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पटना में दिखाई गई फ्रेंच मानवविज्ञानी निकोलस जाउल की दलित संघर्ष पर केंद्रित फिल्म ‘संघर्ष ’

 

पटना में दो दिवसीय ‘समय का गीत और प्रतिरोध का सिनेमा’ आयोजन

दलित उत्पीड़न और सरकार के जनविरोधी कार्रवाइयों के प्रतिरोध में गीत गाये 

पटना. पटना में 16-17 मार्च को ‘‘समय का गीत और प्रतिरोध का सिनेमा’ आयोजन हुआ। हिरावल और प्रतिरोध का सिनेमा द्वारा आयोजित इस आयोजन की शुरुआत छज्जूबाग, पटना में गीत-संगीत की वीडियो-आॅडियो सीडी ‘समय का गीत’ के लोकार्पण से हुई.

लोकार्पण फ्रेंच मानवविज्ञानी निकोलस जाउल और जसम के राज्य सचिव सुधीर सुमन ने किया. संतोष सहर, कवि कृष्ण समिद्ध, जसम पटना के संयोजक कवि राजेश कमल, हिरावल के सचिव संतोष झा, प्रीति प्रभा, राजन कुमार ने भी लोकार्पण में हिस्सा लिया. हिरावल की इस सीडी में रोहित वेमूला की संस्थानिक हत्या, हाजीपुर की अपराजिता की बलात्कार के बाद हत्या, गोरक्षा के नाम पर उना में किए गए उत्पात और उसके बाद भड़के दलित प्रतिरोध, नोटबंदी से उत्पन्न संकट, गोरखपुर और धर्मपुर में बच्चों की हत्या से संबंधित गीत हैं.

हिरावल के कलाकारों ने इनमें से कई गीतों की प्रस्तुति भी की और पिछले चार वर्षों में सरकार की जनविरोधी कार्रवाइयों पर केंद्रित जोगीरा भी सुनाया गया. आवाज संतोष झा, सुमन कुमार, राजन कुमार, प्रीति प्रभा, भारती नारायण, रेशमा, पलक और पीहू आदि ने दी.

दूूसरे सत्र में निकोलस जाउल की डाक्यूूमेंटरी फिल्म ‘संघर्ष’ का प्रदर्शन हुआ। निकोलन जाउल कोई पेशेवर फिल्मकार नहीं हैं, बल्कि मानव विज्ञानी हैं और फ्रेंच नेशनल सेंटर फाॅर साइंटिफिक रिसर्च में कार्यरत हैं. कानपुर के आसपास के दलित-मजदूर बस्तियों के जनजीवन पर उन्होंने पीएच.डी रिसर्च किया था। रिसर्च के दौरान वे 1997 से लेकर 2001 तक वहां की सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियों को अपने कैमरे के जरिए दर्ज करते रहे. उसके कई वर्षो बादं लगभग सौ घंटे की दृश्य-श्रव्य सामग्री के संपादन के बाद उनकी डाक्यूूमेंटरी फिल्म ‘संघर्ष’ बनी. इस फिल्म में संगीत और ध्वनि हिरावल के संतोष झा और एफटीआईआई पासआउट साउंड इंजीनियर विस्मय चिंतन ने दिया है।

निकोलस की फिल्म बाबा साहब अंबेडकर के विचारों के आलोक में दलित आंदोलन के एक खास दौर के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास को समेटती है। संतोष सहर ने निकोलस जाउल का परिचय कराते हुए कहा कि निकोलस नब्बे के दशक से ही भारत आते रहे हैं और यहां के आम अवाम, नागरिकों, बुद्धिजीवियों और कलाकारों से मिलते रहे हैं। यह एक फ्रेंच नागरिक का भारतीय नागरिकों से रिश्ता है, खासकर यहां के हाशिये की जनता के जीवन और संघर्ष से उनका गहरा रिश्ता रहा है। यह फिल्म भी इसका उदाहरण है। उन्होंने बताया कि निकोलस भोजपुर के एकवारी समेत संघर्ष के इलाकों में भी गए थे। वे एक बेहतरीन फोटोग्राफर भी हैं। उन्होंने कई कामरेडों और भोजपुर जिले के खूबसूरत लैंडस्केप की तस्वीरें भी खींची हैं.

पहले दिन आयोजन में वरिष्ठ माले नेता पवन शर्मा, एडवोकेट जावेद अहमद, सामाजिक कार्यकर्ता जौहर, रोहित किशोर, सूूबेदार आनंद, विधायक महबूब आलम, ऐपवा की मीना तिवारी, सरोज चैबे, लोकयुद्ध के संतलाल, मंजु, हिरावल के राम कुमार और प्रकाश आदि समेत कई महत्वपूर्ण लोग मौजूद थे।

दूसरे दिन डाॅ. भीमराव अंबेडकर सेवा एवं शोध संस्थान, दारोगा राय पथ में आयोजन की शुरुआत हिरावल के राजन कुमार की आवाज में दलित रिसर्च स्काॅलर रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या के खिलाफ रचे गए गीत से हुई। उसके बाद फिल्म ‘संघर्ष’ का प्रदर्शन किया गया। ‘संघर्ष’ ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय अध्ययन तथा आंदोलनों की दृष्टि से एक महत्वपूूर्ण फिल्म है। वे कौन सी सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक वजहें थीं, जिनमें अंबेडकरवादी विचारधारा का असर दलित समुदायों के भीतर बढ़ा, इसको इस फिल्म ने बखूूबी दिखाया।

शिक्षा, सांप्रदायिकता, धार्मिक अंधविश्वास, वर्ग आदि विभिन्न पहलुओं से यह फिल्म दलित आंदोलन को जानने-समझने की कोशिश करती है और बारीक संकेतों के जरिए बाबा साहब अंबेडकर के विचारों की प्रासंगिकता को सामने लाती है। फिल्म में बसपा का झंडा, दलित पैंथर से जुड़े अंबेडकरवादी कार्यकत्र्ता-नेता और सुभाषिणी अली भी नजर आते हैं, पर उनके बारे अलग से कुछ नहीं बताया जाता, बल्कि आंदोलन के दौरान जो सवाल केंद्र में हैं, बाबा साहब के विचारों के अनुरूप समाज में बदलाव की जो कोशिशें की जाती हैं, उसी पर फिल्मकार का ध्यान केन्द्रित रहा है।

निकोलस जाउल ने अपनी ओर से कोई अतिरिक्त संदेश नहीं दिया है और न ही फिल्म में वैचारिक हस्तक्षेप किया है, बल्कि फिल्म के विभिन्न दृश्यों में जो वास्तविक चरित्र हैं और जो घटनाएं हैं, उनके जरिए ही अंबेडकरवादी आंदोलन की जरूरत और उसकी चुनौतियों से दर्शक वाकिफ हो जाते हैं। भारतीय समाज में जो यथास्थिति है, जिस तरह की भीषण प्रतिक्रियावादी, सांप्रदायिक और अंधविश्वासी धारणाएं इसके भीतर गहरे तक धंसी हुई हैं और शिक्षित नौकरीपेशा वर्ग का उत्पीड़ित, अभावग्रस्त और भेदभाव के शिकार लोगों के प्रति उपेक्षित व संवेदनहीन व्यवहार है, वह अंबेडकरवादी विचारधारा के लिए भी बड़ी चुनौती है, इसे भी फिल्म दिखाती है। दलित-वंचित लोगों की शिक्षा और संगठन तथा सत्ता में हिस्सेदारी के साथ-साथ सांप्रदायिक सौहार्द और तर्कशीलता सामाजिक बदलाव के लिए कितना जरूरी है, इसे यह फिल्म बखूबी दर्शाती है।

दोनों दिन फिल्म के प्रदर्शन के बाद निकोलस जाउल से दर्शकों की विचारोत्तेजक बातचीत हुई। पूर्व डीजीपी जीपी दोहरे, जो कानपुर क्षेत्र के ही हैं, उन्होंने जमीन पर जाकर इतनी महत्वपूर्ण फिल्म बनाने के लिए निकोलस जाउल को बधाई दी। कुछ सुझाव भी आए, जैसे कि दलित के बजाए बहुजन शब्द का इस्तेमाल किया जाए। हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध हो जाने के सुझाव पर बहस भी हुई। संजय किशोर का कहना था कि दलित हर रोज जिन समस्याओं का सामना करते हैं, यह फिल्म उसे ही दिखाती है। लेकिन इसका संदेश आम लोगों तक ज्यादा प्रभावशाली तरीके से संप्रेषित हो सके, इस लिहाज से इस पर और काम किया जाना चाहिए। निकोलस जाउल का कहना था कि लोगों की ग्रहणशीलता के स्तर भी अलग-अलग होते हैं, यह डाक्यूमेंटरी फिल्म है और यह इसका फाइनल रूप है। इसमें अब और संपादन संभव नहीं है। उन्होंने अंबेडकरवादी आंदोलन को जिस रूप में देखा उसे दिखलाया है।

आयोजन के दूसरे दिन पूर्व डीजीपी जीपी दोहरे के अतिरिक्त फिल्म दर्शकों में माले पोलित ब्यूरो सदस्य का. धीरेंद्र झा, बीएसएनएल कर्मचारी यूनियन के धनंजय कुमार और रामलखन चौधरी, आईटीआई, दीघा, कर्मचारी यूनियन के अशोक चौधरी, आरक्षण बचाओ, संविधान बचाओ मोर्चा के अध्यक्ष हरकेश्वर राम, कमर्चारी संगठन गोप गुट के राज्य सचिव प्रेमचंद सिन्हा, बीएसपीबी के प्रदेश महासचिव नकुल प्रसाद, गौतम बुद्ध विहार के आनंद भंते, समता सैनिक दल के प्रदेश महासचिव संतोष कुमार, एडवोकेट महंत मांझी, पोस्टल कर्मचारी यूनियन के नेता आर. एन. पासवान, भूपेद्र राम, इलेक्शन वाच के राजीव कुमार, नटमंडल के विवेक कुमार, रंगकर्मी मृत्युंजय प्रसाद आदि भी मौजूद थे।

 

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