समकालीन जनमत
शख्सियत

बुझात बा कि भगवन जी हो गइलें दूगो / हजूरन के दोसर, मजूरन के दोसर

 

 

संतोष सहर

बाबा साहब के जन्मदिन के अवसर पर बेतिया में आयोजित हुई ‘ भूमि अधिकार यात्रा ‘ के सभा मंच से मैंने उनको यह गीत गाते सुना.

नाम-सरफुद्दीन शाह, गांव-पकड़िया, प्रखंड-छौड़ादानो, जिला पूर्वी चंपारण. पिता अमीन दीवान और मां रतेजा खातून की दूसरी संतान जो 1955 में जन्मे.  चार भाइयों व तीन बहनों के साथ पले-बढ़े.

छोटा-सा कद, पतली-सी काठी, सांवला चेहरा और 60 साल से ऊपर की उम्र. दमदार आवाज सबका कान खींच लेती है, जब वे गाते हैं। पिछले 20-25 सालों से हर छोटे-बड़े कार्यक्रम में उनको सुनते आया हूँ. गीत गाते भी हैं और बनाते भी हैं.
पिता अंग्रेजों की सेना में नौकर थे। वेतन तब मामूली ही था. उनको हरमुनिया (हार्मोनियम) बजाने आता था. रिटायर हुए तो इलाके के नामी नाच गिरोह में ‘हरमुनिया’ बजाने लगे. ‘उस्ताद जी’ बन गये.

बताते हैं ‘ बचपन में गांव के प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने जाता था. लेकिन, घर की हालत जर्जर हो रही थी. इसलिए, भाइयों के साथ मिल-जुलकर मजदूरी करने लगा. 5 मई 1973 को नजमा खातून से शादी भी हो गयी. ‘

‘उन्हीं दिनों ‘नक्सल’ (भाकपा-माले) का नाम भी सुनाई पड़ने लगा था. विरोधी भी प्रचार करते थे. यह बताते थे कि नक्सल गाय-सुअर दोनों का मांस मिलाकर खाते हैं. चीन से सेना बुला देश पर कब्जा कर लेंगे. ‘

कॉ. सरफुद्दीन कव्वाली गाने लगे. पिता की तरह नाच पार्टी में नहीं गए. शुरुआत इफ्तेखार कव्वाल के साथ शागिर्दी से हुई. अब नाम हो गया-कव्वाल साहब. जगह-जगह से बुलावा आने लगा, जगह-जगह जाने लगे, जगह-जगह गाने लगे –

अल्ला-अल्ला हुस्न-जवानी, देख के दिल भी धड़का है “

इस बीच पांच संतानों – आस्मां खातून (1976), गुड्डू दीवान (1979), सायना खातून(1982), सफीना खातून (1985) व तबरेज आलम(1988) के पिता भी बन गए.

वे आगे बताते है- ‘उन दिनों गरीबों में कॉ. गम्भीरा साव का बड़ा नाम था. उन्होंने खेतिहर मजदूर संघ बनाकर जमीन दखल का अभियान चलाया. मजदूरी की लड़ाई शुरू की. साढ़े चार सौ एकड़ जमीन रखनेवाले सुखलहिया स्टेट के मालिक क्रूर सामन्त राजेन्द्र सिंह का सफाया हुआ. पूरा इलाका नई हलचल से भर गया – स्टेटों व मठों की जमीन छिनना, गांव-गांव में मजदूरी का संघर्ष, सामंती जोर-जुल्म की खिलाफत, लम्पट-गुंडों की पिटाई, पुलिस का प्रतिरोध व जुल्मी सामन्तों का सफाया.  सरकार व जमींदार ने मिलकर 3 जुलाई को कॉ. गम्भीरा की हत्या कर दी. तब वे सिर्फ 31 साल के थे. 5 जुलाई को उनकी शवयात्रा में दसियों हजार लोग शरीक हुए थे. उसके दो महीने बाद 5 सितम्बर को कॉ. मदन की भी हत्या कर दी गयी. कॉ. गम्भीरा प्रसाद पर कई गीत बने. अब भी गाया जाता है –

क्रांति का तूफान फैला दिया, एक नाम गम्भीरा 

शोषित-पीड़ित का शान बढ़ा दिया, एक नाम गम्भीरा

 

Публикувахте от Santosh Sahar в Неделя, 15 април 2018 г.

‘गम्हरिया गांव के मोहन राम जो नक्सल थे, हमारे गांव में आया-जाया करते थे। गांव का सरपंच के खिलाफ लड़ाई शुरू हुई और गांव में भी पार्टी बनी। मजदूरी की लड़ाई शुरू हो गयी। गांव के शीतल साव, शेख जोखू, सिकन्दर मिंया, शेख असहाब, रामएकबाल यादव, शिवनारायण सव के साथ ही हम भी पार्टी में आ गए। सरपंच मुसलमान ही था। लेकिन हमारी लड़ाई तो अमीर-गरीब की लड़ाई थी। एक तरफ अमीर हिन्दू-मुसलमान तो दूसरी तरफ गरीब हिन्दू-मुसलमान। कॉ. मोतीउर्रहमान और सफायत अंसारी हमारे नेता हुए। हमने एक अनुपस्थित जमींदार की जमीन पर भी कब्जा जमा लिया। उसी में 1986 में पहली बार जेल जाना पड़ा।’

अब उनकी कव्वाली गायकी का रंग भी बदल गया। उस पर नया रंग चढ़ गया.

गरीबों से नफरत बढ़ी जा रही है
ये दुनिया जहन्नुम बनी जा रही है

कोई ढेर पर सोने-चांदी के सोये

कोई अपनी किस्मत पे रातों को रोये”

अब वे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के इंकलाबी तरानों के साथ-साथ रमता जी और विजेंद्र अनिल के भोजपुरी गीतों को भी गाने लग गए:-

राजनीति सबके बुझे के बुझावे के परी
देश फँसल बाटे जाल में छोड़ावे के परी”

‘गीत गाने से जुलूस-सभा का आकर्षण बढ़ जाता है। लोग खींचे चले आते हैं। पार्टी आगे बढ़ती है। लेकिन, जेल-मुकदमा और पुलिस-गुंडों का हमला भी झेलना पड़ता है।’ – वे कहते हैं.

1996 में हत्या करने का फर्जी मुकदमा हुआ। पकड़ाये, जेल गये तो 5 साल बाद अगस्त 2001 में ही बाहर आये। पतहिया पंचायत से दो बार मुखिया का चुनाव भी उनको लड़वाया गया। कुछ वोटों के फासले से जीत नहीं पाये.

चलते-चलते बात होती है आज के माहौल पर। कहते हैं – ‘साम्प्रदायिक भेदभाव पहले कम था. अब तो यह जानलेवा नफरत बनते जा रहा है. ‘

थोड़ी देर और ठहरिये। सभा मंच से उस दिन उन्होंने जो गीत गाया, उसे भी सुनते-देखते चलें। यह गीत है –

हुकूमत के हाथी निअर दांत दु गो
देखावे के दोसर, चबावे के दोसर !
चलल अहिंसा के अइसन झकोरा
कि आंधी में उड़ गईलें लन्दन के गोरा
खुलल आंख देखलीं आजादी के झांकी
अमीरन के दोसर, गरीबन के दोसर।
ना उजड़ल गरीबवन के मंडई छवाईल
ना कुचलल किसनवन के हियरा जुड़ाइल
मजदूर किसनवा गरीबवन के घर में
आजादी के किरिन ना तनिको समाइल
बुझाता जे भगवन भी हो गईलें दु गो
हजूरन के दोसर, मजूरन के दोसर
हुकूमत के हाथी निअर दांत दू गो
चबावे के दोसर, देखावे के दोसर।
कहल जाता दोसर, कइल जाता दोसर
देखल जाता दोसर, सुनल जाता दोसर
कइसन बा जादू ई कइसन बा टोना
लिखल जाता दोसर, पढ़ल जाता दोसर।
बढ़ल जाता दिन-दिन करज के बेमारी
बढ़े जइसे द्वापर में द्रोपदी के साड़ी
नया-नया योजना बने आजकल में
कि महंगी में उठेला कोठा-अटारी
चलल घुस अइसन रूप आपन बना के
अन्हारा में दोसर, अंजोरा में दोसर।
बढ़ल रोग अइसन दवाई दियाइल
कि लाखों-करोड़न के गठरी कटाइल
बैदराज अइलन जे नाड़ी निरेखे
ना रोगी के रोगन के लच्छन चिन्हाइल
भला आसरा अब कवन जिनिगी के
दवा बाटे दोसर, दरद बाटे दोसर।”

 

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