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भोजपुर के चमकते लाल सितारे

 

शहादत की 44वीं बरसी :

कॉ. जौहर, कॉ. निर्मल व कॉ. रतन को लाल सलाम!

आज 29 नवंबर है। 1975 में आज ही के दिन भाकपा-माले के दूसरे राष्ट्रीय महासचिव काॅ. सुब्रत दत्त (काॅॅ. जौहर), काॅॅ. डॉ.निर्मल महतो और काॅ. राजेंद्र यादव (काॅ. रतन) भोजपुर में शहीद हुुए थे।

29 नवम्बर 1975 को भेाजपुर के बाबूबांध में बैठक करते वक्त काॅ. जौहर पुलिस द्वारा घेर लिए गए थे. पुलिस की गोली लगी, लेकिन वे बच निकले. गेहूं के खेतों से होते हुए मुसहर गरीबों ने उन्हें ढोकर दूसरी जगह पहुंचाया. पुलिस की गोली से लगे घावों के कारण उनकी मृत्यु हो गयी. उन्हें बचाने के ही क्रम में काॅ. निर्मल व काॅ. रतन ने अपनी शहादत दी थी.

कॉमरेड सुब्रत दत्त (जौहर)

1946 में कलकत्ता के एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे काॅॅ. सुब्रत दत्त का प्रारंभिक स्कूली जीवन दिल्ली में गुजरा था। उनके पिता हिंदुस्तान टाइम्स में कार्यरत थे। बाद में सुब्रत दत्त कलकत्ता वापस आ गए।

वहीं साम्राज्यवाद विरोधी, कांग्रेस विरोधी कम्युनिस्ट आंदोलन से उनका जुड़ाव हुआ। भारत-चीन के युद्ध के दौरान शासकवर्ग द्वारा भड़काए गए अंधराष्ट्रवादी लहर का उन्होंने दृढ़तापूर्वक विरोध किया। सही क्रांतिकारी लाइन की तलाश में वे सीपीआई से सीपीआई (एम) में गए, फिर नक्सलबाड़ी विद्रोह के बाद सीपीआई (एम) से भी अलग हो गए। उसके बाद सीपीआई (एमएल) मेें शामिल हुए और अपनी नौकरी छोड़कर पेशेवर क्रांतिकारी बन गए।

सर्वप्रथम उन्हें छोटानागपुर के बंगाल-बिहार सीमा क्षेत्र के किसानों को संगठित करने की जिम्मेवारी मिली। जल्द ही वे सीपीआई (एमएल) की बिहार राज्य कमेटी के सदस्य बना दिए गए। सीपीआई (एमएल) के पहले महासचिव काॅॅ. चारु मजुमदार की शहादत और बिहार राज्य कमेटी के लगभग सभी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने पार्टी को नवजीवन प्रदान करने का बीड़ा उठाया। पार्टी के पुनर्गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

1974 में भाकपा (माले) की केंद्रीय कमेटी के पुनर्गठन के बाद उन्हें महासचिव चुना गया। काॅॅ. सुब्रत दत्त ने एक ओर जहां भाकपा (माले) को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करने का हरसंभव प्रयत्न किया, वहीं भोजपुर कें क्रांतिकारी किसान संघर्ष कर रहे साथियों और जनता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। भोजपुर की धरती पर ही बाबूबांध, सहार में सशस्त्र पुलिस दल के अचानक हमले में उन्होंने शहादत धारण की।

काॅॅ. राजेंद्र यादव (कॉ. रतन)

पार्टी के महासचिव काॅॅ. सुब्रत दत्त के संदेशवाहक थे और तत्कालीन भोजपुर आंचलिक कमेटी के सदस्य थे। उन्होंने का. सुब्रत दत्त को बचाने की कोशिश करते हुए अपने प्राण न्यौछावर किए। का. रतन का जन्म 1950 में तत्कालीन भोजपुर जिले के केसठ गांव के एक प्रगतिशील मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था।

केसठ भोजपुर जिले में सी.पी.आई का मास्को कहा जाता था। कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर मौजूद अंतविर्रोधों से संघर्ष के दौरान गांव के मेहनतकश, उत्पीड़ित गरीब लोगों की वास्तविक मुक्ति की आकांक्षा उन्हें नक्सलबाड़ी की राह पर ले गई। जनवरी 1972 में वे किसानों को संगठित करने के काम में लगे। अपने क्रांतिकारी जीवन की छोटी सी अवधि में ही उन्होंने अपने साथियों और जनता का अगाध विश्वास, प्यार और स्नेह हासिल कर लिया था।

काॅॅ. निर्मल महतो (काॅॅ. नरेंद्र)

जुलाई 75 में बहुचर्चित बहुआरा (भोजपुर) की लड़ाई में पुलिस की घेरेबंदी तोड़कर बाहर निकल आए थे, वे भी का. सुब्रत के साथ 29 नवंबर को बाबू बांध, सहार में शहीद हुए थे।

काॅॅ. निर्मल महतो बिहार के भोजपुर जिले के बड़उरा गांव के निवासी थे। 1948 में एक सामान्य मध्यमवर्गीय किसान परिवार में उनका जन्म हुआ था। वे बचपन से ही अत्यंत मेधावी छात्र थे। पटना साईंस काॅलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में पास की थी।

जिसके बाद डाॅक्टरी की पढ़ाई के लिए उनका दाखिला दरभंगा मेडिकल काॅलेज में हुआ था। उन दिनों उच्च अंकों के साथ पास करनेवाले छात्रों का नामांकन सीधे तौर पर मेडिकल काॅलेज में होता था। लेकिन उस जमाने में दरभंगा मेडिकल काॅलेज में दाखिला लेना तथा हाॅस्टल में रहकर पढ़ाई करना पिछड़े, दलित एवं उपेक्षित वर्ग के छात्रों के लिए सामान्य बात नहीं थी।

काॅलेज प्रशासन से लेकर हाॅस्टल तक वर्णवादी-सामंती वर्चस्व कायम था। निर्मल महतो जैसे छात्रों के लिए ढंग से पढ़ाई की कौन कहें, हाॅस्टल में टिक पाना भी दूभर था। उन्होंने इस दमघोटू माहौल का विरोध करना शुरू किया।

अपने मिलनसार स्वभाव के कारण कुछ ही दिनों में वे छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय हो गए तथा छात्रों को संगठित कर मेडिकल काॅलेज और छात्रावास में तत्कालीन व्याप्त वर्णगत भेदभाव और सामंती उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन का बिगूल फूंक दिया। आंदोलन के दरम्यान कई बार उनपर हमले किए गए।

फरवरी, 1973 ई. में उन पर जानलेवा हमला किया गया। घायल अवस्था में अस्पताल में भी उनके साथ बदसलूकी की गई तथा सुनियोजित षड्यंत्र के तहत उन्हें जेल में डाल दिया गया। इन झंझावातों से जूझते हुए उन्होंने घोषणा की कि ‘‘पूंजीवादी न्यायालय मुझे न्याय देने में सक्षम नहीं है।’’ उन्होंने महसूस किया कि इस तरह के माहौल को बदलने के लिए पूरी सड़ी-गली सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त करना जरूरी है।

अपने कैरियर को त्यागकर वे सहार, भोजपुर लौट गए और भाकपा-माले के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन में शामिल हो गए। बहुत जल्द ही वे उस आंदोलन की अगली कतार के योद्धाओं में शुमार किये जाने लगे।

(स्रोत- भाकपा-माले द्वारा प्रकाशित दस्तावेजी पुस्तक ‘बिहार के धधकते खेत-खलिहानों की दास्तान)

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