समकालीन जनमत
चित्रकला

काला सच और रणजीत सिंह की कला

अमेरिकी कला ने परम स्वतंत्रता के नाम पर एक तरफ अमूर्तन की भूलभुलैया खड़ी की तो दूसरी तरफ फोटो रियलिज्म ( सुपर रियलिज्म या हाइपर रियलिज्म) को भी खड़ा करने का श्रेय उसी को जाता है. 1960 के दशक के अंत और 1970 के शुरूआती दौर में लगभग पाॅप आर्ट के बाद के दौर में फोटो रियलिज्म नाम से एक सशक्त शैली आकार लेने लगी.

यद्यपि यह दौर ऐसा था जिसमें कला आंदोलन के बनने बिगड़ने में समय नहीं लगता था. इस दौर में कला शैलियों की लगभग ऐसी बाढ़ आई कि स्वतंत्र रूप से पहचाना भी मुश्किल हो गया. यहां तक कला ने कई तरह के नए माध्यम और रूप भी अख्तियार कर लिये जिसमें वीडियो आर्ट, डिजिटल आर्ट, बॉडी आर्ट, इंस्टालेशन आदि आदि हैं.
बहरहाल आज की कला, कलाकार की अपनी कला है और उसमें कई वाद और शैली की इस कदर आवाजाही है कि उसे परिभाषित करने की कोशिश न तो उचित है न ही जरूरी.

इस कड़ी में जब हम अपने यहाँ देखते हैं तो लगभग सत्तर – अस्सी साल के सफर के बाद हमारे देश का कला जगत वैश्विक कला जगत के साथ साझेदारी करने के स्थिति में लगभग पहुंच रहा है. निस्संदेह इसमें सूचना तकनीक की भूमिका तो है ही मगर उससे ज्यादा कुछ कलाकारों की असीम मेहनत घोर कला-साधना और वैचारिक प्रतिबद्धता भी है जिन पर कला बाजार के लुढ़कने या चमकने का फर्क नहीं पड़ता. बल्कि इनकी प्रेरणा वो मेहनत है जो कोयला खान , फैक्ट्री , खेत – खलिहान तक सोना बनाता तो है पर खुद बदहाल है. चित्रकार रणजीत सिंह एक ऐसे ही कलाकार हैं जिनका केन्द्रीय विषय कोयला खदानों से लेकर फुट – पाथ की चाय दुकानों तक बिखरी बाल – मजदूरी है.

रणजीत सिंह का जन्म 02 जनवरी 1984 में धनबाद, झारखंड में हुआ. यद्यपि इनका पैतृक गांव दलीपपुर , बिहार के भोजपुर जिले में अवस्थित है. पिताजी  त्रिलोकी सिंह की नौकरी धनबाद में थी सो उनका जन्म, लालन-पालन , धनबाद में ही हुआ. माता लाल मुनी देवी गृहणी हैं. रणजीत का बचपन धनबाद के कोयला खदान के काले धूल भरे वातावरण में हुआ.
वहां उन्होंने देश के सबसे निचले पायदान पर रहने को अभिशप्त मजदूरों को देखा, उनके बच्चों को देखा जिनके लिए जीने का मतलब हाड़-तोड़ मजदूरी थी. रणजीत जब पढाई के लिए बनारस आए तो जैसे वहां भी उन्हीं बच्चों को चाय के ढाबे और सभ्य कहे जाने वाले घर के नौकर के रुप में देखा. यह दारुण दृश्य जैसे रणजीत सिंह के दिल – दिमाग पर स्थाई रुप से बस गया. जो उनके कैनवास पर पहले अध्ययन चित्र के रूप में आए और फिर अभिव्यक्ति के रूप में स्थाई रूप से बस गए .
रणजीत सिंह के दो बड़े भाई भी सिद्धहस्त कलाकार हैं. सबसे बड़े भाई अर्जुन सिंह चित्रकार और बीच वाले गूरुचरण सिंह मूर्तिकार. उनके पीछे रणजीत ने भी चित्रकार बनने का फैसला किया. उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दृश्य कला संकाय से 2006 में ललित कला में स्नातक तथा 2008 में स्नातकोत्तर किया. यहां उनका जुड़ाव कला समूह कला – कम्युन से बना, जो कि उस समय में कला की नयी जमीन गढने का नायाब प्रयास था. स्नातकोत्तर करने के बाद रणजीत सिंह ने दिल्ली की राह पकड़ी. फिलहाल वे यहीं रह कर स्वतंत्र रूप से कला कार्य कर रहे हैं. इस सफर में उन्होंने कई प्रतिष्ठित पुरस्कार व सम्मान प्राप्त किया.

रणजीत सिंह ने अभिव्यक्ति के लिए, ‘ दृश्य रुप में ‘ सुपर यर्थाथ वादी तरीका अपनाया जो कि घोर साधना की मांग करता है. शायद इस कठिन श्रम के श्रोत वे श्रमिक हैं जिसे ” ब्लैक ट्रुथ” की संज्ञा रणजीत ने दी है. शैली की बात करें तो यह फोटो यर्थाथ वाद की तरह दृश्य रुप में भले है लेकिन यह बात उससे बहुत आगे तक जाती है. रणजीत के यहाँ वानगॉग सा सहानुभूति भी है और पिकासो सा प्रतिरोधी तेवर भी. इसमें सुपरियलिज्म की भी झलक है और जादुई यर्थाथवाद की तरह कल्पनाशीलता भी. और सबसे बड़ी बात यह सब पुर्वनियोजित व पुर्वनिर्धारित वैचारिकी के साथ हैं जो बहुत कम कलाकारों में देखने को मिलता है.

यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि रणजीत फिलहाल जिस श्रृंखला में काम कर रहे हैं उसका नाम उन्होंने “ब्लैक ट्रुथ” रखा है अर्थात ‘ काला सच’. परंपरा ‘काला झूठ’ कहने की है मगर वे ‘ काला सच ‘ कहते हैं. कलात्मक प्रयोग में वे नए शिल्प विधान तो गढते ही है, शीर्षक के स्तर पर भी वे नये मुहावरे गढते हैं.

यहां उनकी कृति ” लुक  ऐट मी ” श्रृंखला का सातवां चित्र देखने योग्य है जिसमें एक सुटेड – बूटेड मानव की पांव की आकृति और ढोलक का कुछ हिस्सा दिख रहा है जिस पर वह थाप दे रहा है. उसके पैरों उत्तम श्रेणी के मंहगे जूते और पैंट है और उसके आसपास करतब करती एक फूटपाथी बच्ची के ढेरों अक्स हैं. अक्सर हम रेलवे स्टेशन पर या फिर कहीं फूटपाथ पर उन करतब करने वाली बच्चियों का दृश्य देखते हैं. जो तरह-तरह के करतब दिखा चार पैसे भीख मांगने के अंदाज में कमाती हैं.  इस दृश्य को लेकर रणजीत का यह प्रयोग अद्भुत है.  यहां ऐसे लग रहा है जैसे अदृश्य ताकत है जिसकी थाप पर पूरा देश करतब दिखाने को मजबूर है. चित्र इतना यर्थाथ रुप में चित्रित है कि फोटो ग्राफी का भ्रम उत्पन्न करता है. वर्णयोजना कमाल का तो है ही दृष्टिक्रम का प्रयोग भी अद्भुत है. यह चित्र वैचारिकी और कलात्मक दक्षता का बड़ा ही सुंदर संयोजन है.
” ब्लैक ट्रुथ ” श्रृंखला का नौवां चित्र जो कि तैल रंग से 122×134 सेमी के कैनवास पर 2017 में बना हुआ है उसमें रणजीत सिंह का चित्रण दक्षता अभिभूत कर देने वाला है.  चाहे वह वर्णयोजना हो या फिर आकृतियों का संयोजन हर स्तर पर रणजीत खरे उतरते हैं. चित्र के साथ ही वे संस्थापन- कला में भी उल्लेखनीय काम कर रहे हैं. 2016 में उन्होंने ” जी बी रोड ए मिस फॉर्च्यून” शीर्षक से एक इन्स्टालेशन किया है. इसमें इन्होंने तीन सीसे का मर्तबान लिया है. दो में एक-एक बच्ची का फोटोग्राफ और बीच वाले में एक लौकी बंद है. और वहीं पर दो तीन इन्जेक्शन सीरींज रखी हुई है. पृष्ठभूमि तथा सतह पर में काला कपड़ा है जिसमें सलवटें हैं.
रणजीत सिंह

जैसा कि हर कलाकार के साथ कुछ सीमाएं रहती है रणजीत सिंह के साथ भी है और वह सीमा उनकी खुबी में ही निहित है. यद्यपि यह बहुत स्वाभाविक भी है. बावजूद इसके उनका चित्रण कौशल और साफ समझ उत्साहित करने वाला भी है और महत्वपूर्ण भी. खासकर इस दौर में तो और भी जब कला-बाजार निरर्थकता और भूलभुलैया की खोह बनता जा रहा है. रणजीत सिंह में इस दौर के एक महत्वपूर्ण कलाकार के रूप में स्थापित होने की भरपूर संभावना मौजूद है. 

 
 

 

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