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गंगा-जमुनी तहजीब और आज़ादी के पक्ष में है संजय कुमार कुंदन की शायरी : प्रो. इम्तयाज़ अहमद

 

शायर संजय कुमार कुंदन के संग्रह ‘भले, तुम नाराज हो जाओ’ पर बातचीत

 

पटना.

‘‘हटा के रोटियां बातें परोस देता है/ इस सफ़ाई से के कुछ भी पता नहीं चलता है।
उसने कुएं में भंग डाली है तशद्दुद की/ नशे को कौमपरस्ती का नाम धरता है।’’

‘‘तुम ही गवाह, क़ातिल तुम ही, तुम ही मुंसिफ़/ तुम ही कहो ये कहां की भला शराफ़त है। ’’

‘‘तू ज़ुर्म करे और हो क़ानून पे काबिज/ बच-बच के चलें और ख़तावार बनें हम।”

 

11 फरवरी को बीआईए सभागार में शायर संजय कुमार कुंदन की ग़ज़लों और नज़्मों के चौथे संग्रह ‘ भले, तुम और भी नाराज़ हो जाओ ’ पर जन संस्कृति मंच की ओर से बातचीत आयोजित की गई। पहले हिरावल के सचिव संतोष झा ने उनकी नज़्म ‘ तुम सदाएं दो ’ सुनाया।

प्रसिद्ध इतिहासविद् प्रो. इम्तियाज अहमद ने संजय कुमार कुंदन की शायरी में मौजूद आलोचनात्मक नज़रिए की तारीफ़ करते हुए कहा कि वे हमारे वक़्त की ख़राबियों की वजहों की पड़ताल करते हैं। उनकी रचनाएं मुल्क की गंगा-जमुनी तहजीब और आज़ादी के पक्ष में हैं और उम्मीद बंधाने का काम करती हैं।

रांची से आए युवा कहानीकार पंकज मित्र ने कहा कि हम बहुत ख़तरनाक दौर से गुज़र रहे हैं, जहां चारों तरफ झूठ का साम्राज्य है, संजय कुमार कुंदन अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के ज़रिए इसका प्रतिरोध करते हैं। उनकी शायरी यह यक़ीन दिलाती है, जो सिर्फ़ ताज़िर हैं यानी केवल व्यवसायी हैं, वे बहुत देर तक शासन नहीं कर पाएंगे।
शायर कासिम खुर्शीद ने संजय कुमार कुंदन को एक स्वाभाविक शायर तथा उनकी शायरी को विविधरंगी और बहुआयामी शायरी बताया।
शायर और मनोचिकित्सक डाॅ. विनय कुमार के अनुसार संजय पहले उन्हें उदासियों के शायर लगते थे. पिछले संग्रह में आहिस्ता-आहिस्ता उनके भीतर उभरते विरोध के स्वर दिखने लगे थे। मौजूदा संग्रह में उन्होंने उन उदासियों की वजह की तहकीकात की है। तहकीकात का यह सफ़र किसी शायर के लिए एक बड़ा सफ़र है।


जन संस्कृति मंच के राज्य सचिव युवा आलोचक सुधीर सुमन ने कहा कि आज खुद को खुदा मानने वाले जो तख़्तनशीं हैं, उनसे शायर संजय कुमार कुंदन प्रगतिशील और इंक़लाबी शायरी की समूची विरासत को लेकर संघर्ष करते हैं। उनकी शायरी उर्दू शायरी की ज़मीन से जुड़ी है। ‘भले, तुम और भी नाराज़ हो जाओ’ संग्रह में उनकी ग़ज़लों और नज़्मों को पढ़ते हुए नजीर, अकबर, फ़ैज़, इब्ने इंसा, साहिर लुधियानवी, हबीब जालिब जैसे शायरों की याद आती है। उनकी रचनाएं अवाम के दिल में मचलते जज्बात और रंजोग़म का सच्चा बयान हैं। वे पाठकों के पहलू में किसी हमदर्द और हमजुबान की तरह खड़ी हैं। जो जालिम और धोखेबाज हुकूमत और उसके समर्थक हमारे ख़ुशनुमा अहसासों और हर ख़ूबसूूरत चीज़ को मिटाने के उन्माद से भरे हुए हैं, संजय कुमार कुंदन की ग़ज़लें उनसे मुकाबला करती हैं।
वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा ने कहा कि जो सच्चाई के लिए संघर्ष करते हैं, इतिहास उन्हीं से बनता है। आज हम सबकी लड़ाई तानाशाही से है। आज वैसे लोग तख़्त पर काबिज हैं, जिनकी आज़ादी की लड़ाई में कोई भूमिका नहीं थी। आज ज़रूरत है कि अच्छे शायर नुक्कड़ों और मंचों पर आएं। संजय कुमार कुंदन में भी लोकप्रियता के तत्व हैं। उन्हें नुक्कड़ों और मंचों पर भी आना चाहिए।

इस मौके पर संजय कुमार कुंदन ने ‘ हम सब तो खड़े हैं मक़तल में’, ‘ज़िंदगी ज़िंदगी सख्त है’ और कई ग़ज़लें सुनाई। एक ग़ज़ल में उन्होंने कहा-

‘एक तख़्तनशीं आज भी इतराया हुआ है
वो ही खुदा है सबको ये समझाया हुआ है
फ़रमान लिए फिरते सकाफत के ठेकेदार
हम पहनेंगे-खाएंगे क्या, लिखवाया हुआ है
हम एक जैसे हैं मगर कहिए अलग हैं
उसकी नसीहतों का नशा छाया हुआ है
बाशिंदे इसी मुल्क के उसके भी थे अजदाद
कहते हैं, वो बाहर कहीं से आया हुआ है।

इस अवसर पर वरिष्ठ गजलकार और टिप्पणीकार ध्रुव गुप्त, कथाकार शेखर, कवि अनिल विभाकर, दूरर्दशन के प्रोड्यूसर शंभु पी. सिंह, प्रो. एहसान श्याम, नरेंद्र कुमार, नीलांशु रंजन, कवि-समीक्षक कृष्ण सम्मिद्ध, कवि प्रतिभा वर्मा, कवि प्रत्यूष चंद्र मिश्रा, अंचित, राहुल कुमार, अरुण नारायण, रामनाथ शोधार्थी, संतोष सहर, हिरावल की प्रीति प्रभा, अभिनव, राजन, नवीन कुमार, अभ्युदय, समता राय, विनीत कुमार, सुशील कुमार, साकेत कुमार, शहनवाज आदि मौजूद थे।
संचालन जसम पटना के संयोजक कवि राजेश कमल ने किया।

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