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कर्नाटक : लोकतंत्र को कैद

 

एक बार फिर मई की गर्मियों ने देश के राजनीति में उबाल आया है 2014 में ये 16 मई का दिन था जब देश की जनता ने “अबकी बार मोदी सरकार” के नारे पर मुहर लगा दिया था और अब इसके चार साल बाद 15 मई के दिन भाजपा दक्षिण के राज्य कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी है.

इस बार भी खेल और खिलाड़ी लगभग वही थे लेकिन यह एक राज्य का विधानसभा चुनाव था जिसे राष्ट्रीय चुनाव की तरह लड़ा गया. हालांकि इधर हर चुनाव असाधारण होता गया है. 2014 के बाद से होने वाले लगभग हर चुनाव को 2019 के सेमीफाईनल के तौर पर पेश किया जाता है लेकिन कर्नाटक का चुनाव वाकई में अभूतपूर्व था, यह भव्य, भड़काऊ, नाटकीय और अभी तक का सबसे खर्चीला विधानसभा चुनाव था.

यह एक ऐसा चुनाव था जिसे दोनों प्रमुख पार्टियों ने निर्णायक मानकर लड़ा कांग्रेस ने इसे संसदीय व्यवस्था में अपने पैर रखने की जगह को बचाए रहने के लिए तो भाजपा ने अपने सम्पूर्ण वर्चस्व के लिए. कांग्रेस के लिये इसे जीतना अपने अस्तित्व को बचने की तरह था वहीं भाजपा किसी भी कीमत पर कर्नाटक को एक बार फिर दक्षिण भारत में अपना पैर ज़माने के लिये एंट्री पॉइंट बनना चाहती थी जिससे वो सही मायनों में खुद को सही अखिल पार्टी होने का दावा जता सके.

यह चुनाव राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के लिए निजी तौर पर भी अहम था कर्नाटक जीतकर नरेंद्र मोदी को यह साबित करना था कि ब्रांड मोदी का असर ख़त्म नहीं हुआ है और उनकी लहर बरकार है जबकि अध्यक्ष के रूप में राहुल का यह पहला चुनाव था जिसमें उन्हें अपने हार के सिलसिले को तोड़ते हुये खुद को विपक्ष की तरफ से विकल्प के रूप में स्थापित करना था.

लेकिन त्रिशंकु विधानसभा के नतीजे दोनों ही खेमों निराश करने वाले थे जिसके तहत भाजपा को 104 सीटें, कांग्रेस को 78 सीटें और जेडीएस को 38 सीटें हासिल हुई जबकि बहुमत के लिये 112 सीटों की जरूरत थी. पुराने अनुभवों को देखते हुये कांग्रेस एक्शन में आ गयी और भाजपा को रोकने लिये उसने जेडीएस की नेतृत्व में सरकार बनाने का आफर दे दिया जिसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया और इस तरह से परिस्थितयां किंग मेकर के ही किंग बनने की तरफ निर्मित होने लगीं.

दरअसल कर्नाटक का चुनाव दो भागों में लड़ा गया. एक मतदान और उससे पहले और दूसरा नतीजे आने के बाद.  इसमें दिलचस्प बात यह है कि खेल के इन दोनों भागों को किसी नाटक की तरह खेला व परफॉर्म किया गया जिसमें जनता की भूमिका वोट डालने वाली मशीन या सिर्फ दर्शक के तौर पर ही रही.

बहरहाल दोनों खेमे की तरफ से सरकार बनना का दावा पेश किया जाता है. इसके बाद जो खेल शुरू हुआ उसकी सबसे दिलचस्प व्याख्या चेतन भगत ने की है. उन्होंने ट्वीटर पर लिखा कि, “त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में कोई नैतिक रास्ता नहीं बचता, अब दोनों ही पक्ष नैतिकता सिखाना बंद करें  यह बेकार की कवायद है. हॉर्स ट्रेडिंग (विधायकों की खरीद-फरोख्त) भी एक कला है बीजेपी और कांग्रेस के लिए एक और परीक्षा देखते हैं, इसमें कौन बेहतर निकलता है.”

दुर्भाग्य से चेतन भगत सही हैं. दरअसल हमारा लोकतंत्र इस खेल का इतना अभ्यस्त हो चूका है कि जेडीएस नेता कुमारस्वामी द्वारा भाजपा पर अपने विधायकों को 100 करोड़ रुपये की पेशकश का आरोप सनसनी से ज्यादा हास्य का बोध पैदा करती है. इस बीच हॉर्स ट्रेडिंग के डर से कांग्रेस और जेडीएस अपने विधयाकों को विरोधी खेमे से बचाने के लिये रिसोर्ट में ले जाने का फार्मूला अपनाते हैं.

फिर कर्नाटक चुनाव तारीखों के ऐलान के तर्ज पर 16 मई की रात करीब आठ बजे भाजपा विधायक सुरेश कुमार ट्विट करते हैं कि “बीएस येदियुरप्पाम 17 मई की सुबह 9.30 बजे सीएम पद की शपथ लेंगे.” जबकि राजभवन द्वारा इसकी औपचारिक घोषणा इसके करीब डेढ़ घंटे बाद रात में 9 बजकर तीस मिनट पर की जाती है जिसमें येदियुरप्पा् को अपना बहुमत साबित करने के लिये 15 दिनों का पर्याप्त से भी अधिक समय दिया जाता है. राज्यपाल की तरफ से बहुमत के लिये 15 दिन का समय मिलने के बाद यह देखना दिलचस्प होगा है कि कांग्रेस और जेडीएस के लिये अपने विधयाकों को रिसोर्ट के सहारे एकजुट करने का फार्मूला कितना कारगर होता है.

इसके बाद 16 मई के रात में ही कांग्रेस और जेडीएस राज्यपाल के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करते हैं और फिर अभूतपूर्व तरीके से सुप्रीम कोर्ट में रात 1.45 बजे से लेकर करीब 4.30 बजे तक इस मामले की सुनवाई होती है जिसमें याचिकाकर्ताओं की तरफ से कर्नाटक राज्यपाल द्वारा देर रात को येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करने और सुबह शपथ ग्रहण कार्यक्रम की टाइमिंग पर सवाल उठाए जाते हैं. इस दौरान वे मेघालय, मणिपुर, गोवा, दिल्ली, झारखंड और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण भी दिये जाते हैं जहाँ चुनाव के बाद बने गठबंधन की ही सरकारें बनाने का मौका दिया गया था. लेकिन शीर्ष अदालत द्वारा शपथग्रहण पर रोक लगाने से यह कहते हुये इनकार कर दिया जाता है कि वो राज्यापाल के संवैधानिक अधिकारों में दखल नहीं दे सकती.

हालांकि अदालत ने ने 18 मई को होने वाली अगले सुनवाई के दौरान दोनों पक्षों के अपने समर्थक विधायकों की सूची पेश करने को कहा है. लेकिन येदियुरप्पा चुनाव के दौरान की गयी अपनी घोषणा और राजपाल द्वारा तय कार्यक्रम के मुताबिक वे  17 मई की सुबह कर्नाटक के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने में कामयाब हो गये हैं और इसी तरह से ऑपरेशन कमल पार्ट 2 का पहला चरण भी पूरा होता है.

वैसे तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा हर चुनाव पूरी ताकत और जीतने के इरादे से लड़ते हैं लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस का किला ढहा कर उसे 2019 से पहले मनोवैज्ञानिक रूप के पस्त करने के धुन में वे यहाँ अपना पुरानी सीमाओं को भी तोड़ते हुये नजर आये.

कर्नाटक कांग्रेस के लिए जीवन मरण वाला चुनाव था और उसने भी यहां अपना पूरा जोर लगा दिया. कर्नाटक में कांग्रेस चुनाव और उसके बाद  हर वो दावं आजमाती हुई नजर आई जिससे वो अपने इस किले को बचाये रख सके. इसके लिये उन्होंने  मुख्यमंत्री सिद्धरमैया को प्रादेशिक क्षत्रप के तौर पर पेश किया, कन्नड़ अस्मिता को मुद्दा बनाया, लिंगायत समुदाय को अलग धर्म की मान्यता देने का दावं खेला, राहुल गांधी के नेतृत्व में नरम हिन्दुत्व का कार्ड खेला गया, और अंत में राहुल गाँधी को मोदी के विकल्प तौर पर पेश करने की कोशिश भी की गयी. लेकिन अंत में वो दूसरी बड़ी पार्टी के तौर पर ही उभर पायी.

दरअसल गुजरात चुनाव के की टक्कर और उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटों के उपचुनाव में भाजपा की हार ने कांग्रेस और विपक्ष को अंडर कांफिडेंस से ओवर कांफिडेंस की स्थिति में पंहुचा दिया था. उन्हें लगने लगा था कि मोदी और भाजपा कमजोर पड़ते जा रहे हैं. अगर कर्नाटक में भाजपा और जेडीएस यही समन्वय की राजनीति चुनाव से पहले कर लेते तो आज स्थिति दूसरी होती. कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष को थ समझना होगा कि दौरान भारत में चुनाव लड़ने का पूरा गणित चेंज हो चूका है मोदी और अमित शाह हर छोटे-बड़े चुनाव को ऐसा पिच बना देते हैं जो पूरी तरह से उनका होता है और यहां उन्हीं के बनाये गये नियम- कायदे लागू होते हैं. विपक्ष साथ मिलकर और सामूहिक रणनीति से ही इस घेराबंदी का मुकाबला कर सकता है.

भारत में चुनाव अब नाटक-नौटंकी की तरह हो गये हैं और मशीनों से होने वाला चुनाव भी अब मशीनी हो गया है जहां हार-जीत का फैसला जीवन के वास्तविक मुद्दों से नहीं बल्कि मैनेजमेंट, मनी और ध्रुवीकरण के सहारे होता है. इस दौरान मतदाताओं को या तो सम्मोहित के लिया जाता है या फिर उन्हें रोबोट मतदाता बनने को मजबूर कर दिया जाता है. कर्नाटक का नाटक तो चल ही रहा है भविष्य में होने वाले ऐसे कई और नाटकों के लिये तैयार रहिये यह तब तक चलेगा जब तक कि वोटों की तरह लोकतंत्र भी किसी ईवीएम जैसी किसी मशीन में कैद ना कर लिया जाये.

 

 

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