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लखनऊ में शीरोज बतकही की 9वीं कड़ी : न्याय का अधिनायकवाद बनाम जनविरोधी न्याय तंत्र

लखनऊ में हर हफ्ते रविवार को होने वाली शीरोज बतकही की नौंवी कड़ी में न्यायिक प्रक्रिया की जनपक्षधरता या गैरपक्षधरता के प्रश्न पर विमर्श हुआ. रविवार की बतकही में आम आदमी के मन-मस्तिष्क में उठते विविध सवालों को सबसे पहले सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने वार्ता की शुरुआत के पूर्व सदस्यों के सामने रखा और अपील की कि आज की बतकही में उन बिन्दुओं पर जरूर विचार रखा जाये.

पहला सवाल तो यही था कि आज की न्यायिक प्रक्रिया तक आमजन की पहुंच कितनी सरल और सुगम है. वकील, गवाह, माफिया और हत्यारे किस तरह गवाहों को तैयार करते हैं, किस तरह गवाहों को बदल देते हैं या उन्हें रास्ते से हटा देते हैं कि अंततः न्याय करने का रास्ता ही बंद हो जाता है. दूसरा सवाल यह था कि न्यायिक प्रक्रिया की भाषा अंग्रेजी बनी हुई है. यहां की जा रही बहसें, वादी और प्रतिवादी की समझ से परे होती हैं. वह समझ ही नहीं पाता कि हमारे वकील हमारे पक्ष में बोल रहे हैं या विपक्ष में. तीसरा प्रश्न यह था कि तारीख दर तारीख की भाग-दौड़ कितनी लम्बी होगी, इसका अनुमान कठिन होता है और कई बार तो पीढ़ियां निकल जाती हैं कचहरियों की दौड़ में. अगला प्रश्न था कि वकीलों की मनमानी, न्यायिक कार्य में बाधा और जजों की बेहद कम संख्या न्यायालयों में मुकदमों की संख्या बढ़ाती जा रही है.

आज तीन करोड़ के लगभग मुकदमे विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं. एक अन्य महत्वपूर्ण सवाल को सामने रखा गया कि हमारे जातिवादी समाज में दलितों और पिछड़ों की न्यायालयों में न के बराबर भागीदारी है. न केवल जजों की संख्या बल्कि योग्य वकीलों की संख्या में भी इन वर्गों का बहुत कम स्थान है.  ऐसे में ऊंच-नीच और गैरबराबरी के इस समाज में, जहां निम्न समाज के लोग न्यायालयों तक पहुंच ही नहीं पा रहे, वहां न्याय प्रक्रिया का समदर्शी होना, संदेह के घेरे में स्वतः आ जाता है.  न्यायालयों के अंदर की दुनिया के बारे में आम जन को जानने-समझने पर जो दीवार खड़ी की गई है, वह न्यायिक प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के बजाय, मनमाने व्यवहार की ओर ले जाती है.

प्रसिद्ध विचारक एवं सामाजिक कार्यकर्ता अजय कुमार शर्मा ने बातचीत की शुरुआत में कहा कि ब्रिटिश कालीन न्यायिक प्रक्रिया की भाषा, अंग्रेजी है. पहले फारसी थी. उससे पहले वर्णवादी समाज में संस्कृत थी. सारी भाषायें आम जन की भाषा नहीं रही हैं. ऐसे में न्याय पारित करने की दृष्टि ही कुलीनतावादी रही हैं. वह जनपक्षधर खांचे में फिट नहीं बैठती. भाषा की यही कुलीनतावादी दृष्टि परीक्षाओं में भी देखने को मिलती है.

श्री शर्मा ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि हमारे न्यायालयों में कर्मचारियों और जजों की संख्या बेहद कम है. काम के बोझ को देखते हुए किसी भी दशा में वर्तमान जनशक्ति के सहारे न्यायिक प्रक्रिया को सुचारू ढंग से निबटाया नहीं जा सकता. न्याय जब हमारी प्राथमिकता में न होगा तब भला न्यायालयों से न्याय की अपेक्षा कैसे की जा सकती है ? न्याय न होना या समय से न होना भी अपराधों के बढ़ने का एक कारण है, किसी भी स्वस्थ समाज के रास्ते में रुकावट है. इससे समाज में अराजक तत्वों का आधिपत्य कायम हो जाता है वे सत्ता पर अपना नियंत्रण आसानी से स्थापित कर लेते हैं। न्यायालयों में वकीलों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है मगर बड़े और मठाधीश वकीलों ने नये वकीलों को पनपने के रास्ते बंद कर दिए हैं. वहां भी सवर्णवाद हावी है.

सुभाष चन्द्र कुशवाहा ने कहा कि न्यायालयों में ही नहीं, अन्य सरकारी संस्थाओं में कर्मचारियों की संख्या बेहद कम है. उन्होंने कहा कि हमारी न्यायिक प्रक्रिया को गति देने के लिए उपरोक्त कमियों को दूर करने के अलावा न्याय के सम्पूर्ण ढांचे पर विचार करने की जरूरत है. रिट दाखिल होना, कांउन्टर दाखिल होना और फिर रीज्वाइंडर दाखिल करना, यह सभी प्रक्रियाएं ऑन लाइन की जानी चाहिए। इसके लिए न तो तारीखों की जरूरत हो न किसी वकील की। इसके लिए कार्यालय व्यवस्था और कम्प्यूटर आपरेटरों की मदद से किया जाना चाहिए. इसके लिए न्यायधीशों की भी जरूरत नहीं होनी चाहिए. रिट, कांउंटर और रीज्वाइंडर के परीक्षण के लिए, चार-चार योग्य व्यक्तियों जिनमें एक वरीष्ठ वकील, एक समाजशास्त्री, एक वैज्ञानिक और एक लेखक होना चाहिए. उनके परीक्षण और रिपोर्ट के बाद न्यायाधीशों का काम शुरू होना चाहिए. होना यह चाहिए कि दाखिल वाद, जवाब और प्रति जवाब का अध्ययन उक्त समीक्षक टीम से कराने के लिए एक पैनल हो जिसमें जनता के बीच से चुने गये विभिन्न जातिधर्म के विद्वानों लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का योगदान हो.

जज का कार्य उस समीक्षा के बाद होना चाहिए और महज तीन सुनवाइयों के बाद मामले का फैसला किया जाना चाहिए . ग्राम अदालतों की अवधारणा या राष्ट्रीय लोक अदालतों की अवधारणा फिलहाल किसी काम की नहीं है और वहां केवल दिखावटी मामलों का निबटारा हो रहा है . होना तो यह चाहिए कि हत्या, बलात्कार या मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं को, जिनके लिए बेहद संवेदनशील और योग्य टीम के परीक्षण की जरूरत हो, अन्य मामलों में समीक्षकों की टीमों द्वारा पहले मौके पर दोनों पक्षों और आम जनता के सामने मामलों को निबटाने का प्रयास करना चाहिए. उसके बाद ही जज के सामने मामलों को फैसले के लिए छोड़ना चाहिए. जाति-धर्म और विभिन्न वर्गों के भारतीय समाज में हर वर्ग और जाति समाज से जजों का न्यायालयों में आना जरूरी है. अन्यथा न्याय आभासी और कुलीनतावादी नजरिये का पोषण करेगा. जब तक समाज में गैर बराबरी है, ऊंच-नीच है, समानता की दृष्टि न तो शासन में है न जनता में, तब तक न्याय का स्वरूप आभाषी और बहुत हद तक दिखावटी ही होगा. न्याय को प्रभावित करने का काम ज्यादा होता रहेगा. ग्राम अदालतों का स्वरूप भारत जैसे सामंती समाज में इसलिए भी फलदायी नहीं हो सकता कि गावों के सामंतों के कृत्यों के खिलाफ बोलने का साहस, आम आदमी में नहीं होता. ऐसे में न्याय सामंतों की मुट्ठी में ही कैद रहेगा.

इसलिए पूरी न्यायिक प्रक्रिया के स्वरूप को बदलना होगा। केवल गवाहों के ऊपर न्याय को आधारित नहीं किया जाना चाहिए. न्याय के लिए उच्च टेक्नालॉजी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. जजों और न्यायिक प्रक्रिया के लिए चुने गये बुद्धिजीवी समाज के विचारकों को शामिल करते हुए न्याय करने की दिशा में बढ़ना चाहिए. जजों की चयन प्रक्रिया ऐसी हो कि समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व हो, आम भाषा में न्याय हो, न्याय मौके पर जाकर अनुशीलन, परीक्षण, जनवार्ता आदि के साथ-साथ निर्धारित समय में दिया जाना अनिवार्य किया जाना चाहिए. रिटायर्ड सभी जजों को क्रमवार प्रतिनियुक्तियों का अवसर मिलना चाहिए न कि पिक एण्ड चूज की स्थिति में . इससे न्याय को प्रभावित करने वाले कारकों को रोका जा सकता है.

दिनेश तिवारी ने मामले को आगे बढ़ाते हुए कहा कि आज गरीबों को न्याय नहीं मिल रहा है. वे भटक रहे हैं . सामंती समाज के दंश अभी भी उनका पीछा कर रहे हैं. आज वकील तारीखों के बाद तारीखें लेने में ज्यादा उत्सुक रहते हैं. न्याय दिलाने में न उनकी रुचि है न पूरा सिस्टम न्याय प्रक्रिया को सपोर्ट करता दिखता है.  अगर हमने ऐसी प्रक्रिया को जारी रखा तब भला न्याय मिलेगा कैसे ?

शीरेज हैंग आउट रेस्टोरेंट में कार्यरत तेजाब पीड़ित महिलाओं ने भी अपने साथ हुए अन्याय का जिक्र करते हुए बतकही में हिस्सा लिया और रेस्टोरेंट को अन्य एन.जी.ओ. के हाथों में दिये जाने का विरोध किया.

बतकही में वक्ताओं ने न्याय के वर्तमान स्वरूप को आभासी , कुलीनतावादी और धनतंत्र द्वारा प्रभावित करने वाला बताया और कहा गया कि जब तक समाज में समता, बंधुत्व और सुरक्षा का वातावरण तैयार नहीं कर दिया जाता, न्याय प्राप्त करना आसान न होगा.

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