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लोक और जन की आवाज़: त्रिलोचन और मुक्तिबोध

मिथिला विश्वविद्यालय  में मुक्तिबोध-त्रिलोचन जन्म शताब्दी पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन


मिथिला विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग ने मुक्तिबोध त्रिलोचन जन्मशताब्दी के अवसर पर दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया। यू जी सी द्वारा वित्त संपोषित इस कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो सुरेंद्र प्रसाद सिंह ने उक्त दोनों कवियों को हिंदी का अत्यंत प्रसिद्ध कवि कहते हुए कहा कि एक की कविता में जन की आवाज़ है तो दूसरे में लोक की। भले ही ये किसी भी विचारधारा के हों, किन्तु इनकी कविता में भारत का दिल धड़कता है।

इस अवसर पर 120 शोधलेखों का 250 पृष्ठों की स्मारिका का लोकार्पण भी किया गया जिसे कुलपति ने एक साहसिक कदम बताते हुए हिंदी विभाग की तारीफ की। कुलसचिव मुस्तफा कमाल अंसारी ने मुक्तिबोध को विश्व दृष्टि से सम्पन्न कवि कहा तो त्रिलोचन को लोक दृष्टि से सराबोर कवि। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि और समीक्षा पत्रिका के संपादक प्रो सत्यकाम ने दोनों कवियों की तुलना करते हुए मुक्तिबोध को मध्यवर्ग का सबसे बड़ा कवि कहा तो त्रिलोचन को भारतीय गांव का।

उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध की कविता घने अंधकार की कविता है, शंका और संशय की कविता है। त्रिलोचन की कविता में खास तरह की निर्द्वंदता है। मुक्तिबोध की कविता में क्रांति के सपने की टूटने की व्यथा कथा है जो मुक्तिबोध को भी तोड़ती है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो कमलानंद झा ने मुक्तिबोध की कविता को अंधेरे से लड़ने वाली कविता कहा। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध की कविता में जो जन है, मजदूर है, मध्यवर्ग है, वो भी त्रिलोचन के गावँ से ही आये और शहर में बसे लोक ही हैं। उनकी कविता संशय से निःसंशय की और जाती कविता है।

‘अभिव्यक्ति के खतरे ’ मुक्तिबोध के समय से आज कहीं ज्यादे है,इसलिए आज ‘परम अभिव्यक्ति’ की खोज ज्यादे जरूरी है। और यही आज की तारीख़ में दोनों कवियों की सार्थकता है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे बिहार विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो प्रमोद कुमार सिंह ने दोनों कवियों के मूल्य और महत्व को कई उदाहरणों से स्पष्ट किया और दोनों कवियों के व्यक्तितव से जुडे कई रोचक तथ्यों से साक्षात्कार कराया। उन्होंने कहा कि त्रिलोचन के पहले काव्य संग्रह ‘धरती’ की विलक्षण समीक्षा मुक्तिबोध ने की। भारतीय बुद्धिजीवियों के पाखंड को दर्शाने वाली कविता है ‘ब्रह्मराक्षस’।

एल एन एम यू के हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो अजित कुमार वर्मा ने मुक्तिबोध की कविता की सुसंगतता और उसमें विन्यस्त लयात्मकता को रेखांकित किया। कार्यक्रम का सफल संचालन डॉ विजय कुमार ने किया और स्वागत भाषण दिया प्रो चंद्रभानु प्रसाद सिंह ने। कार्यक्रम के अंत मे धन्यवाद ज्ञापन किया डॉ सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने।


प्रथम सत्र ‘मुक्तिबोध की कविता’ का विषय प्रवर्तन करते हुए कमलानंद झा ने कहा कि मुक्तिबोध की कविता 20वीं शताब्दी का सामाजिक-, राजनीतिक- सांस्कृतिक यूनिवर्स है। उनकी कविता हमारे पारंपरिक काव्य रुचि को बदलने का काम करती हैं। अंधकार जितना सघन होगा मुक्तिबोध की कविता उतनी ही जरूरी होगी। उनकी कविता न सिर्फ चहुं ओर फैले अंधकार से भिड़ती है, बल्कि वह हमें उस अंधकार से लड़ने की ताकत भी देती है।

इग्नू के मानविकी संकाय के निदेशक प्रोफेसर सत्यकाम ने मुक्तिबोध की कविता की गहरी छानबीन करते हुए कहा कि मुक्तिबोध की कविता हमारे समय और समाज के लिए जरूरी कविता है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उनकी कविता में निराशा और अवसाद की घनी छाया है। प्रो प्रमोद कुमार सिंह ने मुक्तिबोध की कविता के शिल्प विधान की नवीनता और भाषा की ताज़गी पर गंभीर चर्चा की।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो प्रभाकर पाठक ने मुक्तिबोध की कविता में फैंटेसी की जरूरत को रेखांकित किया। उन्होंने अन्य कवियों की कविताओं के आलोक में मुक्तिबोध के काव्य वैशिष्ट्य को उद्घाटित किया। इस सत्र में दस शोधार्थियों ने अपने- अपने आलेख का वाचन किया। कार्यक्रम का सफल संचालन सुरेंद्र सुमन ने किया.

दूसरे दिन प्रथम सत्र ‘ मुक्तिबोध का गद्य साहित्य’ का विषय प्रवर्तन किया प्रो सत्यकाम ने। मुक्तिबोध की कहानियों का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध की कहानियां पर्तों में छिपे सत्य और यथार्थ से हमें रूबरू कराती है। उनका मार्क्सवाद ओढा हुआ न होकर उनका जीवन अंग है, यह उनकी कहानियों से पता चलता है।

बिहार विश्विद्यालय से आये राजीव झा ने मुक्तिबोध की कैथरली का सामाजिक-राजनीतिक- मनोविश्लेषण प्रस्तुत किया। प्रो प्रमोद कुमार सिंह ने मुक्तिबोध के गद्य साहित्य को कविता से अधिक मूल्यवान और बोधगम्य बताया।

मुक्तिबोध के आलोचना कर्म पर चर्चा करते हुए कमलानंद झा ने कहा कि मुक्तिबोध आलोचना के दायित्व को समझने वाले आलोचक हैं और निरंतर दायित्वपूर्ण आलोचना लिखते हैं। शुक्लजी के बाद मुक्तिबोध हिंदी के सबसे बड़े आलोचक हैं। गहरी अंतर्दृष्टि, व्यापक अध्ययन और जन सरोकार उनके आलोचना कर्म को विश्वसनीय बनाता है।उखाड़ पछाड़ आलोचना को वे निम्न कोटि की आलोचना मानते थे, हिंदी आलोचना की सैद्धान्तिकी निर्माण में उनकी महती भूमिका है। रचना प्रक्रिया पर उन्होंने नए तरके से बात की। मुक्तिबोध आलोचक बनाने वाले आलोचक थे।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रो प्रभाकर पाठक ने कहा कि मुक्तिबोध का सम्पूर्ण गद्य उनकी कविताओं से होड़ लेता हुआ प्रतीत होता है। उनकी प्रतिभा अनोखी थी और उनकी अनुभूति क्षमता विलक्षण। कार्यक्रम का संचालन सुरेंद्र सुमन ने किया, बीच बीच में संचालक की टिप्पणी मुक्तिबोध को जानने- समझने में सहायता करती रही।

त्रिलोचन के रचना संसार पर केंद्रित समापन सत्र के मुख्य अतिथि विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति डॉ जय गोपाल ने मुक्तिबोध को जटिल भावबोध का कवि कहा तो तो त्रिलोचन को सरलता और सादगी का कवि। डॉ चितरंजन प्रसाद सिंह ने कहा कि त्रिलोचन ज़िद के कवि थे, जो शब्द और अर्थ दोनों में फलीभूत होती दिखती है। त्रिलोचन ने भाषा में युद्व किया, वही उनका वर्ग संघर्ष था।

कमलानंद झा ने त्रिलोचन को देसी आधुनिकता का कवि कहते हुए कहा कि उनका कलकत्ता पर ‘बजर गिराना’ पश्चिमी आधुनिकता पर वज्र गिराना है। त्रिलोचन की चमत्कारिक भाषा सामर्थ्य और शिल्प वैविध्य मातृभाषा अवधी और संस्कृत ज्ञान की आवाजाही के कारण है। उनकी कविता काव्य के अभिजात्य दृष्टि का प्रतिपाठ रचती है और नामवर सिंह के शब्दों में अलग काव्यशास्त्र की मांग करती है।

प्रो पाठक ने त्रिलोचन काव्य की पठनीयता और सार्थकता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि त्रिलोचन आम जन में रमने और बसने वाले सहज किन्तु बड़े कवि हैं। सत्र में लगभग 15 शोधार्थियों ने संक्षेप में आलेख वाचन किया। संचालन डॉ आनंद प्रकाश गुप्ता ने और धन्यवाद ज्ञापित किया प्रो रामचंद्र ठाकुर ने। दोनों दिनों के कार्यक्रम में नागरिकों, शहर के अध्यापकों, शिधार्थियों और विद्यार्थियों की भारी उपस्थिति रही।

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