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दक्षिणपंथ की कीलें

मोदी सरकार के चाल साल पूरे हो चुके हैं इस दौरान हिन्दू दक्षिणपंथियों के बेलगाम रथ एक के बाद एक झंडे गाड़ने में व्यस्त रहा है. उनकी उपलब्धियां अभूतपूर्व है, आज देश में राष्ट्रपति,  उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्री और 15 राज्यों में मुख्यमंत्री सीधे तौर पर भगवा खेमे से हैं. यही नहीं छह राज्यों में सहयोगी दलों के साथ उनकी सरकारें हैं. भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी तो पहले से ही है अब वो राज्यसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है.

लेकिन यह सफलता महज चुनावी विस्तार और सत्ता की लड़ाई तक सीमित नहीं है बल्कि विचार और नजरिये की भी जीत है. 2014 के बाद से बहुत ही सजग तरीके से इस देश, समाज और राज्य को रीडिफाइन करने की कोशिशें की गयी हैं.

आज देश की राजनीति और समाज में दक्षिणपंथी विचारधारा का दबदबा है. अब संघ परिवार अपने उन एजेंडों के साथ खुलकर सामने आ रहा है जो काफी विवादित रहे है और इनका सम्बन्ध धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों, इतिहास, संस्कृति, धर्मनिरपेक्षता और भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के उनके पुराने सपने से है.

तो क्या आज हिन्दू राष्ट्र का सपना देखने वाले अपने ख्वाब के सबसे करीब पहुँच चुके हैं ?

असली चेहरा और मंसूबे

2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी की विकास पुरुष के रूप में जबरदस्त छवि निर्माण की गयी थी जिसमें कारपोरेट घरानों, मीडिया, पब्लिक रिलेशन एजेंसियों और संघ परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका थी. वे “ सबका साथ, सबका विकास ” और  “ अच्छे दिनों ” के नारे के साथ सत्ता में आये थे, लेकिन फिर जल्दी ही सारे वायदे ताक पे रख दिए गये और उनकी जगह पर हिन्दुत्व से जुड़े मुद्दों पर ले आया गया.

यह एक ऐसा फरेब था जिसे समझने में आर्थिक उदारवादियों को तीन साल लग गये और फिर अंतरराष्ट्रीय कारोबारी पत्रिका ‘द इकोनॉमिस्ट ’ ने गुत्थी सुलझाते हुये यह घोषणा कर ही दी कि दरअसल नरेंद्र मोदी “ आर्थिक सुधारक के भेष में हिंदू कट्‌टरपंथी हैं. ”

दरअसल भारत के राजनीति के केंद्र में अब “ राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ ” नाम का संगठन और उसकी विचारधारा है जो बहुत ही अनौपचारिक तरीके से अपने नितांत औपचारिक कामों को अंजाम देता है. मात्र चुनाव ही आरएसएस की राजनीति नहीं है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वर्तमान के किसी राजनीतिक पार्टी, सामाजिक संस्था या संगठन के ढांचे में फिट नहीं बैठता है इसलिये उसे समझने में हमेशा चूक कर दी जाती है.

आरएसएस के 80 से ज्यादा आनुषांगिक संगठन हैं जिन्हें संघ परिवार कहा जाता है, ये संगठन जीवन के लगभग हर क्षेत्र में सक्रिय हैं, यह सभी संगठन संघ की विचारधारा से संचालित होते हैं और इन्हीं के जरिये संघ परोक्ष रूप से हर क्षेत्र में हस्तेक्षप करता हैं. भारतीय जनता पार्टी भी उसके लिये चुनावी राजनीति के फ्रंट पर एक अघोषित विंग है. इस तरह से आरएसएस भारत की एक मात्र आइडीयोलोजिकल संगठन है जो चुनावी राजनीति सहित जीवन के सभी हलको में काम करती है.

1925 में अपनी स्थापना के बाद से लेकर आज तक संघ ने समय और परिस्थितयों के साथ अपने आप को बखूबी ढाला है लेकिन अपने करीब नौ दशक की यात्रा में आर.एस.एस. कभी अपनी राह से भटका भी नही और यहाँ तक पहुँचने में उसने जबरदस्त धैर्य और लचीलेपन का परिचय दिया है. वो बहुत ही ख़ामोशी के साथ आधुनिक लोकतान्त्रिक और बहुलतावादी भारत के समानांतर नैरेटिव के तौर पर काम करता रहा है. आज भी उसे कोई हड़बड़ी नहीं है और वो बहुत सघनता के साथ अपने अंतिम लक्ष्य को साधने में लगा हुआ है.

संघ का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति नही है वे भारतीय समाज का पूरी तरह से ट्रांसफॉर्मेशन चाहते हैं. इसे वे समाज में “हिन्दुत्व” की चेतना का विकास कहते हैं.

यकीनन मोदी पिछले सभी सरकारों से कई मायनों में अलग है. अपने एक लेख में  संघ विचारक राकेश सिन्हा लिखते हैं कि  ‘2014 का सत्ता परिवर्तन एक महत्वपूर्ण अध्याय है. यह केवल भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का सत्ता में आना नहीं है, बल्कि ये एक वैचारिक परिवर्तन है. अब भारत ने नए युग में प्रवेश कर लिया है यह भगवा युग है ”. अगर आप ध्यान दें तो पायेंगें की संघ परिवार के लोग अब यह नहीं कहते है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है. वे अब इसे स्वभाविक रूप से हिन्दू राष्ट्र बताने लगे हैं. सरसंघचालक मोहन भागवत कई बार यह दोहरा चुके हैं कि ‘भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और हिन्दुत्व ही इसकी पहचान है.’

“अच्छे दिनों” का नारा अब “नया भारत” में तब्दील हो चूका है, प्रधानमंत्री मोदी ने साल 2022 यानी आजादी की 75वीं वर्षगांठ तक ‘नया भारत’ बनाने का संकल्प लिया है. मोदी बहुत अच्छे से जानते हैं कि चुनाव जीतने के लिये हर बार नये सपने बेचने की जरूरत पड़ती है. नया भारत का नारा 2019 के चुनाव का नारा है लेकिन यह इतना भर नहीं है. उम्मीद जताई जा रही है कि भाजपा को 2020 तक राज्य सभा में भी बहुमत हासिल हो जाएगा तब शायद नरेंद्र मोदी की सरकार को अपने एजेंडे को आगे बढ़ने में कोई रूकावट नहीं होगी.

लक्ष्य स्पष्ट है संघ प्रमुख मोहन भागवत भारतीय संविधान में बदलाव कर उसे भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों के अनुरूप बनाने की वकालत करते रहे हैं और अब केंद्र सरकार के मंत्री भी अपने मंसूबों को बहुत खुले तौर पर सामने लाने लगे हैं. भारत सरकार के मंत्री अनंत कुमार हेगड़े स्पष्ट रूप से कह चुके हैं कि “भाजपा संविधान बदलने के लिए ही सत्ता में आई है और निकट भविष्य में ही ऐसा किया जाएगा ”.

दक्षिणपंथ की कीलें  

दक्षिणपंथियों ने इन चार सालों का इस्तेमाल अपनी किले को मजबूत करने और नयी कीलों को ठोकने में किया है. आज संस्कृति, समाज, विचारधारा, अर्थव्यवस्था सभी क्षेत्रों में दक्षिणपंथ हावी है और ऐसा उन्होंने उदारवादी लोकतंत्र के सभी संस्थानों का उपयोग करते हुए किया है. उदारवादी संस्थाओं के द्वारा अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने में महारत तो पहले ही हासिल कर चुके थे इसलिए आज भारत की सत्ता पर काबिज होने के बावजूद उन्हें उदारवादी लोकतान्त्रिक संस्थाओं के बाहरी शेल को खत्म करने की जरूरत नही है. वे तो दीमक की तरह इसे खोखला बना रहे हैं और फिर उसी की मलबे के ढेर परमहान हिन्दू राष्ट्रका निर्माण किया जाएगा.

सत्ता में आने के बाद से मोदी सरकार और संघ परिवार ने मिलकर देश का नैरेटिव बदल दिया है. उनका पूरा जोर आजादी के लडाई के दौरान निकले सेक्युलर और प्रगतिशील “ भारतीय राष्ट्रवाद ” की जगह “हिन्दू राष्ट्रवाद” को स्थापित करने पर है. इस दौरान संघ परिवार की ओर से बार-बार दोहराया गया है कि ‘ भारतीय राष्ट्रीयता का आधार हिन्दुत्व है ’. पिछले चार सालों के दौरान मोदी सरकार के रवैये, उठाये गये कदमों तथा संघ परिवार के हरकतों से यह आशंका सही साबित हुई है कि राष्ट्र के तौर पर हम ने अपना रास्ता बदल लिया है.

इस दौरान धार्मिक अल्पसंख्यकों व दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा बढ़ी है और उनके बीच असुरक्षा की भावना मजबूत हुई है, देश के लोकतान्त्रिक संस्थाओं पर हमले हुए हैं और भारतीय संविधान के उस मूल भावना का लगातार उल्लंघन हुआ है जिसमें देश के सभी नागरिकों को सुरक्षा, गरिमा और पूरी आजादी के साथ अपने-अपने धर्मों का पालन करने की गारंटी दी गयी है. भारतीय संविधान के अनुसार राज्य का कोई धर्म नहीं है लेकिन इन सब पर बहुत ही सुनोयोजित तरीके से हमले हो रहे हैं.

भारत की विविधता पर बहुसंख्यकवाद को थोपा जा रहा है और राज्य अपने आपको हिंदू धर्म के संरक्षक के तौर पेश कर रहा है. पहले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगाम लगाने की कोशिश की गयी और अब खान पान और रहन-सहन को निशाना बनाया जा रहा है. हिंदू पुनरुत्थान के लिए भव्य आयोजन हो रहे हैं.

भारत और भारतीयता को भी  बहुत तेजी से रीडिफाइन किया जा रहा है. आज भारतीयता का हिन्दुत्व के साथ घाल-मेल किया जा रहा है जिसे राजसत्ता में शीर्ष पर बैठे हुये लोग ही आगे बढ़ा रहे हैं. पिछले साल उप राष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने एक सावर्जनिक कार्यक्रम में कहा था कि “प्राचील काल से हमें जो मिला है वो भारतीयता है. जिसको कुछ लोग हिंदुत्व कहते हैं, इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए.”

हमारे संविधान में नागरिकता का आधार भौगोलिक माना गया है यानी जिसने भी भारत भूमि पर जन्म लिया वो भारत का स्वाभाविक और समान नागरिक है, कुछ शर्तों के तहत दूसरे देशों में जन्मा व्यक्ति भी भारत का नागरिक हो सकता है लेकिन इनमें धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं है. अब नागरिकता को भी पुनर्परिभाषित करने की कोशिशें की जा रही हैं. जुलाई 2016 में मोदी सरकर ने ‘ नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 ’ लोकसभा में पेश किया था. इस विधेयक में ‘अवैध प्रवासियों’ की परिभाषा में बदलाव किया गया है. अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई लोगों को ‘अवैध प्रवासी’ नहीं माना जाएगा. दूसरी तरह से देखें तो यह संशोधन सिर्फ पड़ोसी देशों से आने वाले मुस्लिम लोगों को ही ‘अवैध प्रवासी’ मानता है जबकि लगभग अन्य सभी लोगों को इस परिभाषा के दायरे से बाहर कर देता है.जबकि 1955 के पुराने नागरिकता कानून के अनुसार किसी भी ‘अवैध प्रवासी’ को भारतीय नागरिकता नहीं दी जा सकती है यानी इसमें मजहब का फर्क नहीं था.फिलहाल यह विधयेक संसदीय समिति के पास विचाराधीन है.

पिछले साल दिसम्बर में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने त्रिपुरा में भारत को हिंदुओं की धरती बताते हुए कहा था कि दुनियाभर से प्रताड़ित हिंदू इस देश में आकर शरण लेते हैं. हिन्दू भूमि कि यह परिकल्पना यहूदियों के इजराइल राष्ट्र के करीब बैठती है. प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी भी अपने विदेशी दौरों के दौरान बहुत बारीकी से यह सन्देश देने की कोशिश करते हैं कि विदेशों में रहने वाले भारतीय (जिनमें से अधिकतर हिन्दू हैं और भारत के नागरिक भी नहीं हैं) वृहद “भारतीय समुदाय” का हिस्सा है और वे भले ही दुनिया के किसी भी भाग में रहते हों लेकिन वे भारत का वैध हिस्सा हैं.

1947 में विभाजन के बाद शायद पहली बार भारतीय समाज इतना विभाजित और आपसी अविश्वास से भरा हुआ नजर आ रहा है लेकिन दुर्भाग्य से यह इतना भर नहीं है, आज हम ऐसे दौर में पहुँच चुके हैं जहाँ अपराधों का भी सामुदायिकरण होने लगा है. संघ हमेशा से ही हिंदुओं को उनकी तथाकथित सहनशीलता, कायरता और अल्पसंख्यकों से घुलने-मिलने की उनकी प्रवृत्ति को लेकर उकसाता रहा है और अब वे इसमें सफल होते दिखाई पड़ रहे हैं.

आज भारत पर जैसे भीड़ और नफरत भरी भावनाओं का राज हो गया है और इस आधार पर बड़े से बड़ा अपराध करने वाले लोग हमारे नये देवता बन गये लगते हैं. कठुआ की घटना  किसी भी संवेदनशील इंसान को दर्द और हताशा से भर देने वाली है. आठ साल की एक बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या के आरोपियों के समर्थन में हिंदू एकता मंच के बैनर तले बाकायदा तिरंगा यात्रा निकाला  जाती है जिसमें “भारत माता की जय” के नारे लगते हैं और आरोपियों के रिहाई की मांग की जाती है, सोशल मीडिया पर भी नफरत के जहर में डूबे मानसिक रोगी “अच्छा हुआ वो लड़की मर गई, वैसे भी बड़ी होकर आतंकवादी ही बनती” जैसे बातें लिखते नजर आये.

हत्यारे शंभू लाल रैगर के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ था जिसने पिछले साल 6 दिसम्बर को मोहम्मद अफ़राज़ुल नाम के 50 वर्षीय प्रवासी मज़दूर की कुल्हाड़ी से निर्मम हत्या करने के बाद उसके शव को पेट्रोल डालकर जला दिया था. अपने इस कृत्य को उसने फोन के कैमरे में रिकॉर्ड भी किया था जिसे उसने उसने सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया था. बाद में सोशल मीडिया में शंभू लाल के समर्थन में अभियान चलाया गया,उसे बचाने के लिए चंदा इकट्ठा किया और राजस्थान के जसमंद में उसके समर्थन में उग्र प्रदर्शन किये गये. इस दौरान भीड़ ने कोर्ट के छत पर चढ़ कर भगवा झंडा फहराया. फिर जोधपुर में रामनवमी के दौरान निकाली गयी झांकी में शंभुलाल को भगवान की तरह  दर्शाये जाने की खबरें भी आयीं.

उपरोक्त घटनायें पाकिस्तान का याद दिलाती हैं जहाँ कुछ सालों पहले पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की ईश निंदा क़ानून का विरोध करने के कारण हत्या कर दी गयी थी और उनके कातिल की कोर्ट में पेशी के दौरान वकीलों ने उस पर फूल बरसाते हुये उसके समर्थन में नारे लगाए थे. आज  लगता है हम भी पाकिस्तान के उसी रास्ते पर चल पड़े है जिसका अंजाम बर्बरता और तबाही है.

लोकतांत्रिक स्तंभों और संस्थाओं पर हमले

पिछले चार सालों के दौरान हमारे लोकतंत्र के स्तंभों और धर्मनिरपेक्ष व उदारवादी संस्थानों को रीढ़हीन बनाने की हर मुमकिन कोशिश की गयी है, फिर वो चाहे न्यायपालिका, चुनाव आयोग और मीडिया जैसे लोकतंत्र के स्तंभ हों या या शैक्षणिक संस्थान.

भारत में न्यायपालिका की साख और इज्जत सबसे ज्यादा रही है लेकिन पिछले कुछ समय से सुप्रीम कोर्ट लगातार गलत वजहों से सुर्ख़ियों में है. जजों की नियुक्ति के तौर-तरीकों को लेकर मौजूदा सरकार और न्यायपालिका में खींचतान की स्थिति शुरू से ही रही है, लेकिन 12  जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार सिटिंग जज न्यायपालिका की खामियों की शिकायत लेकर पहली बार मीडिया के सामने आए तो यह अभूतपूर्व घटना थी जिसने बता दिया कि न्यायपालिका का संकट कितना गहरा है  और न्यायपालिका की निष्पक्षता व स्वतंत्रता दावं पर है.

इसी तरह से चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर भी गंभीर सवाल हैं. कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018 की घोषणा के दौरान ऐसा पहली बार हुआ है कि चुनावों की तारीखों की  घोषणा चुनाव आयोग से पहले किसी पार्टी द्वारा किया जाए. दरअसल चुनाव आयोग की प्रेस कॉन्फ्रेंस चल रही थी और मुख्य चुनाव आयुक्त चुनाव की तारीखों का ऐलान करने ही वाले थे  लेकिन भाजपा आईटी सेल प्रमुख अमित मालवीय ने ट्वीट के जरिये इसकी घोषणा उनसे पहले ही कर दी. इससे पहले गुजरात विधानसभा चुनाव की तारीख़ तय करने में हुई देरी को लेकर मुख्य चुनाव आयुक्त की नीयत पर सवाल उठे थे.

इसी तरह से आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों को अयोग्य घोषित करने के मामले में भी चुनाव आयोग पर गंभीर सवाल उठे थे बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने आप के विधायकों को अयोग्य ठहराने के चुनाव आयोग की सिफ़ारिश को ‘दोषपूर्ण’ बताते हुए अधिसूचना को रद्द कर दिया. इसी क्रम में मोदी सरकार ने “वन नेशन,वन इलेक्शन” का नया शिगूफा पेश किया है जिसमें लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत की जा रही है. यह एक खतरनाक मंसूबा है, मोदी सरकार इसके लिये पूरा जोर लगा रही है और अगर वो इसमें कामयाब हो गयी तो यह भारतीय लोकतंत्र के ताबूत में आखरी कील साबित हो सकती है.

मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा जाता है आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. भारत की मीडिया अपने आप को दुनिया की सबसे घटिया मीडिया साबित कर चुकी है.  इसने अपनी विश्वनीयता पूरी तरह से खो दी है और इसका व्यवहार सरकारी भोंपू से भी बदतर  हो गया है. सत्ता और कॉरपोरेट की जी हजूरी में इसने सारे हदों को तोड़ दिया है. आज हालात यह है कि सत्ताधारी इसे झुकने के लिये बोले तो यह पूरी तरह उसके क़दमों में पसर जाता है. इधर एक सुनियोजित तरीके से मीडिया में मोनोपोली भी बढ़ी है जिसके तहत औधोगिक घरानों द्वारा मीडिया समूहों का शेयर खरीद कर उनका अधिग्रहण किया जा रहा है.

आज संघ परिवार ने भले ही राजसत्ता हासिल कर ली हो लेकिन बौद्धिक जगत में उसकी विचारधारा अभी भी हाशिये पर है और वहां नरमपंथियों व वाम विचार से जुड़े लोगों का सिक्का चलता है. पीछे चार सालों में सबसे महीन काम इसी क्षेत्र में ही किया जा रहा है. आज हमारे विश्वविद्यालय परिसर वैचारिक संघर्ष की रण भूमि बने हुए हैं. हम लगातार देख रहे हैं कि कैसे हमारे उच्‍च शैक्षणिक संस्‍थानों पर हमले बढ़ते गये हैं. इसके लिये राज्य  की मशीनरी का खुला इस्तेमाल किया हो रहा है.

2019 का चुनाव निर्णायक है

2025 में संघ की स्थापना के सौ साल पूर हो रहे हैं और इसी के साथ ही वो अपने हिन्दू राष्ट्र की प्रोजेक्ट को पूरा होते हुये देखना चाहेगा. भगवा खेमे के लिये अपने इस मंसूबो को पूरा करने के लिए 2019 का चुनाव निर्णायक है और इसके लिये वे कुछ भी करेंगे. यह चुनाव इतना भव्य और नाटकीय होगा जिसकी अभी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं, मोदी पूरे विपक्ष को अपने बनाये नियमों पर खेलने को मजबूर किये हुए हैं. विपक्ष और समानांतर विचारधाराएँ अभी भी इसका काट नही ढूंढ पायी हैं वे सिर्फ रिएक्ट कर रही हैं उन्हें समझाना होगा की अब ये सिर्फ चुनावी मुकाबला नहीं रह गया है जरूरत भाजपा और उसकी विचारधारा के बरक्स काउंटर नैरेटिव पेश करने की है जो फिलहाल कोई करता हुआ नजर नहीं आ रहा है.

 

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