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योगी सरकार का एक साल : क्या पक पायेगी खुशफहमियों की खिचड़ी

संजय श्रीवास्तव

 

बीते एक साल में योगी ने वादों और इरादों को मिला कर विकास के चूल्हे पर खुशफहमियों की ऐसी खिचड़ी चढा दी है जिसे आंच बाहरी निवेश से मिलने वाली है। खिचड़ी कब पकेगी इसका तो पता नहीं पर प्रचार प्रसार और बयानों के जरिये इसकी खुशबू फैलाने की कोशिशें जारी हैं।फिलहाल उपचुनावों की हार ने उसकी खुशियों में खलल डाल दी है, फिर भी सरकार अपने कार्यकाल का वार्षिकोत्सव या कहें पहली वर्षगांठ बड़ी धूम धाम से मना रही है.

उपचुनाव में हार के बाद धूल झाड़ कर खड़े होने के बाद सपनों के थोक विक्रेता सरीखे मुख्यमंत्री यह बताने में लगने वाले हैं कि उनके पास छोटे- बड़े, अमीर- गरीब, किसान, कारोबारी, युवा, बुजुर्ग, सब के लिये हर किस्म के सुहाने सुनहरे सपने हैं। सपने हैं तो उनके पास उनको सच करने की तदबीरें भी हैं और तरकीबें भी। एक साल में बुने खुली आंखों वाले ये सपने कितने सालों में सच होंगे पता नहीं पर सरकार उम्मीद से है, विकास जरूर प्रसवित होगा।

मुख्यमंत्री सगर्व दावा करते हैं कि उत्तर प्रदेश अब प्रश्न प्रदेश नहीं रहा, साल भर में उन्होंने इसे बीमारू राज्यों की श्रेणी से बाहर निकाल लिया है। अब इसे सर्वोत्तम प्रदेश बनाने की बारी है। 428 लाख करोड़ से ज्यादा निवेश के बूते और अपने अन्य कार्यक्रमों की सहायता से वे प्रदेश भूमि पर विकास की नई महागाथा लिखने का दावा कर रहे हैं.

पब्लिक ऑडिट का इंतजाम होता तो पता चलता कि साल बीत जाने के बावजूद सरकार की बहुत सी घोषणायें बस जुमले ही साबित हुए हैं। यह तो अच्छा रहा कि साल के आखीर में हुये उपचुनावों ने इसका आंशिक काम कर दिखाया। सरकार का वादा दिसंबर 2018 तक सबको 24 घंटे बिजली देने का था। आज भी यह दूर की कौड़ी है। वाराणसी के लंका में रहने वाले अमिताभ चक्रवर्ती ने महंगा इनवर्टर खरीदने की योजना इसलिये टाल दी थी कि बस कुछ महीनों में ही चौबीस घंटे बिजली मिलने लगेगी तो इस खर्च की जरूरत ही क्या है। उद्योग धंधों के लिये बिजली निरंतर चाहिये पर चौबीस घंटे बिजली देने वाले दावे से करंट गायब है। बिजली व्यवस्था में गड़बड़ी लगातार जारी रहने से विकास के दूसरे क्षेत्रों, बाजार, उद्योग, उद्यम्, अवसंरचना पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है हालांकि हर घर में बिजली पहुंचाई जा सके, इसके लिए इस बजट में 29883.05 करोड़ का प्रावधान किया गया है। यह पिछले साल की तुलना में 54 फीसदी ज्यादा है।

पूर्वांचल के कुछ शहरों में कई पब्लिक स्कूलों में बच्चों की एडमीशन फीस कुछ देर से जमा हुई.  कारण कि अभिभावकों ने कहीं पढ लिया था कि प्राइवेट स्कूलों की फीस सरकार आधी करने जा रही है, पर नये सत्र तक ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया। 15 जून तक सभी सड़कें गढ्ढा मुक्त होंगी, पर कस्बे या गावों की कौन कहे तमाम शहरों की मुख्य सड़कें भी गढ्ढों से मुक्त नहीं हुईं। आलू की सरकारी खरीद में सरकार अपने लक्ष्य से चूकी, गेहूँ खरीद केंद्रों पर किसानों को दिक्कतें पेश आईं, किसानों का पूरा कर्जा माफ नहीं हुआ। एंटी रोमियो अभियान ने कुछ महीनों में दम तोड़ दिया। अधिकतर प्रशासनिक अधिकारियों ने संपत्ति घोषित नहीं की, दफ्तरों में लेट लतीफी लौट आयी.

सरकार ने “अन्नपूर्णा भोजनालय” नाम की योजना को राज्य के सभी 14 नगर निगमों में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) के तहत शुरू करने की बात कही थी। यहां एक लीटर ब्रांडेड बोतलबंद पानी चौथाई दाम में, पांच रुपये में खाना तो एक रुपये की चाय और तीन रुपए में नाश्ता मिलता। कुल 275 कैंटीन खोलने पर 153.59 करोड़ रुपए की लागत जोड़ ली गयी। पर गरीबों, बेसहारा लोगों, मजदूरों, रिक्शा चालकों,स्टूडेंट्स, कम सैलरी पाने वाले नौकरीपेशा लोग की आस मन में ही रह गयी। सरकारी सस्ती रोटी तो खैर नहीं मिली पर बहुतों को सरकार के उस कथन पर भरोसा है कि 2022 तक सब बेघरों के पास मकान होगा। करीब 29 लाख लोगों को घर की जरूरत है। अभी भी लगभग 20लाख घर बनाने की जरूरत है। यह काम कठिन है पर वादे अपनी जगह कायम हैं। सूबे के तमाम बेघर उम्मीदवार उम्मीद से हैं। 61 नगरों में सभी घरों में नल द्वारा जल आपूर्ति एवं नगरों में सीवर की व्यवस्था होगी। 2020 तक 13 लाख टोटी घरों में और 15 लाख अतिरिक्त नलों की स्थापना करने का लक्ष्य है। पर इस मामले में एक साल के भीतर कतई कोई तेज रफ्तारी नहीं देखी गयी। 2020 तक सबको पेयजल पहुंचाना भी इस साल के कम काज को देख कर आकाश कुसुम ही लगता है।

एसोचैम और थॉट आर्बिट्रेज रिसर्च इंस्टीट्यूट यानी टारी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि उत्तर प्रदेश से सबसे ज्यादा संख्या में लोग रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों में जाते हैं और हाल के दशकों में यह सिलसिला और तेज हुआ है। प्रदेश से लोगों के पलायन के दो ही सबसे प्रमुख कारण हैं। रोजी रोजगार न होने से आर्थिक मजबूरी और फिर कानून व्यवस्था। वादे के मुताबिक सरकार को पांच सालों में सत्तर लाख बेरोजगारों को नौकरी देना था, यानी हर साल 14 लाख पर आंकड़ा अब तक चार लाख तक नहीं पहुंचा। सरकारी शिक्षा व्यवस्था हो या स्वास्थ्य अथवा सफाई या फिर सुरक्षा साल भर के दौरान यह सब डंवाडोल दिखा है, कारण सब विभागों में हजारों से लेकर लाखों कर्मचारियों,पेशेवरों की आवश्यकता है। सुपात्र पात्रता लिये घूम रहे हैं पर सरकार को इसमें कोई रुचि नहीं दिखी कि नियुक्तियां करके व्यवस्था सुधारी जाये। प्राथमिक शालाओं में 1.75 लाख गुरूओं की आवश्यकता है तो इंटर तक को पढाने के लिये 1.64 लाख शिक्षक चाहिये। कानून व्यवस्था का रोना रोने वाले यह बखूबी जानते हैं कि प्रदेश में आईपीएस के 114 पद खाली हैं तो पुलिस कर्मियों के 1।5 लाख पद रिक्त हैं। सरकार साल भर विकास की माला जपती रही पर रोजगार रहित विकास का क्या अर्थ।

पूर्वी क्षेत्र इससे सबसे ज्यादा प्रभावित है। उत्तर प्रदेश न्यू एंड रिन्यूएबल एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी, यूपीनेडा की सूर्यमित्र वैकेंसी योजना किस अंधेरे में गुम हो गयी जिसमें से रोजगार की हजारों किरणें निकलनी थीं। पलायन रुके इसके लिये कौशल विकास, रोजगार के लिये कर्ज तथा उद्यम के अवसर बढाने वाली सरकारी नीतियों की यहां बहुत आवश्यकता है। अब बाहरी निवेश के बूते सरकार इस ओर बढने का दावा कर रही है पर एक साल बीतने के बाद।

नयी सरकार ने भ्रमवश समय से शिक्षा मित्रों की अर्हता और योग्यता का समुचित मानदंड निर्धारित करने में जो कोताही बरती उसके चलते कई हजार शिक्षामित्र आज सड़क पर हैं। शिक्षामित्रों के लिये अनिवार्य अर्हता प्राप्त टीईटी किये हजारों शिक्षक बेकार घूम रहे हैं जबकि 2 लाख 75 हजार शिक्षक तो बर्बाद हुये ही शिक्षा पर भी बुरा असर पड़ा। जनवरी के आखीर में उत्तर प्रदेश पुलिस रिक्रूटमेंट एंड प्रमोशन बोर्ड ने पिछली कमी को पूरा करने के लिये अपनी पूर्व में कराई तीन परीक्षाओं को निरस्त कर दिया। मेहनत पर तैयारी कर पास होने वाले युवा निराश हो गये, कईयों की तो इसी चक्कर में सरकारी नौकरी की उम्र ही निकल गयी।

यही हाल दूसरी कई परीक्षाओं का हुआ। अब पुलिस समेत अन्य सरकारी विभागों में 47 लाख नई भर्तियों की प्रक्रिया शुरू किये जाने की बात कही जा रही है और शिक्षकों की कमी दूर करने को भी कदम उठाए गए हैं। पर दीनदयाल अंत्योदय योजना-राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन के तहत गरीबों को कौशल विकास प्रशिक्षण के साथ-साथ उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने के काम कब तेजी पकडेगा, पता नहीं। कुल मिलाकर सरकार नयी नौकरियों के सृजन के मोर्चे पर कम से कम इस साल पूरी तरह विफल रही, अब वह जैसे तस्वीर पेश कर रही है उससे उम्मीद है कि अगली साल नौकरियों की भरमार होगी। सरकार ने कह दिया है कि वह लैपटॉप की बजाये नौकरियां और कौशल बांटेगी।

भयमुक्त समाज बनाने और कानून का राज स्थापित करने के मामले में सरकार साल भर परेशान रही। पहले तीन महीनों में अपराध दर घटने के बजाये बेतहाशा बढ गया, मुख्यमंत्री ने अपराधियों और उनका साथ देने वालों को धमकाने वाले अंदाज में कई बयान दिये पर हास्यास्पद स्थितियां हमेशा ही पैदा होती रहीं जब उनके शहर में होने के बावजूद तमाम जघन्य आपराधिक घटनायें पूरी दीदादिलेरी से हुईं। पुलिस अधिकारियों के पत्ते कई बार फेंटे गये, महानिदेशक से लेकर थानेदार तक बदल दिये गये पर कोई असर नहीं हुआ। जब सियासी करतब और बयानबाजी से बात बनते नजर नहीं आयी तो बात बनी धुआंधार इनकाउंटर से। सरकार ने दावा किया है कि अब तक तकरीबन 1500 एनकाउंटर हुए हैं, जिनमें 50 से अधिक ‘ अपराधी ‘ मारे गये हैं 270 गंभीर जख्मी हुए हैं और 2850 की गिरफ्तारियां हुई हैं लेकिन पुलिस की यह ‘तेजी’ सवालों के घेरे में है। आलोचकों का कहना है कि इन एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल मर्डर में कुछ खास वर्ग  को ही निशाना बनाया जा रहा है, कई मुठभेड़ें राजनीति प्रेरित हैं मारे जाने वालों में अधिकतर संख्या मुसलमानों, अति पिछड़ों और दलितों की है, सवर्णों में शायद ही कोई हो पर न सरकार और पुलिस ने अपना काम जारी रखा।

जहां तक बात सांप्रदायिक दंगों की है मुख्यमंत्री का दावा है कि एक साल में कोई दंगा नहीं हुया वे कासगंज और फर्रुखाबाद की घटनाओं को इस श्रेणी में नहीं रखते। तथ्य यह है कि साल 2017 में 195 सांप्रदायिक घटनायें सूबे में हुईं जिसमें 44 मरे 542 घायल हुये इस साल ऐसी 204 घटनायें हुयीं यानी इस मामले में बढत देखी गयी। सांप्रदायिकता के मामले में अपना प्रदेश अव्वल रहा।

सूबे की सेहत कभी बहुत बेहतर रही हो ऐसा समय इतिहास में नहीं आया। प्रदेश का स्वास्थ्य पर खर्च देश के औसत से 70 फीसदी कम है। पर जो हालात इस बरस दिखे वह उल्लेखनीय थे गोरखपुर के बाबा राघवदास मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की कमी से 61 बच्चों का मरना और फिर केवल अगस्त महीने में ही 290 बच्चों की मौत ने स्वास्थ्य व्यवस्था की बेहद किरकिरी कराई यही नहीं इसी तरह के हादसे और कुछ और अस्पतालों में भी हुये। यहां मरीज और डाक्टर अनुपात देश में सबसे कम है। प्रदेश को पांच लाख नये चिकित्सकों की आवश्यकता है, सूबा समूचे देश में स्वास्थ्य मामले में सबसे फिसड्डी है। महिलाओं में एनीमिया और शिशु मृत्यु दर तथा कुपोषण के मामले में सूबे का निचली पायदान पर स्थायी स्थान है। पिछले साल भर में यह सूरत नहीं बदली है। डॉक्टरों की कमी को देखते उनकी सेवानिवृत्ति आयु 60 से बढ़ाकर 62 वर्ष कर दी गयी और 3000 नए डॉक्टर नियुक्त करने का वादा किया गया है।

आलू किसानों से  न तो कभी लक्ष्य के अनुरूप खरीद पूरी हुई न ही किसानों को उनका मनचाहा भाव ही मिला। गन्ना किसानों का बकाया दिलवाने में सरकार ने तेजी दिखाई, यह धन मिल मालिकों से लेना था सो तत्पर रही। पर जब अपने वादे के अनुसार 450 रूपये क्विंटल का दाम दिलाने की बजाये पूर्वनिर्धारित अधिकतम समर्थन मूल्य में बस दस रूपये की बढोतरी की। सबसे बड़ा वादा था किसानों का कर्ज माफ करने का, बात पूरे कर्ज की माफी की हुयी थी सरकार ने इसे लाख रूपये की सीमा में बांध दिया और इसके चलते कुल 11, 700 लाभार्थियों को महज 1 से 500 रूपये का कर्ज ही माफ हुआ।

सरकार ने यह इरादा किया कि वह फसल उपजाने की लागत में उसका 50 फीसदी जोड़कर खाद्यान्न अथवा कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जायेगा। पर वह खेती पर लागत कैसे जोड़ती है इसपर भी भारी मतभेद हैं। उसके श्रम, और खेती की जमीन का किराया और धन पर फसल के समयांतराल का ब्याज जोड़ना तो दूर की बात। सरकार ने कहा कि उसने 10 महीने में 80,,000 करोड़ रूपये किसानों में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के जरिये दिये जबकि सच यह है कि उसने कुल इससे आधी भी रकम ट्रांसफर नहीं किया। यह एक तरह का भारी भ्रष्टाचार था।

25 दिसंबर को उसने पूरे प्रदेश में सुशासन दिवस मनाया। लेकिन भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध सरकार के मंत्री ओम प्रकाश राजभर अपनी साथी पार्टी के बारे में राय थी कि, “लग सकता है भ्रष्टाचार में कमी आई है, लेकिन ऐसा नहीं है, पहले 500 रुपये का भ्रष्टाचार होता था, अब 5 हजार रुपये का हो रहा है। सरकारी दावा है कि व्यवसाय करने में आसानी के मामले में हम 17वीं पोजीशन से सातवीं पर आ गये हैं। आंकड़े और दस्तावेज बताते हैं कि इस मामले में विकास जरूर हुआ है पर इतना नहीं, अभी स्थिति 14वें पर अटकी है।

सरकार ने साल भर में योजनायें तो बहुत स्वर्णिम दी हैं पर उनकी चमक कब तक बरकरार रहती है यह देखना होगा। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले सभी वर्गों के परिवारों की बेटियों की शादी के लिये 250 करोड़ रुपये की व्यवस्था प्रस्तावित की। औरैया के ककोर में मुख्यमंत्री सामूहिक विवाह योजना के तहत 18 फरवरी को बैड बाजे के साथ 48 जोड़े वैवाहिक बंधन में बंधे, जिला प्रशासन ने दुल्हनों को योजना के मुताबिक, कन्या को के खाते में  20,000 रुपये भेजे और 10,000 रुपये में उसके लिए कपड़े, चांदी की पायल, बिछिया व सात बर्तन उपहार में दिया। करीब सप्ताह भर बाद सरकारी उपहार का रंग हल्के पड़ने लगा तो दुल्हनों ने सुनार से अपनी बिछिया की जांच कराई,मामले का खुलासा हुआ कि गहने तो लोहे के थे। जांच में पता चला कि खरीद के लिये जिम्मेदार अधिकारी ने यह घपला किया है। सबब यह कि सरकार ने साल भर सोच विचार के बाद जिन स्वर्णिम योजनाओं को जनता के लिये उतारा है उम्मीद है अगले साल 2019 तक उनकी चमक इस तरह फीकी नहीं पड़ेगी। न वे सोने के बजाये लोहे के निकलेंगी। उपचुनावों के बाद योगी सचेत तो हुये होंगे ऐसी उम्मीद की जा सकती है.

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