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साहित्य-संस्कृति

प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भोजली पर्व

पीयूष कुमार


हमारे यहाँ छत्तीसगढ़ की संस्कृति प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और उसके मानवीय एकीकरण की भावना से अनुपूरित है। यह समय समय पर लोक में अपने कमनीय और महनीय भावों से पूरित विभिन्न त्योहारों और उत्सवों में प्रकट होता रहता है। इसी तरह का एक पर्व है भोजली। भोजली याने भो-जली। अर्थात भूमि में जल हो। इसके लिये महिलायें भोजली देवी की पूजा करती हैं। भोजली गेहूँ के अंकुरित पौधे हैं जो श्रावण शुक्ल नवमी में बोए जाते हैं और भादो की प्रथमा को रक्षाबंधन के बाद जल में विसर्जित किए जाते हैं ।

भोजली उत्तर भारत के कई हिस्सों में में भिन्न नामों से मनाया जाता रहा है। भोजली को ब्रज और उसके आसपास ‘भुजरियाँ’ और विंध्य क्षेत्र में ‘कजलियाँ’ कहा जाता है। छत्तीसगढ़ में यह मुख्य पर्व के रूप में लोकप्रिय है। इसकी ऐतिहासिकता 12 वीं सदी से प्राप्त होती है। आल्हा गाथा के अनुसार राजा परमाल की लड़की चन्द्रावली से पृथ्वीराज चौहान अपने पुत्र ताहर से उसका विवाह करना चाहता था। वह चन्द्रावली का अपहरण कर लेता है पर ऊदल, इन्दल और लाखन चन्द्रावली को बचा लेते हैं और उसकी भुजरियाँ मनाने की इच्छा पूरी करते हैं।

इस त्योहार के मूल में अच्छी फसल के लिए कामना है। यह वह समय रहता है जब कृषि का प्राथमिक कार्य सम्पन्न होता रहता है। अब खेतों में पानी भरा होना चाहिए, यही भविष्य का आधार बनेगा। यह वक्त कृषि के संस्कार विकसित करने का है। यह कृषि, जल और उससे जुड़े जीवन के अंतरसंबंधों की लय को भाव से पकड़ने का संस्कार है। चूंकि कुछ दिन बाद भोजली भी बदना है, जो आधुनिक फ्रेंडशिप डे का प्राचीन रूप है, इसलिये भी यह क्रियाकलाप समर्पण और भविष्य के सुख की प्रत्याशा में संचालित होते रहते हैं।

सावन लगते ही लडकियां एवं नवविवाहिताएं अच्छी बारिश एवं भरपूर फसल भंडार की कामना करते हुए प्रतीकात्मक फसल के रूप में भोजली का आयोजन करती हैं। भोजली एक टोकरी में भरे मिट्टी में धान, गेहूँ, जौ के दानों को बो कर तैयार किया जाता है । उसे घर के छायादार जगह में स्थापित किया जाता है । उसमें हल्दी पानी डाला जाता है। गेंहूँ के दाने धीरे धीरे पौधे बढते हैं, महिलायें उसकी पूजा करती हैं एवं भोजली दाई के सम्मान में भोजली गीत गाये जाते हैं। यह गीत बिल्कुल माता सेवा गीतों की तरह होते हैं। इसकी लय और तान अत्यंत मधुर होती है जो सीधे दिल मे उतर जाती है। सामूहिक स्वर में गाये जाने वाले भोजली गीत छत्तीसगढ की पहचान हैं । महिलायें भोजली दाई में पवित्र जल छिडकते गाती हैं…

देवी गंगादेवी गंगा लहर तुरंगा/हमरो भोजली देवी के/भीजे ओठों अंगा।
मांड़ी भर जोंधरी/पोरिस कुसियारे हो/जल्दी बाढ़ौ भोजली/होवौ हुसियारे।

अर्थात – ओ गंगा देवी तुम्हारी लहरें तुरंग (घोड़े) की तरह बढ़ी चली आती हैं जिसमे हमारी भोजली के आठों अंग भीग जाते हैं। मक्के और गन्ने की फसल घुटने भर बढ़ गयी है, ओ भोजली तुम भी होशियार बनो, जल्दी बढ़ो।

जब सावन की पहली तिथि आती है, गेंहू के पौधों का अंकुरण लगभग छह इंच तक कि ऊंचाई प्राप्त कर चुका होता है। इसे माताएं बहने सिर पर रखकर नदी या तालाब तक भोजली गीत गाती चलती हैं और इसे जल में विसर्जित कर देती हैं। इस पर्व की सबसे ख़ास बात है, मित्रता की स्थापना। इस पारंपरिक लोकपर्व भोजली में विसर्जन के बाद बचाए गए पौधों को एक-दूसरे को देकर मितान बनाने की परंपरा का भी निर्वहन किया जाता है। एक दूसरे के कान में भोजली के पौधे लगाकर दोस्ती को अटूट बनाने की कसम ली जाती है। यह मित्रता जीवन भर निभाने की बाध्यता है। एक तरह से इसका महत्व फ्रेंडशिप डे की तरह है। इस तरह से बदे मितान का सम्बोधन ‘सीताराम भोजली’ कहकर किया जाता है। मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का यह अनुपम है। कामना है, प्रकृति और प्रेम सदैव हरियर रहे।

( लेखक शासकीय महाविद्यालय रामचंद्रपुर, छत्तीसगढ़  में सहायक प्राध्यापक हैं। )

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