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“ कब याद में तेरा साथ नहीं/ कब हाथ में तेरा हाथ नहीं ”

घाटशिला (झारखण्ड) में प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘जश्ने फ़ैज़ ‘ की रिपोर्ट

घाटशिला में 17 फरवरी को प्रलेस की ओर से होने वाले ‘जश्ने फ़ैज़’ आयोजन की सूचना मिली, तो सोचा कि हर हाल में इस आयोजन में शामिल होना है। घाटशिला में साहित्यिक-सांस्कृतिक सक्रियता के पीछे कथाकार शेखर मल्लिक की अहम भूमिका रहती है। इस आयोजन की सूचना भी पहले उन्हीं के एसएमएस से मिली। इधर रविवार होने के बावजूूद मेरी दूूसरी व्यस्तताएं भी थीं, लेकिन जो ज़िम्मेवारी थी उसे निबटा कर प्राचार्या से इज़ाजत लेकर मैं निकल पड़ा। बीच राह में संतोष कुमार सिंह की गाड़ी में सवार होना था। संतोष ख़ुद को साहित्यकार नहीं मानते, पर हर तरह का साहित्य पढ़ते हैं और कई रचनाकारों से साहित्य की बेहतर समझ रखते हैं। फेसबुक पर उनकी धारदार टिप्पणियों के कारण मैं उनसे प्रभावित रहा हूं।

ख़ैर, बस में लोकल पैसेंजर चढ़ाने-उतारने के कारण हो रही देरी से झल्लाता हुआ मिलने की तय जगह पर उतरा। कुछ ही देर बाद उनकी गाड़ी आई। उनके साथ मनोज सिंह भी थे। हम तीनों चल पड़े घाटशिला और नियत समय पर पहुंच गए। यूनियन आॅफ़िस के भीतर अहाते में कुर्सियां लगी हुई थीं। मंच भी बना हुआ था। ‘बोल की लब आज़ाद हैं तेरे’- फ़ैज़ की नज़्म की यह पंक्ति जो इस वक्त पिछले किसी भी वक़्त से ज्यादा मौजूं है, आयोजन की थीम थी।

‘लोकचेतना’ के संपादक रविरंजन भी आजकल घाटशिला में ही अध्यापन कार्य कर रहे हैं। उन्हीं से फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पर वक्तव्य की शुरुआत हुई। उन्होंने फ़ैज़ को पूरी प्रगतिशील परंपरा का अगुआ कवि बताया और कहा कि भारतीय कविता पर उनका गहरा प्रभाव रहा है। उधर सूरज डूब रहा था इधर हम सबके महबूब शायर के ख्यालात चमक रहे थे। श्रोताओं की संख्या बहुत अधिक नहीं थी, पर जो लोग थे वे गंभीर श्रोता लग रहे थे। एक ओर मित्रेश्वर अग्निमित्र, प्रो. नरेश कुमार, प्रो. सुबोध कुमार जैसे वरिष्ठ अध्यापक और एक विद्यालय के प्राचार्य संजय मल्लिक थे, तो दूसरी ओर राजीव जैसे युवा अध्यापक। और वे नौजवान संस्कृतिकर्मी तो थे ही जिनका आकर्षण मुझे वहां खींच ले गया था।

सोशल मीडिया पर इस आयोजन का जो आमंत्रण था, उसमें फ़ैज़ की ग़ज़लों और नज़्मों के गायन की सूचना भी थी। मुझे यह बहुत ज़रूरी लगता है कि जहां भी संभव हो, ऐसे शायरों और कवियों की रचनाओं को गाया जाए, पढ़ा जाए। कुछ ऐसा किया जाए कि वह ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के जीवन में सहजता से रच-बस जाए।

कई बार सोचता हूं कि हर ग़ज़ल के बारे में कुछ बात हो और फिर उसे गाया जाए या पहले उसे गाया जाए, फिर उस पर बात हो। आयोजकों ने मुझे भी मंच पर बैठा दिया, तो मैं समझ गया कि मुझे बोलना भी होगा। तुरत फ़ैज़ की ग़ज़ल की पंक्ति याद आई- कब याद में तेरा साथ नहीं/ कब हाथ में तेरा हाथ नहीं।

इस दौर के तरक़्क़ीपसंद और इंक़लाबी साथियों की तरह मेरे दिलो-दिमाग़ पर भी उनकी रचनाओं का गहरा असर रहा है। लेकिन मुझे हमेशा लगता है कि इतने से बात नहीं बनेगी, आज व्यापक जनसमुदाय तक फ़ैज़ को पहुंचाने की ज़रूरत है। अमीर खुसरो से लेकर फ़ैज़ और फ़राज़ तक शायरों की जो लंबी परंपरा है, उसे हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों को भी अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाना चाहिए। मैंने एक प्रसंग सुनाया कि कैसे मुझे एक नौजवान ने, जिसका साहित्य से कोई गहरा रिश्ता नहीं है, फ़ैज़ की पंक्तियां ह्वाट्स ऐप से भेजी- लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है। फिर मुझे साथी प्रणय कृष्ण के एक लेख की याद आई- फ़ैज़ को कैसे पढ़ें ? खासकर, उस मशहूर नज़्म के संदर्भ में उनका विश्लेषण, जिसे इकबाल बानो ने जनरल जिया की तानाशाही के ख़िलाफ़ गाया था- लाज़िम है कि हम भी देखेंगे। कैसे सामान्य धार्मिक भावबोध के भीतर इंक़लाबी विचारों के लिए फ़ैज़ जगह बनाते हैं। ‘जब राज करेगी खल्के ख़ुदा’ के आगे वे कहते हैं- जो मैं भी हूं और तुम भी हो।

एक वाकया जो संभवतः कुलदीप नैयर की किताब में है, उसका भी मैंने ज़िक्र किया कि कैसे एक किशोर ने एक खिड़की से सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारियों को वहां से निकलते हुए देखा था। बाद में वही किशोर फ़ैज़ हुआ। फिर ‘आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो’ और ‘सू-ए-दार’ की चर्चा हुई। रविरंजन ने शमशेर को याद किया था। शमशेर ने जो फ़ैज़ पर लिखा है, मैंने भी उसे याद किया और याद किया शमशेर की उस मशहूर पंक्ति को- ’ हक़ीक़त को लाए तखैयुल से बाहर, मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाए/ कहीं सर्द ख़ूं में तड़पती है बिजली, ज़माने का रद्दोबदल कोई लाए।’ जाहिर है जो बेहतर समाज, मनुष्य और व्यवस्था की कल्पना है, उसे हक़ीक़त में बदलने की जद्दोजहद वाली शायरी फ़ैज़ की है, उनका जीवन भी इसी के लिए समर्पित रहा। नाउम्मीदी, अवसाद, मोहभंग, शिकस्त का अहसास- यह सब भी है फ़ैज़ की शायरी में, पर वह निष्क्रिय नहीं करता, बल्कि बेचैनी से भरता है।

घाटशिला आया तो लगा कि कुछ तो रौशनी बाकी है, हरचंद के कम है। हालांकि इस बार जगह-जगह से जश्ने-फ़ैज़ के आयोजन की ख़बरें यह भी इशारा कर रही हैं कि रौशनी से रौशनी के मिलने का सिलसिला भी चल रहा है।

संतोष कुमार सिंह ‘सारे सुखन हमारे’ लेते आए थे। मैंने पांच-छह ग़ज़लों और नज़्मों की पृष्ठ संख्या नोट की थी, पर एक ही ग़ज़ल ‘ढाका से वापसी पर’ सुनाया। वही नायरा नूर वाले अंदाज़ में। ‘हम के ठहरे अजनबी इतनी मुलाक़ातों के बाद’- लिखी गई भले यह ढाका से वापसी पर हो, पर इसे गाते और सुनते हुए आज मुल्कों, समुदायों, भाषाओं के बीच जो अजनबीयत पैदा कर दी गई है, जिस क़िस्म के हिंसक उन्मादी टकराव हो रहे हैं, उन सबसे पैदा दर्द का मानो एक साथ इज़हार होता है और सवाल गूंजता रहता है- ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद!

संतोष कुमार सिंह ने मार्के की बात कही कि हर शख़्स जो इश्क़ करना चाहता है, जो बेड़ियों को तोड़न चाहता है, जो आज़ादी चाहता है, जो अम्नपसंद है, फ़ैज़ उसके प्रिय शायर हैं। उन्होंने फ़ैज़ की नज़्म ‘ख़्वाब बसेरा’ सुनाया।

वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता बास्ता सोरेन की बहू सुनीता जो पेशे से डाॅक्टर हैं, वे ख़ास तौर से फ़ैज़ के इस आयोजन में शामिल होने पहुंची। उन्होंने ‘बोल की लब आज़ाद हैं तेरे’ सुनाया।

मुख्य वक्ता का. शशि कुमार ने बताया कि जिन दिनों वे मज़दूरी करते थे, उन दिनों दो गीत उनकी जुबान पर रहते थे। एक तो मजाज़ का- बोल अरी ओ धरती बोल राजसिंहासन डांवाडोल और दूसरा फ़ैज़ का तराना- दरबारे वतन में जाने वाले… ऐ ख़ाक नशीनों उठ बैठो अब वक़्त क़रीब आ पहुंचा है…जो दरिया झूम के उट्ठे हैं, तिनकों से न टाले जाएंगे। उनका कहना था कि बहुत सारे कवि और शायर हैं, जिनको पढ़ने और पढ़ाने वाले लोग होते हैं, पर कुछ ऐसे शायर होते हैं, जिन्हें जीने वाले लोग भी होते हैं। फ़ैज़ वैसे ही शायर हैं। फ़ैज़ आम आदमी की ज़िंदगी के, उसकी मुक्ति के शायर हैं। वे धार्मिक बिंबों के भीतर भी इंक़लाब की बात करते हैं। अहले सफा मरदूदे हरम मसनद पर तो तभी बैठाए जाएंगे जब इंक़लाब होगा। वे आज के लेखकों के लिए आदर्श हैं। वे कहते हैं कि चश्मेनम जान-ए-शोरीदा काफ़ी नहीं/आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो। शशि कुमार ने फ़ैज़ को कालजयी लेखक बताते हुए उनकी पंक्तियों के जरिए उम्मीद बंधाई- ‘‘यूं ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से ख़ल्क़/ न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई/ यूं ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल/ न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई।’’

आयोजन के दूसरे सत्र में फ़ैज़ की ग़ज़लों और नज़्मों की संगीतमय पेशकश हुई। शेखर मल्लिक के गायक रूप से भी हम आशना हुए। उन्होंने ‘मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग’ और ‘हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे’ को गाया। छीता हांसदा ने ‘गुलों की बात करों’ को बड़े ही सधे स्वर में गाया। ग़ज़ल गायिकी के लिहाज़ से उनकी आवाज़ काफ़ी संभावनापूर्ण लगी। शेखर मल्लिक साथ उन्होंने ‘कब याद में तेरा साथ नहीं’ भी गाया। ‘बोल के लब आज़ाद हैं तेरे’ को गिटार के संगीत पर साधने की कोशिश सोमनाथ ने की। प्रो. इंदल पासवान और शेखर ने ‘गुलों में रंग भरे’ को थोड़े नए अंदाज़ में पेश किया। तबले पर तुहिन मंडल और सिंथेसाइजर पर सोमनाथ ने साथ निभाया।

छोटे बच्चे-बच्चियों ने हमें इकबाल बानो के उस एलबम की आॅडियो सीडी हमें भेंट में दी, जिसमें उनकी आवाज में फ़ैज़ की रचनाओं की एक घंटे से अधिक की रिर्काडिंग है।

अपने ठिकाने पर पहुंचते-पहुंचते घड़ी के सूइयां दस को पार कर चुकी थीं। शरीर थका था, पर मन ऊर्जा से भरा हुआ था।

यह रिपोर्टनुमा जो कुछ है, उसे लिखते हुए शेखर मल्लिक का मेल मिला, जिसके अनुसार आयोजन में अनुमंडल पदाधिकारी अरविंद लाल, मादल नाट्य दल के रंगकर्मी गणेश मुर्मू, बलराम, भागवत दास, डाॅ. देवदूत सोरेन, लतिका पात्र, वादिनी चंद्रा, भवानी सिन्हा, स्नेहज, भारती, राजकमल और कई मज़दूर साथी भी मौजूद थे।

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