदारवादी तर्क भी इसी बहाने प्रचारित किया गया । शिक्षण संस्थानों से आलोचना का माहौल समाप्त कर देने के लिए अध्यापकों के लिए भी सरकारी कर्मचारियों पर लागू होने वाले नियमों को लागू करने की कोशिश चल रही है । इन नियमों के तहत सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना की मनाही होती है । बदले में शिक्षण संस्थानों ने प्रतिरोध का नायाब तरीका खोज निकाला । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्रवाद के प्रश्न पर खुले आसमान के नीचे वैकल्पिक कक्षाएं आयोजित हुईं । इन कक्षाओं के व्याख्यान संकलित होकर ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में प्रकाशित प्रसारित हो रहे हैं। पूरी दुनिया ने फटी आंखों से इस हमले और उसके रचनात्मक प्रतिरोध को देखा । भविष्य में तानाशाहों के दंभ भरे बयानों को कोई याद नहीं रखेगा। अगर शोध होंगे तो उस अद्भुत अपार मानव क्षमता की अभिव्यक्तियों की बात होगी जो इस कठिन समय में पैदा हुईं ।

इसके अतिरिक्त वर्तमान के बारे में विचार करते हुए एक और परिघटना की जांच की जानी चाहिए । आधुनिक काल के शुरू में साहित्य की छपाई ने उसका रूप बदला था । उस दौर के बाद इस समय की तकनीक भी साहित्य पर बुनियादी प्रभाव डाल रही है। स्वाभाविक है कि प्रतिक्रिया की ताकतें और उसी तरह प्रगति की समर्थक ताकतें भी तकनीक की इस नवीनता का फायदा उठाने की कोशिश कर रही हैं । पाबंदी और गोलबंदी के नए इलाके के बतौर इसका विकास हुआ है । इसे सोशल मीडिया कहा जाता है । इसकी ताकत भी सामाजिक शक्ति संरचना के अनुरूप ही निर्मित हो रही है । जब बदलाव के पक्षधर इस मामले में मजबूत दिखाई पड़ते हैं तो शासन की ओर से निगरानी और पाबंदी की कानूनी और गैर कानूनी कोशिश तेज हो जाती है । दूसरी ओर सत्ता संस्थान भी इसका लाभ उठाने की चेष्टा कर रहे हैं । गंभीर बातचीत का माहौल समाप्त करके अफवाह को जानकारी के रूप में फैलाने के लिए इसका उपयोग, तकनीक के चिंताजनक इस्तेमाल का सवाल पेश करता है । लेकिन यह भी सच है कि इसके चलते अभिव्यक्ति के समानांतर और वैकल्पिक मंच खुल गए हैं । एक हद तक इसने आबादी के उन हिस्सों को भी शरीक होने का मौका दिया है जो अब तक बोलने में हिचकते थे ।

जो भी हो एक बात निश्चित है । हम एक बेहद उत्तेजक समय में रह रहे हैं । जिन लड़ाइयों को खत्म मान लिया गया था वे फिर से शुरू हो गई हैं । हमारी पीढ़ी पर पुरानी ढेर सारी आधी अधूरी छोड़ दी गई लड़ाइयों को उनके अंजाम तक पहुंचाने की तकलीफदेह जिम्मेदारी आ पड़ी है । हमारे देश में अब तक धर्मनिरपेक्षता के सवाल को सर्व-धर्म समभाव के रूप में ग्रहण किया गया था । स्वाभाविक था कि इस प्रक्रिया में राज्य बहुसंख्यक धर्म की ओर झुक जाता रहा है । इसी तरह सामाजिक न्याय को राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सरकारी नौकरी में आरक्षण मात्र मान लिया गया था । दुर्भाग्य की बात कि सामंती सामाजिक व्यवस्था के लिए इतना भी पचाना मुश्किल हो जाता है । गाहे बगाहे आरक्षण के दबे छुपे विरोध की जड़ में सुविधासंपन्न तबकों की यही असुविधा है ।

इतिहास गवाह है कि समाज के वंचितों और दलितों ने शिक्षा और साहित्य की दुनिया में कदम रखने का जब भी मौका पाया उसी समय उनकी भयंकर मुखालफ़त भी हुई । यह मौका उन्हें शिक्षा की आधुनिक प्रणाली में मिलना शुरू हुआ था । तमाम विद्वानों ने शोध करके साबित किया है कि शिक्षा के क्षेत्र में स्त्रियों की आमद के साथ ही उन्हें वापस घर में ढकेलने के मकसद से त्यागी और आदर्श घरेलू स्त्री के नवजागरणकालीन प्रतीक गढ़े गए । जब सरकारी सेवाओं में आरक्षण शुरू हुआ तो सरकारी सेवाओं में भर्तियां बंद हो गईं । निजी क्षेत्र में आरक्षण के प्रति हिचक के पीछे जातिवादी दिमाग नहीं तो और क्या हो सकता है ! बहुत पहले वाल्टर बेंजामिन ने चेताया था कि सभ्यता की ओर प्रत्येक कदम उसी समय बर्बरता की ओर भी एक कदम होता है । तरक्की के साथ ही हमने व्यापक हिंसा के परिष्कृत साधनों का भी आविष्कार किया है ।

स्त्री उभार के ही दिनों में हमारे देश की संसद के भीतर महिला आरक्षण बिल का जो हश्र हुआ वह किसी विराट दुखांतिकी (ट्रेजेडी) से कम नहीं है । फिलहाल तो उसकी बात करने की भी फ़ुर्सत किसी के पास नहीं है । ऐसा लगता है मानो स्त्रियों और शूद्रों के संसद प्रवेश से भारत विश्व गुरु बनने से चूक जाएगा ! सोचना चाहिए कि हम मनुस्मृति से कितना आगे बढ़ सके हैं ! उस समय वेद पढ़ने पर पाबंदी लगाना जरूरी था क्योंकि तब वेद ही शक्ति का स्रोत थे । आज चूंकि संसद से शक्ति प्राप्त होती है इसलिए इन तबकों को संसद में घुसने से रोकने के लिए तमाम उपाय किए जा रहे हैं । आखिर कोई तो कारण रहा होगा कि जिन्हें शासक पार्टी के लोग आधुनिक मनु की संज्ञा से नवाजते हैं उन्हीं अंबेदकर को अपने समय में सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति जलानी पड़ी थी ।

इस प्रक्रिया का प्रमाण इस समय भी देखने को मिल रहा है । हालिया अतीत का दौर अगर समाज के दो उत्पीड़ित तबकों (स्त्री और दलित) की साहित्य की दुनिया के साथ साथ सामाजिक और राजनीतिक रंगमंच पर आमद का दौर था तो वर्तमान दौर उस जागरण को कुचल देने की सुसंगठित चेष्टा का है । वंचित समुदाय के इस ऐतिहासिक जागरण को कुचलने की कोशिश करने वालों को याद रखना चाहिए कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जिसे मानव समुदाय की अपराजेय जययात्रा कहा था उसके लिहाज से महत्वपूर्ण चीज मनुष्य की आकांक्षा का दमन नहीं बल्कि उस दमन का व्यवस्थित और अप्रतिहत प्रतिरोध है ।

यह प्रतिरोध नितांत नई भाषा में प्रकट हो रहा है । कौन सोच सकता था कि बंगलोर में श्रीराम सेने के स्त्री विरोधी अभियान का विरोध उन्हें गुलाबी चड्ढियां भेजकर किया जा सकता है । प्रेम को आपराधिक बनाने के विरोध में किस फ़ार लव जैसा आंदोलन चलाया जा सकता है । दलितों की बस्ती में मुख्यमंत्री के आगमन से पहले साबुन बंटवाने के अपमानजनक आचरण के विरोध में मुख्यमंत्री के लिए सवा सौ किलो का साबुन उपहार में प्रदान किया जा सकता है । प्रतिरोध के बेहद नए प्रतीक निर्मित हो रहे हैं । शिक्षण संस्थानों में सेना के टैंक रखवाने की कवायद के विरोध में सीमा पर पुस्तकालय खोलवाने की मांग हो रही है । सृजनात्मक अभिव्यक्तियों का सबसे मजबूत विस्फोट सनक भरी नोटबंदी के समय की कविताएं और गीत हैं जिनके सहारे जनता ने इस आपदा का गरिमा के साथ मुकाबला किया ।

साहित्य के लिहाज से चिंता की सबसे बड़ी बात समाज के साथ साथ भाषा और संवेदना में हिंसा की बढ़ोत्तरी है । क्रिकेट की भाषा से इसकी शुरुआत हुई थी । जब भी खेल में भारत और पाकिस्तान की टीमें आमने सामने होती थीं तो समूची फौज की जिम्मेदारी ग्यारह खिलाड़ियों के कंधों पर डाल दी जाती थी । खेल का मैदान युद्ध का रूपक बन जाता था । इसके बाद नक्सलियों और आतंकवादियों के साथ कश्मीर की जनता के मामले में ऐसी ही युद्धक संवेदनहीनता का वातावरण बनाया गया । इन सभी मामलों में अखबार और संचार के अन्य माध्यमों की भाषा ने देश की जनता को ही शत्रु के तौर पर पेश किया और राज्य की ओर से इनकी हत्या को उत्सव की भाषा में प्रस्तुत किया।

निर्दयता को यदि समाज में सकारात्मक मूल्य के रूप में मान्यता मिलेगी तो साहित्यकार किस तरह पाठकों में कोमल भावनाओं को जगा सकेगा । आगामी समय में साहित्य के समक्ष एक मुश्किल चुनौती के रूप में यह समस्या पेश आएगी ।

इस बात को इसी सितंबर माह में अध्यापक दिवस के दिन कर्नाटक की राजधानी बंगलुरू में प्रसिद्ध कन्नड़ कवि लंकेश की पुत्री गौरी लंकेश की हत्या के बाद की प्रतिक्रियाओं से समझा जा सकता है । विदित हो कि गौरी अपने पिता की पत्रिका ‘लंकेश पत्रिके’ का उनके देहान्त के बाद भी संपादन-प्रकाशन जारी रखे हुए थीं । इस पत्रिका के अंतिम संपादकीय में उन्होंने झूठी खबरें बनाने और फैलाने वाले प्रचार तंत्र का खुलासा किया था । इस सिलसिले में उन्होंने केंद्र में शासन चलाने वाली पार्टी, सरकार के मुखिया और उनके विचारधारात्मक संगठन का खुलकर नाम लिया था । गौरी की इस पत्रिका के पाठक बहुत थे । हत्या की खबर मिलते ही पूरे कर्नाटक में लोग सड़कों पर उतर आए । उन्हें गौरी की हत्या इससे पहले एक और कन्नड़ साहित्यकार कलबुर्गी की हत्या की अगली कड़ी महसूस हुई ।

उधर दूसरी ओर ट्विटर पर एक सज्जन ने लिखा ‘कुतिया मारी गई, पिल्ले बिलबिला रहे है’ । जिन्होंने यह लिखा उनके लिखे को देश के प्रधानमंत्री देखते पढ़ते हैं । किसी की मौत के बाद उसकी विचारधारा के कारण सार्वजनिक रूप से निर्लज्ज खुशी मनाने का यह पहला मौका था । यहां तक कि उसी पार्टी के एक विधायक ने वक्तव्य दिया कि गौरी की हत्या न होती अगर उसने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विरोध में न लिखा होता । इस प्रसंग में पारंपरिक संचार माध्यमों के साथ नए माध्यमों का भी सवाल उठा । सभी जानते हैं कि पत्रिकाओं के अतिरिक्त लगभग सभी संचार माध्यम भारी पूंजी निवेश के मुखापेक्षी होते हैं इसलिए उनमें पूंजी के हित साधन की ध्वनि मिलना सहज है । लेकिन संचार माध्यम केवल पूंजी के बल पर नहीं चल सकते । उनकी लोकप्रियता भी अपेक्षित होती है इसलिए जन पक्षधरता भी उन्हें बनाए रखनी होती है । सूचना से आगे बढ़कर विचार का माहौल भी बहुधा इन माध्यमों के सहारे निर्मित होता है । इस माहौल से कुल मिलाकर साहित्य का समझदार पाठक बनता है ।

दुनिया भर में मीडिया की भूमिका में बदलाव आया है । उसके भीतर से आलोचना का तत्व गायब हुआ है । साहित्य की दृष्टि से यह निहायत खतरनाक बात है क्योंकि साहित्य लिखना ही विरोध का साथ देना है । हालात से असंतोष के चलते ही लोग साहित्य का सृजन करते हैं । यदि चुप्पी ही काम्य होगी तो भविष्य में विद्यार्थियों को कक्षा में बताने के लिए साहित्य नहीं रह जाएगा ।

हिंदी भाषा, हिंदी भाषी समाज और हिंदी साहित्य में प्रतिष्ठा सत्ता का साथ देने वालों के मुकाबले उससे जूझने वालों की रही है । मुक्तिबोध और त्रिलोचन के इस जन्म शती वर्ष में उनके साहित्य के बहाने यह दावा तो किया ही जा सकता है कि हिंदी की मुख्य धारा समर्पण के मुकाबले प्रतिरोध की रही है । ऐसा नहीं कि हिंदी में दरबारी साहित्यकार नहीं रहे लेकिन तय है कि आम जनता की श्रद्धा का पात्र दरबार के बाहर रहने और उसका विरोध करने वाले ही रहे हैं । सही बात है कि आलोचनात्मक विवेक के क्षरण के चलते साहित्य में उथलापन आया है और पुरस्कार प्रेम में बढ़ोत्तरी हुई है । लेकिन याद करें कि पहले जिस औपनिवेशिक समय का जिक्र हमने किया उस समय पुरस्कृत होने वालों के मुकाबले दंडित होने वालों को समाज ने याद रखा तो कह सकते हैं कि जो आज चर्चा से बाहर है, कल महत्वपूर्ण साबित होगा।

(प्रो गोपाल प्रधान का यह लेख ‘ प्रसंग ‘ के अगस्त अंक में प्रकाशित हुआ है )

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