समकालीन जनमत
फ़िल्म उमराव जान 1981 में शौक़त आज़मी
जनमतशख्सियतस्मृति

अलविदा शौक़त आपा

अली जावेद


कैफी़ ने कहा था:
एलान-ए-हक़ में ख़तर-ए-दार-ओ-रसन तो है
लेकिन सवाल ये है कि दार-ओ-रसन के बाद?
याद कीजिये तरक़्की़पसंद अदबी तहरीक का सफ़र| सिर्फ हिन्दुस्तान नहीं बल्कि सारी दुनिया में आजा़दी और अम्न तहरीक अपने शबाब पर थी|

हमारे देश में जो अदीब और शायर तहरीक की अगुवाई कर रहे थे उनमें ज़्यादा तर नौजवान थे|नये शायर और अदीबों ने सज्जाद ज़हीर व मुल्कराज आनन्द के साथ प्रेम चंद, मौलाना हसरत मोहानी और जोश मलीहाबादी जैसे बुजु़र्ग अदीबों ने पूरे माहौल में जो नई जान फूंक दी थी उससे पूरा देश आन्दोलित हो गया था|

उस समय के रिकार्ड बताते है कि ऐसा लग रहा था कि जैसे इंकि़लाब बस दरवाजे़ पर दस्तक दे रहा है|मजरूह जैसा नौजवान शायर कह रहा था:
उस तरफ़ रूस, इधर चीन, मलाया, बर्मा
अब उजाले मेरी दीवार तक आ पहुंचे हैं

उस वक़्त के मुशायरे या कवि गोष्ठियां आज जैसी नहीं थीं|ये पैसे कमाने के लिये नहीं बल्कि इनमें आजा़दी का जज़्बा था और आन्दोलन के लिये कमिटमेन्ट था और सब कुछ एक मिशन के तहत हो रहा था|

नये शायरों में फ़ैज़, फि़राक़, अली सरदार जाफ़री, मजरूह, साहिर, जांनिसार अख्तर और कैफी़ आज़मी जैसे लोग नौजवानों और छात्रों में एक ऐसा जोश भर रहे थे कि उनमें कुर्बानी का जज़्बा था|ऐसे माहौल में ये शायर पूरे देश में घूम घूम कर अवाम को आन्दोलित करने का काम कर रहे थे और नतीजे के तौर पर हर तरफ़ एक नये सपने की आमद दस्तक दे रही थी| इनमें दूसरे नौजवान शायरों की तरह कैफी़ की मक़बूलियत दिन रात बढ़ रही थी और वो नौजवान दिलों की धड़कन बन गये थे|

तरक्क़ी पसन्द शायरों ने अपनी शायरी में औरतों को इस आन्दोलन में बराबर शरीक बना कर साथ चलने की दावत दे रहे थे और इसका असर भी नज़र आ रहा था|

मख़्दूम के शहर हैदराबाद में एक मुशाएरा था|इसमें कैफी ने एक नज़्म सुनाई जिसका उन्वान था”औरत”|इसमें कैफी़ ने एक लाइन जो बार बार दोहराई थी वो थी:
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे इस नज़्म ने एक नौजवान लड़की पर ऐसा असर डाला कि उसने उसी वक़्त साथ चलने का फै़सला कर लिया और कैफी़ की हम सफ़र बन कर सारी जि़न्दगी साथ रहने का अहद करके आन्दोलन का ऐसा हिस्सा बनी कि वो आन्दोलन की पहचान बन गई|

इस नौजवान लड़की का नाम था शौक़त जो इसके बाद शौक़त आज़्मी के नाम से जानी गई|

1943 में इप्टा का गठन हुआ और शौकत आज़्मी ने इस आन्दोलन को इसकी ऊँचाइयों तक पहुंचाने का काम किया| इस सफ़र में कई ऐसे मका़म आये जब इप्टा के कलाकारो पर पुलिस ने गोलियां चलाईं जिसमें शौकत कभी बाल बाल बचीं तो कभी पुलिस की लाठियों से घायल हुईं लेकिन कभी पीछे नहीं हटीं|

जहाँ तक इप्टा का सम्बन्ध है यह कहना मुश्किल है कि इस आन्दोलन में कैफी़ का योगदान ज़्यादा है या शौकत आपा का| सिर्फ इप्टा नहीं बल्कि जब भी भारत के सांस्कृतिक आन्दोलन का इतिहास लिखा जायगा,शौक़त आपा का नाम उन हस्तियों में आयेगा जिन्होंने आन्दोलन को एक दिशा प्रदान किया|

शौक़त आपा का जाना बहुत ही दुःखद है|उनके कारनामे आने वाली नस्लों के राह दिखाने का काम करेंगे|
अलविदा शौक़त आपा!

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